एक बार फिर सावरकर को भारत रत्न देने की बात उठी है और वह भी चुनावी मौसम में। इस बार यह बात भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र में छापकर चर्चा में लायी गयी है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न पुरस्कार देने की सिफ़ारिश राष्ट्रपति से की थी लेकिन वह स्वीकार नहीं हुई थी। तो अब क्या भारत रत्न पुरस्कार की बात एक नए सिरे से करके कोई राजनीतिक समीकरण तो नहीं साधने के प्रयास किये जा रहे हैं?
शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने भी 24 अप्रैल को ठाणे में एक कार्यक्रम में कहा था, 'सावरकर के लिए भारत रत्न की माँग में हम सब साथ हैं और विपक्ष के कुछ नेता भी सावरकर के लिए सर्वोच्च सम्मान चाहते हैं। अब हमें इसे सच बनाने के लिए काम करना है।’ उन्होंने माँग की कि कालापानी की सज़ा के दौरान सावरकर को अंडमान निकोबार स्थित सेल्युलर जेल की जिस कोठरी में रखा गया था, उसकी एक प्रतिकृति मुंबई में बननी चाहिए। उन्होंने कहा, युवाओं और नागरिकों को हिन्दू राष्ट्र और स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर के योगदान की जानकारी दी जानी चाहिए। तो क्या अब इस देश में महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता मानने और उनके विचारों का दौर ख़त्म हो गया है?
यह पहला अवसर नहीं है जब सावरकर को भारत रत्न दिए जाने की बात उठी हो। वर्ष 2000 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के पास सावरकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' देने का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया था। सावरकर को भारत रत्न का सम्मान देने की बात से बहुत से सवाल खड़े होते हैं और उन सवालों के जवाब देश की जनता के समक्ष आने भी चाहिए। 26 मई, 2014 को नरेंद्र मोदी ने जब पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तो उसके दो दिन बाद ही सावरकर की 131वीं जन्म तिथि थी। उन्होंने संसद भवन में जा कर सावरकर के चित्र के सामने सिर झुका कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। इसके बाद गत दिनों जब मोदी अंडमान निकोबार गए थे तब उन्होंने उस सेल्युलर जेल की कोठरी में जाकर सावरकर के चित्र के समक्ष अपनी श्रद्धा प्रकट की थी। ऐसे में बीजेपी के घोषणा पत्र में सावरकर को ‘भारत रत्न’ देने की बात कहा जाना चौंकाने जैसा नहीं है। लेकिन अब महात्मा गाँधी के बारे में बीजेपी को स्पष्ट करना होगा कि उनके बारे में क्या विचार हैं!
जिस सावरकर को बीजेपी ‘भारत रत्न’ देने की बात कह रही है वह विवादास्पद शख़्सियत थे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। साल 1948 में महात्मा गाँधी की हत्या के छठे दिन विनायक दामोदर सावरकर को गाँधी जी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के लिए मुंबई से गिरफ़्तार किया गया था। हालाँकि उन्हें फ़रवरी 1949 में बरी कर दिया गया था। लेकिन गाँधी हत्याकांड में उनके ख़िलाफ़ केस चला था। वह छूट ज़रूर गए थे, लेकिन उनके जीवन काल में ही उसकी जाँच के लिए कपूर आयोग बैठा था और उसकी रिपोर्ट में शक की सुई सावरकर से हटी नहीं थी।
कपूर कमीशन की रिपोर्ट में भी साफ़ कहा गया है कि उन्हें इस बात का यक़ीन नहीं है कि सावरकर की जानकारी के बिना गाँधी हत्याकांड हो सकता था।
सावरकर से जुड़े विवादों में एक बहुत महत्वपूर्ण विवाद है, वह है अंग्रेज़ सरकार को माफ़ीनामे लिखने का। 11 जुलाई 1911 को सावरकर अंडमान पहुँचे थे और 29 अगस्त को उन्होंने अपना पहला माफ़ीनामा लिखा, वहाँ पहुँचने के डेढ़ महीने के अंदर। इसके बाद 9 सालों में उन्होंने 5 बार अंग्रेज़ों को माफ़ी पत्र दिए। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘अगर मैंने जेल में हड़ताल की होती तो मुझसे बाहर पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता।’ जेल से रिहा होने के बाद वह इसे अपनी एक रणनीति बताते थे।
भागने का प्रयास भी किया था
सावरकर पर शोध करने वाले पत्रकार निरंजन टाकले उनको लेकर अलग ही सवाल उठाते हैं। उनके अनुसार सावरकर को उनके राजनीतिक विचारों के लिए पुणे के फरग्यूसन कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया था और साल 1910 में उन्हें नासिक के कलेक्टर की हत्या में संलिप्त होने के आरोप में लंदन में गिरफ़्तार कर लिया गया था। ‘1910 में नासिक के ज़िला कलेक्टर जैक्सन की हत्या के आरोप में पहले सावरकर के भाई को गिरफ़्तार किया गया था।’ “सावरकर पर आरोप था कि उन्होंने लंदन से अपने भाई को एक पिस्टल भेजी थी, जिसको हत्या में इस्तेमाल किया गया था। 'एसएस मौर्य' नाम के पानी के जहाज़ से उन्हें भारत लाया जा रहा था। जब वह जहाज़ फ़्रांस के मार्से बंदरगाह पर 'एंकर' हुआ तो सावरकर जहाज़ के शौचालय के 'पोर्ट होल' से बीच समुद्र में कूद गए।” लेकिन वह पकड़े गए और उन्हें अंडमान की जेल में पहुँचाया गया। और जेल से माफ़ीनामे लिखने की वजह से उन्हें छोड़ा गया।
किसी दूसरे क्रांतिकारी ने नहीं माँगी थी माफ़ी
ऐसे में यह सवाल उठते हैं कि आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह या उनके किसी क्रांतिकारी साथी ने इस प्रकार से कोई माफ़ीनामा अंग्रेज़ सरकार को लिखा था क्या? या कांग्रेस के नेताओं- महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक आदि द्वारा अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगे जाने के उदाहरण हैं क्या? भगत सिंह ने संसद में बम फेंकने के बाद भागने का रास्ता भी नहीं चुना था। एक सवाल यह भी उठता है कि अंग्रेज़ों की क़ैद से आज़ाद होने के बाद सावरकर क्या आज़ादी के आंदोलन से जुड़े या कुछ सामाजिक कार्यों से जुड़े? साल 1924 में सावरकर को पुणे की यरवदा जेल से दो शर्तों के आधार पर छोड़ा गया। एक तो वह किसी राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे और दूसरे वह रत्नागिरि के ज़िला कलेक्टर की अनुमति लिए बिना ज़िले से बाहर नहीं जाएँगे। निरंजन टाकले के अनुसार, ‘सावरकर ने वायसराय लिनलिथगो के साथ लिखित समझौता किया था। अंग्रेज़ उनको पेंशन दिया करते थे, साठ रुपए महीना।’ वह अंग्रेज़ों की कौन-सी ऐसी सेवा करते थे, जिसके लिए उनको पेंशन मिलती थी? वह इस तरह की पेंशन पाने वाले अकेले शख़्स थे।
जेल से निकलने के बाद क्या किया?
जेल से निकलने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व - हू इज़ हिंदू?' जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया। हिंदुत्व को वह एक राजनीतिक घोषणापत्र के तौर पर इस्तेमाल करते थे। हिंदुत्व की परिभाषा देते हुए वह कहते हैं कि “इस देश का इंसान मूलत: हिंदू है। इस देश का नागरिक वही हो सकता है जिसकी पितृ भूमि, मातृ भूमि और पुण्य भूमि यही हो। ...पितृ और मातृ भूमि तो किसी की हो सकती है, लेकिन पुण्य भूमि तो सिर्फ़ हिंदुओं, सिखों, बौद्ध और जैनियों की ही हो सकती है, मुसलमानों और ईसाइयों की तो यह पुण्यभूमि नहीं है। इस परिभाषा के अनुसार मुसलमान और ईसाई तो इस देश के नागरिक कभी हो ही नहीं सकते। ...एक सूरत में वे हो सकते हैं अगर वे हिंदू बन जाएँ।” यानी उन्होंने मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र का सिद्धांत प्रतिपादित किया। ऐसे में भारत रत्न दिया जाना कहाँ तक जायज़ होगा, इसका जवाब सरकार को देना होगा।
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