साल 2019 से बीजेपी की मूल राजनीति को पहचानने के लिए मैं एक नई अवधारणा पेश करना चाहता हूँ- 'जिम क्रो हिन्दू राष्ट्रवाद'। इससे हमें बीजेपी की मौजूदा राजनीति और पिछली बार जब उसने दिल्ली पर राज किया था, उस समय की राजनीति के बीच के अंतर को समझने में मदद मिलेगी। यह भी महत्वपूर्ण है कि इससे बीजेपी के भारत और नात्सियों के जर्मनी के बीच का अंतर का पता चलता है। दुनिया के कई जगहों पर भारत की तुलना जर्मनी से की जा रही है।
'जिम क्रो' दरअसल क्या चीज है? यह एक नाटक है, जिसमें अश्वेत अमेरिकियों को बुरी हालत में दिखाया गया है। यह शब्दावली कुल मिला कर ऐसे नियमों और स्थितियों को लेकर है, जिसमें अश्वेत अमेरिकियों को मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया गया, पीट-पीट कर उनकी हत्या कर दी गई, उनकी बस्तियाँ अलग-थलग कर बसाई गईं, उनके स्कूल, चर्च, कारोबार और सामाजिक जीवन- सब कुछ अलग कर दिया गया था। दो नस्लों के लोगों के बीच के विवाह को ग़ैरक़ानूनी कर दिया गया, दो नस्लों के लोगों, ख़ास कर अश्वेत पुरुष और गोरी महिला के बीच के सेक्स पर कड़ी सज़ा दी गई। साल 1890 तक अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में इस तरह के नियम और रिवाज ने संस्थागत रूप ले लिया था। इस तरह अमेरिका में 'जिम क्रो दक्षिण' बना दिया गया था।
क्या है 'जिम क्रो' राजनीति?
यह राजनीति सात दशकों तक चलती रही और 1960 के दशक के बीच में नागरिक अधिकार व मतदान अधिकार क़ानून के रूप में ख़त्म हुई। लोकतंत्र के सिद्धांतों के मुताबिक़, उस समय तक अमेरिका अर्द्ध- लोकतांत्रिक था।
इन 11 दक्षिणी अमेरिकी राज्यों में चुनावी लोकतंत्र और श्वेत राष्ट्रवाद पर आधारित नस्लीय राजनीति साथ-साथ चलती रहीं। ये राज्य 1861-65 के गृह युद्ध में अलग हो गए और उन्हें उसमें हार का मुँह देखना पड़ा। श्वेत बहुसंख्यकवाद ने ढाई दशक बाद वहाँ अश्वेतों को दबाने वाला राज क़ानूनी रूप से कायम कर दिया।
अमेरिकी इतिहास का यह कालखंड अमेरिकी राजनेताओं, बुद्धिजीवियों और कई नागरिकों को अच्छी तरह पता है। दक्षिणपंथी राजनीति से जुड़े लोगों को छोड़ कर अमेरिका के अधिकतर लोग इस 'जिम क्रो' अतीत को नापसंद करते हैं। पर देश के बाहर के लोगों को यह मोटे तौर पर मालूम नहीं है।
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मार्टिन लूथर किंग
मार्टिन लूथर किेंग ने 1960 के दशक में अश्वेत अमेरिकियों के इस संघर्ष को दुनिया के सामने पेश किया और ब्लैक लाइव्स मैटर आन्दोलन ने इस मामले में दुनिया को अधिक जागरूक किया है। इससे अमेरिका में भी लोगों में इस मुद्दे पर जागरुकता बढ़ी है।
हिन्दू राष्ट्रवाद के तुलनात्मक विश्लेषण में अमेरिकी इतिहास के इस दौर को याद नहीं किया जाता है। इसके बदले लोगों का ध्यान यूरोपीय इतिहास के नात्सी काल की ओर जाता है। इसकी एक वजह यह भी है कि शुरू में हिन्दू राष्ट्रवादियों ने नात्सियों से खुले आम प्रेरणा ली थी।
नात्सीवाद
हिन्दू राष्ट्रवाद के वैचारिक पिता एम. एस. गोलवलकर ने यहूदियों के प्रति हिटलर के व्यवहार की तारीफ करते हुए तर्क दिया था कि
“
जिस देश में हिन्दुओं का वर्चस्व है, उस देश में मुसलमानों को हिन्दू नस्ल और संस्कृति का गुणगान करना चाहिए, उन्हें किसी चीज का दावा नहीं करना चाहिए, यहाँ तक कि नागरिकता के अधिकारों का भी नहीं।
एम. एस. गोलवलकर, (वी ऑर आवर नेशनहुड डिफ़ाइन्ड, 1938)
यातना शिविर
जब हिन्दू राष्ट्रवाद की तुलना नात्सीवाद से की जाती है, एक सबसे अहम बात पर ध्यान नहीं दिया जाता है। कनसेन्ट्रेशन कैम्प यानी यातना शिविर की संस्था नात्सी जर्मनी के केंद्र में थी। इस संस्थान के तीन मक़सद थे- राज्य के 'वास्तविक या काल्पनिक' शत्रुओं को प्रशासनिक अनुमति लेकिन न्यायपालिका की इजाजत के बिना अनिश्चित काल तक बंदी बनाए रखना, न्यायपालिका की अनुमति के बग़ैर ही अवांछित लोगों के समूहों को नष्ट कर देना, उन्हें काम करने को मजबूर कर दंडित करना।
इसके मुख्य शिकार यहूदी थे। एक अनुमान के मुताबिक, लगभग 60 लाख यहूदी मर गए या मार दिए गए।
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साल 1945 के बाद की दुनिया में यातना शिविर लगभग असंभव है। जो देश ये बनाएंगे, उन्हें सबसे अलग कर दिया जाएगा। आर्थिक- सैन्य ताक़त और हान बहुसंख्यकवाद के कारण चीन एक मात्र देश है जो उइगुर मुसलमानों के लिए कनसेन्ट्रेशन कैम्प बना कर भी बच गया है।
हिन्दू राष्ट्रवाद
अटल बिहारी वाजपेयी के हिन्दू राष्ट्रवाद (1998-2004) ने सार्वजनिक प्रतीकों और बहसों में भारत को हिन्दुओं का देश बनाया, लेकिन क़ानून का सहारा लेकर उसे मुसलिम-विरोधी नहीं बनाया। बीजेपी की आज की राजनीति और ख़ास कर 2019 की जीत के बाद इसके पीछे की ताक़त सार्वजनिक स्पेस के हिन्दुकरण से ही संतोष नहीं कर रही हैं।
ऐसे क़ानून बनाए जा रहे हैं जिससे मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जा सके, भीड़ द्वारा सामूहिक रूप से पीट-पीट कर हत्या कर देने और ज़बरदस्त नफ़रत फैला कर डर फैलाया जा रहा है।
क़ानून और हिंसा को मिला कर धार्मिक मेल-मिलाप को रोका जा रहा है और सांप्रदायिक अलगाव को और गहरा किया जा रहा है। हिन्दू राष्ट्रवाद के पैरोकार 'जिम क्रो' इतिहास को नहीं जानते, पर वे बीजेपी-शासित राज्यों में 'जिम क्रो' भारत बनाने का ख़तरा पैदा कर रहे हैं। अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में नस्ल जो था, हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए नस्लीयकृत धर्म वही है।
'जिम क्रो दक्षिण'
'जिम क्रो दक्षिण' में अश्वेत अमेरिकियों के साथ क्या हुआ, इस पर विचार करें। गृह युद्ध काल के बाद 1865-70 के दौरान तीन संविधान संशोधनों के ज़रिए अश्वेतों को मुक्ति दी गई। 13वें संविधान संशोधन से अश्वेतों की ग़ुलामी ख़त्म कर दी गई, 14वें संशोधन से उन्हें क़ानून की निगाह में समानता और नागरिकता का हक़ दिया गया, और 15वें संविधान संशोधन के ज़रिए उन्हें मतदान का अधिकार दिया गया।
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जवाबी क्रांति
नस्लीय श्वेत दलों ने 1880 के दशक में चुनाव में जीत हासिल करने के बाद जवाबी क्रांति शुरू कर दी। निर्वाचित प्रतिनिधियों के बल पर उन्होंने मताधिकार के लिए शिक्षा, निवास और निर्वाचन की शर्तें लगाने वाले क़ानून पारित किए। नतीजतन, मोटे तौर पर अशिक्षित और ग़रीब अश्वेत मतदान के अधिकार से वंचित हो गए। दक्षिणी राज्यों में 1872-73 के दौरान आज़ादी के अहसास से भरे हुए 80 से 85 प्रतिशत अश्वेतों ने मतदान के लिए पंजीकरण कराया। लेकिन नए क़ानूनों की कारण 1905-06 तक सिर्फ पाँच-छह प्रतिशत अश्वेतों के पास ही मताधिकार बचा रहा।
पीट-पीट कर मार दिए जाने का डर उनमें समाया गया। साल 1882 से 1930 तक लगभग हर साल तकरीबन एक सौ अमेरिकियों को पीट-पीट कर मार डाला गया, इनमें से अधिकतर अश्वेत थे, इनमें से ज़्यादातर कांड दक्षिण में हुए।
भारत का हाल
अब इस पर विचार करें कि मई 2019 के बाद से भारत में विधायिका के नियंत्रण का प्रयोग किस तरह किया गया।
सार्वजनिक सुरक्षा क़ानूनों में संशोधन कर सरकार को यह अधिकार दिया गया कि वह किसी भी व्यक्ति को 'आतंकवादी' या 'राष्ट्र-विरोधी' घोषित कर सकती है, अदालत तक गए बिना उन्हें बंदी बना कर रख सकती है।
सैद्धान्तिक रूप से सीएए और एनआरसी का इस्तेमाल कर मुसलमानों से नागरिकता छीनी जा सकती है और शायद उन्हें राज्य से मिलने वाली लोक कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित किया जा सकता है।
पीट-पीट कर मार डालने की वारदातों ने मुसलमानों को डरा तो दिया ही है।
अब क्या हो?
देश को 'जिम क्रो' भारत में आकंठ डूबने से बचाने के लिए राजनीतिक उद्येश्य एकदम साफ हैं- जिन राज्यों में बीजेपी सत्ता में नहीं है, उसके परे भी, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में, बीजेपी को राजनीतिक चुनौती दी जाए, संघीय ढाँचे पर ज़ोर दिया जाए, लोकतांत्रिक विरोध और आन्दोलन तेज़ किए जाएं। अमेरिका में 1950 तक अदालतों और अख़बारों ने 'जिम क्रो' का विरोध नहीं किया था। ये दोनों संस्थान अब तक भारत में भी अविश्वसनीय हैं। क्या वे बदल सकते हैं? क्या वे बदलेंगे?
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