प्रिय जवाहरलाल जी, सालगिरह बहुत-बहुत मुबारक। बीते छह-सात वर्षों से आपके जन्म दिवस या पुण्यतिथि पर आपको लगातार लिखता रहा हूँ। लगातार लिखने के पीछे एक मकसद यह भी रहा कि आप जिस मुल्क और जहां के लोगों से बेपनाह मुहब्बत करते थे, वहां की बदली-बदली सी आबोहवा के बारे में आपको बताता रहूँ। आपको शायद संविधान सभा में प्रस्तुत अपना उद्देश्य-संकल्प (ऑब्जेक्टिव रेजोल्यूशन) याद हो जिसकी बुनियाद पर आप और आपके साथियों ने ‘विशाल हृदय हिन्दुस्तान’ की संकल्पना रखी। आपने फिज़ा में बंटवारे के संकीर्ण और ज़हरीले दायरों को दरकिनार करते हुए हर व्यक्ति के लिए न्याय की समानता, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर शासन और लोक-व्यवस्था की नींव रखी। आज आप लोगों द्वारा रखी गयी उस ख़ूबसूरत नींव को ही ढहाने की चेष्टा हो रही है। बकौल इकबाल...’न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में।’
एक सनकी विचारधारा से पोषित व्यक्ति द्वारा बापू की नृशंस हत्या के ठीक 13 दिन पहले आपने अपने एक ख़त के माध्यम से देश और समाज की चिंता से सबको अवगत करते हुए आगाह भी किया था। लोगों और समुदायों के बीच बढ़ती दूरी और बर्बर हिंसा की अनेकानेक वारदातों के बीच कुछ लोग ‘हिन्दू पाकिस्तान’ बनाने पर आमादा थे। ‘गर्म हवा’ के पैरोकारों के दबाव का प्रतिकार करना आसान नहीं था लेकिन उन्मादी भीड़ वाली राजनीति के आगे झुकना ना आपके मिजाज़ में था और ना ही आपके समकालीन साथियों में। अतः आप और आपके साथ के लोग उन्मादी और हिंसक राजनीति की वकालत करने वालों से गाँधी के नैतिक बल वाली धारा में आने का आग्रह करते रहे।
आप जानते थे कि घृणा और विद्वेष के आधार पर कोई भी राष्ट्र अपनी बनावट और बुनावट को महफूज़ नहीं रख सकता। आज हालात यह हैं कि घृणा और नफरत की उस विचारधारा ने एक समाज बना दिया है जहाँ आपके और बापू के सरोकार वाले लोग तन्हा होते जा रहे हैं। अब देखिये ना! हाल में कश्मीर के ही मसले पर इन्होंने क्या किया?
लड़ना-बोलना नहीं चाहते लोग
अच्छा नहीं लगेगा लेकिन कहना ज़रूरी है कि आपका प्यारा हिंदुस्तान काफी बदल गया है जवाहरलाल जी! अबकी वाली गरम हवा दिनोंदिन और गरम होती जा रही है। तब आप थे, सरदार थे, आज़ाद थे, लोहिया और जेपी भी थे और बाबा साहेब भी, इसलिए उस गरम हवा के प्रभाव को आप लोगों ने रोक लिया। आज दूर-दूर तक इस गरम हवा के ख़िलाफ़ लड़ना तो छोड़िये, बोलना भी लोग ज़रूरी नहीं समझते। मैं शिकायत नहीं कर रहा बल्कि बताना चाहता हूँ कि आपके स्वयं के दल की एक धारा ‘मूड ऑफ़ द नेशन’ का हवाला देकर या तो चुप्पी साधना चाहती है या फिर उसी ‘गरम हवा’ वाली टोली की धुन गाना चाहती है।
पिछले कुछ वर्षों में हम स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के दानवीकरण के अभियान के साक्षी रहे हैं। इस दुर्भावनापूर्ण कैंपेन की शुरुआत में लगा कि हम सब संगठित होकर इसका प्रतिकार करेंगे लेकिन धीरे-धीरे यह अहसास हो चला है कि जिनके भरोसे हम संविधान की प्रस्तावना की आत्मा को बचाने की कोशिश करना चाहते थे, वे इस लड़ाई के लिए तैयार नहीं हैं। कुछ सीधे तौर पर उधर चले गए और कुछ ने कोई और वजह ढूंढ कर किनारा कर लिया।
जवाहरलाल जी! हाल में एक और फ़ैसला आया अयोध्या में राम मंदिर के बारे में। फ़ैसले में बताया गया कि सन 1949 में (आप जब प्रधानमंत्री थे) रामलला की मूर्ति रखना गैर-क़ानूनी था और हाँ सन 1992 में मसजिद ढहाना भी क़ानून के ख़िलाफ़ था। विवादित ज़मीन पर राम मंदिर और मसजिद के लिए अयोध्या में कहीं और 5 एकड़ ज़मीन का प्रावधान किया गया।
‘देश के मूड’ वाली थ्योरी ज़बरदस्त ढंग से चलाई जा रही है, इसलिए उस दिन भी आप बहुत याद आये। आप तो गाँधी के राम को मानते थे। गाँधी जी के निरंतर ‘रघुपति राघव राजा राम’ के जाप करने को तब भी लोग दशरथ नंदन राम और तुलसी के रामचरित मानस से जोड़ कर देखने की कोशिश करते थे जिसका खुलासा बापू ने सन 1909 में लिखे एक पत्र में किया - ‘रामनाम ईश्वर का एक नाम है इसलिए हम सब उसे एक आवाज़ से परमात्मा, ईश्वर, शिव, विष्णु, राम, अल्लाह, खुदा, जिहोवा, गॉड आदि अनेक और अनंत नामों से पुकारते हैं…’।
एक बेचैनी सी है आपके मुल्क में और इसी बेचैनी में आपकी सालगिरह पर ये सब कह गया। लेकिन आप होते तो कहते इस बेचैनी से नया सृजन करो जिसे विष्णु प्रभाकर बापू की रचनात्मक बेचैनी की संज्ञा देते हैं और जो आम इंसान की मुक्ति की रचनात्मक बेचैनी थी।
आज के सन्दर्भ में आपकी या बापू की प्रासंगिकता को उकेरने से पूर्व हमें यह निश्चित करना होगा कि क्या हम स्वयं समकालीन प्रसंगों को समझते हैं और उनकी बनावट और बुनावट से दुःखी हैं और हमारा दुःख हमें सामूहिक फ़ैसला लेने को प्रेरित करता है, चाहे वह तथाकथित ‘देश के बदलते मूड’ का प्रतिकार करना ही क्यूँ ना हो। और आख़िर में राही मासूम रज़ा की चंद पंक्तियाँ आपके पेश-ए-नज़र करता हूँ-
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
मेरे उस कमरे को लूटो
जिसमें मेरी बयाने जाग रही हैं और
मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके कालीदास के मेघदूत से यह कहता हूँ
मेरा भी एक संदेश है।
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको
और उस योगी से कह दो - महादेव
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह जलील तुर्कों के बदन में गढ़ा गया
लहू बनकर दौड़ रहा है।
एक बार पुनः 130 वें जन्मदिवस की असंख्य शुभकामनाएँ। अगर मौसम नहीं बदला तो फिर लिखूंगा।
जय हिन्द
आपका
मनोज
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