वर्तमान हालात में देश का मुसलिम तबक़ा नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए), नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी), नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) के बहाने देश में अपने अस्तित्व और अपनी पहचान को लेकर सरकार की नीयत के प्रति संदेह कर रहा है। अलग-अलग राज्यों में तमाम तरह के लोग नागरिकता क़ानून के विरोध में सड़कों पर उतरे हुए हैं। ऐसे में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत यह क्यों कह रहे हैं कि देश में जो भी रह रहा है, वे सब हिंदू हैं? यह बयान मौजूदा माहौल में कम से कम किसी उदारवाद की निशानी तो नहीं है। फिर ऐसा बयान उन्होंने क्यों दिया? क्या सब किसी लंबी विचार परियोजना का हिस्सा है?
सरकार जिस तरह नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर अड़ी हुई है, उससे तो यही लगता है कि ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने का जो काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1947 में नहीं कर पाया, उस पर अब सुनियोजित तरीक़े से अमल करने की तैयारी है। संविधान में बदलाव करके ऐसा करना असंभव होगा लेकिन समाज, राजनीति में उथल-पुथल मचाकर और अराजकता का माहौल बनाये रखकर या मुसलमानों को अंततः लोगों की नज़रों में किसी न किसी तरह से 'देश के ख़िलाफ़' साबित करके और उन्हें अलग-थलग करके ऐसा किया जा सकता है, वर्तमान सत्ता समूह का ऐसा विचार दिखता है। इस विचार को अमली जामा पहनाने में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उसकी मदद करने के लिए उत्सुक और तत्पर भी है।
इधर, देश के बँटवारे का मुद्दा फिर से ज़ेरे-बहस है। बँटवारे के लिए जिन्ना-गाँधी-नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराने वाला मौजूदा सत्ता समूह इस पूरी बहस से सरदार पटेल और वी.डी. सावरकर का नाम जानबूझकर गोल कर रहा है। बँटवारे की वजह बनी और बँटवारे के दौरान फैली सांप्रदायिक नफ़रत को फिर से भड़काए जाने के प्रयास ख़ुद सत्ता वर्ग और उसके समर्थकों की तरफ़ से हो रहे हैं। इससे सावधान रहने की ज़रूरत है।
यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि ख़ुद को सनातनी हिंदू कहने वाले महात्मा गाँधी की हत्या एक कट्टरपंथी हिंदू नाथूराम गोडसे ने नफरत भरी सोच की वजह से ही की थी। बीजेपी और आरएसएस दिखावे के लिए कितना भी गाँधी-गाँधी का नाम जपते रहें लेकिन हम देख सकते हैं कि आज गोडसे को देशभक्त बताने के सुनियोजित प्रयास किए जा रहे हैं और इन प्रयासों की अगुवाई बीजेपी की ही एक सांसद कर रही हैं।
रोजी-रोटी, ग़रीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक तरक्की जैसे असली मुद्दों से ध्यान भटकाकर समाज को धर्म के नाम पर बांटने और नफ़रत फैलाने का यह सारा खेल समझने की भी ज़रूरत है।
बँटवारा हिंदुस्तान के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी थी और यह हिंदू-मुसलिम रिश्तों का सबसे दुखद, बहुत नाज़ुक और त्रासद पहलू है। बीजेपी समेत समूचा संघ परिवार उसकी बेहद तकलीफ़देह और कड़वी यादों को, उन घावों को लगातार इरादतन कुरेदते रहना चाहते हैं। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आज़ादी के 72 साल बीत जाने के बाद देश की वर्तमान सरकार देश के वर्तमान और भविष्य की चिंता करने के बजाय देश की जनता को खींच-खींच कर बँटवारे के दौर की चर्चाओं में क्यों ले जाना चाहती है? देश के युवाओं की नौकरियों, लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था पर ढंग से फ़ोकस करने के बजाय सरकार जिन्ना-नेहरू-गाँधी, हिंदू-मुसलमान क्यों कर रही है?
बीजेपी बँटवारे के लिए नेहरू पर निशाना साधती रहती है। ऐसा वह कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व पर हमला करने के इरादे से, अपने पारंपरिक कट्टर हिंदू वोटर के सांप्रदायिक मानस को तुष्ट करने के लिए और नये वोटर को बरगलाने के लिए करती है। बीजेपी के लिए यह ज़रूरी है कि हिंदू-मुसलमान का मसला ज़िंदा रख कर सांप्रदायिक सौहार्द्र की जगह दोनों समुदायों के बीच नफ़रत की आग लगातार सुलगाये रखे जिससे वह ध्रुवीकरण करते हुए अपनी सियासी रोटियाँ सेंकते रहे।
बीजेपी की कोशिश है कि सांप्रदायिक मुद्दों के शोर में लोगों का ध्यान, बेरोज़गारी, ख़राब अर्थव्यवस्था, किसानों की बदहाली, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे ज़रूरी विषयों से हट जाए और सरकार को इन तमाम मोर्चों पर सवालों का सामना न करना पड़े और उसे अपनी नाकामियां छिपाने का मौक़ा मिल जाए।
कांग्रेस का रक्षात्मक होना नुक़सानदेह
नागरिकता संशोधन विधेयक (जो अब क़ानून बन चुका है) पर बहस के दौरान संसद के दोनों सदनों में गृह मंत्री अमित शाह ने बड़े आक्रामक लहजे में कांग्रेस पर आरोप लगाया कि 1947 में कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर देश का विभाजन कराया। बँटवारा हुआ, यह सच है। लेकिन कांग्रेस पर लगाया गया आरोप चालाकी से गढ़ा गया एक झूठ है। बीजेपी एक सोची-समझी सियासी शरारत के तहत नेहरू के नाम पर यह तीर वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व की तरफ़ उछाल रही है क्योंकि वह नेहरू परिवार से संबद्ध है। कांग्रेस की दिक़्क़त यह है कि जब-जब बीजेपी यह आरोप लगाती है, वह इस आरोप पर पलटकर हमलावर होने के बजाय ज़्यादातर रक्षात्मक हो जाती है।
नेहरू पर सवाल क्यों?
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि बँटवारे के लिए क्या नेहरू ज़िम्मेदार थे? या सिर्फ़ नेहरू ने पाकिस्तान बनने की मंज़ूरी दी? क्या बीजेपी के आराध्य सरदार वल्लभ भाई पटेल उस कांग्रेस का हिस्सा नहीं थे? क्या अगर सरदार पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष होते तो देश का बँटवारा नहीं होता? नेहरू की अगुआई में बनी पहली सरकार में एक तरफ़ कांग्रेस के भीतर उनके सबसे कड़े राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी सरदार पटेल थे तो बी.आर. आंबेडकर और हिंदू महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे, जिनके कांग्रेस की राजनीति से गहरे मतभेद थे। इनमें से सिर्फ़ नेहरू पर उँगली उठाना कहां तक न्याय संगत है?
अंग्रेज़ों के शासन से आज़ादी की लड़ाई के आख़िरी बीस-तीस बरसों में उस राजनीति का उभार धीरे-धीरे चरम पर पहुँचा जिसके चलते हिंदुस्तान आज़ाद तो हुआ लेकिन दो टुकड़ों में बँटकर। इस राजनीति पर सैकड़ों किताबें, संस्मरण लिखे जा चुके हैं लेकिन मौजूदा समय में एक बार फिर यह मसला अलग से एक विस्तृत विमर्श की माँग करता है।
कट्टर हिंदुत्ववादी चर्चाओं से इतर यह निर्विवाद सत्य है कि बँटवारे के दर्द, उसकी विभीषिका, हिंसा, सांप्रदायिक कड़वाहट और सियासत के दरम्यान तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने एक लड़खड़ाते आज़ाद देश को अपने पैरों पर खड़ा करने की हर मुमकिन कोशिश की और यह सब करते हुए अपने बुनियादी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। इसके लिए कांग्रेस की तत्कालीन टीम और उसके लीडर के तौर पर बतौर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सराहना करनी चाहिए।
कांग्रेस ने बँटवारे के वक़्त मुख्य रूप से तीन काम किये। एक तो पाकिस्तान बनाने के लिए ख़ुद को तैयार किया, दूसरा ‘हिंदू राष्ट्र’ की परियोजना को नाकाम किया और तीसरा विभाजन के बाद ऐसा लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक ढाँचा बनाया जिसके तहत भारत में रह गये मुसलमानों को भी बराबर अधिकार मिले।
बँटवारे के वक़्त जो हालात थे, उनमें आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे कट्टरपंथी हिंदू संगठन ‘हिंदू राष्ट्र’ के लिए माहौल बना रहे थे। मुसलमानों का एक अलग मुल्क बन जाने के बाद विभाजित हिंदुस्तान में बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच एक ‘हिंदू राष्ट्र’ के लिए प्रबल भावनात्मक आवेग का उमड़ना एक बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया होती। लेकिन ख़ुद को 'सनातनी हिंदू' कहने वाले महात्मा गाँधी की एक कट्टरपंथी हिंदू नाथूराम गोडसे के हाथों हत्या ने हिंदुत्ववादी राजनीति का वह मंसूबा उस वक़्त तो मिट्टी में मिला ही दिया था।
आम हिंदू जनमानस के बड़े हिस्से के बीच गाँधी जी की जो आदरणीय छवि थी, उसकी वजह से गाँधी की हत्या ने लोगों को इस क़दर स्तब्ध किया कि कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीति तिरस्कृत और बहिष्कृत होकर हाशिये पर चली गई। आरएसएस पर उन्हीं सरदार पटेल ने प्रतिबंध लगाया जिन्होंने संघ के स्वयंसेवकों को 'भटके हुए देशभक्त' कहा था।
संघ का जोर 'हिंदू राष्ट्रवाद' पर
आरएसएस ने 1925 में अपनी स्थापना के समय से 'भारतीय राष्ट्रवाद' की जगह 'हिंदू राष्ट्रवाद' पर जोर दिया। संघ के लिए हिंदुत्व का मुद्दा आज़ादी से ज़्यादा बड़ा और अहम था। गाँधी जी की हत्या के बाद लगे प्रतिबंध के चलते संघ कुछ दिन शांत रहा। लेकिन प्रतिबंध हटने के बाद से इसलामी पाकिस्तान की प्रतिक्रिया में संघ की ‘हिंदू राष्ट्र’ की राजनीति को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में लगातार धार मिलती रही है।
गाँधी जी की हत्या के बाद देश का ज़्यादातर हिस्सा शोक में था लेकिन कुछ जगहों पर मिठाइयाँ भी बंटीं थीं। 1951 में कानपुर में जनसंघ की स्थापना हुई और फ़ौरन ही कश्मीर आंदोलन के वक़्त यह नारा उछाल दिया गया कि 'एक देश में दो प्रधान, दो निशान और दो विधान' नहीं चलेंगे। यह कहने की हिम्मत कहाँ से आई, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है।
मजबूत हो रहीं हिंदुत्व की जड़ें
जनसंघ के बाद बीजेपी का जन्म और उसका लगातार फलते-फूलते जाना हिंदुत्व की राजनीति की लगातार मज़बूत होती जड़ों का स्पष्ट प्रमाण है। राम जन्मभूमि आंदोलन ने बीजेपी को केंद्र की सत्ता में पहुँचाया और अब नरेंद्र मोदी की अगुआई में ‘हिंदू राष्ट्र’ का सपना संविधान के रास्ते न सही लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक रूप से साकार करने की पूरी कोशिश है। यह भूलना नहीं चाहिए कि नरेंद्र मोदी को 2014 में प्रधानमंत्री बनने पर पृथ्वीराज चौहान के बाद पहले 'हिंदू' शासक की उपाधि से विभूषित किया गया था।
विभाजन को गहरा करने की कोशिश
बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद से सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक मोर्चों पर हिंदू-मुसलमान की विभाजन रेखा को लगातार गाढ़ा करने की सुनियोजित कोशिशें की हैं और इनसे फैली अराजकता ने समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को और तीख़ा किया है। यह ध्रुवीकरण देश के लिए अभिशाप है लेकिन राजनैतिक तौर पर बीजेपी के लिए सत्ता का सूत्र साबित हुआ है।
पाकिस्तान और मुसलमानों के नाम पर भावनाएँ भड़काकर बीजेपी ने चुनावी राजनीति में लगातार अपने राजनैतिक विरोधियों पर बढ़त हासिल की है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की अगुआई में सरकार बनना और 2019 में नरेंद्र मोदी की दूसरी पारी में बीजेपी की सीटों का बढ़ना इसका प्रमाण है। जब-जब बीजेपी राजनीति में, प्रशासन में और किसी अन्य मोर्चे पर परास्त होती दिखती है, हिंदुत्ववादी राजनीति, मुसलमान-पाकिस्तान का कवच-कुंडल धारण करके पूरी आक्रामकता के साथ मैदान में आ डटती है। नागरिकता संशोधन क़ानून पर चली गई तमाम पैंतरेबाज़ियों में यह साफ़ देखा जा सकता है।
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