देश की आधी आबादी यानी महिलाओं को जिस बराबरी और समानता के आईने में बाबासाहेब ने देखा, उसका कोई सानी नहीं है। यूँ तो समय-समय पर अलग-अलग महापुरुषों ने महिलाओं के अधिकारों पर ज़ोर दिया लेकिन भारत के मूल दस्तावेज़ों में इन अधिकारों को दर्ज कराने का काम बाबासाहेब ने किया, वह भी कड़े विरोध के बावजूद। इस पर विरोध उस समय की मानसिकता को दर्शाता है जिसने हमेशा महिलाओं को दोयम दर्जे का स्थान दिया है। जिनके लिए महिला उनकी सम्पत्ति से अधिक कुछ नहीं।
‘रात और दिन, कभी भी स्त्री को स्वतंत्र नहीं होने देना चाहिए। उन्हें लैंगिक संबंधों द्वारा अपने वश में रखना चाहिए, बालपन में पिता, युवावस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्र उसकी रक्षा करें, स्त्री स्वतंत्र होने के लायक नहीं है।’ मनु स्मृति (अध्याय 9, 2-3) में लिखी यह बात बताती है कि उस वक़्त महिलाओं की क्या दशा रही होगी। हमारा समाज सदियों से मनुवादी संस्कृति से ग्रसित रहा है। मनुस्मृति काल में नारियों के अपमान और उनके साथ अन्याय की यह पराकाष्ठा थी।
आज भी जब पूरा देश महिला सुरक्षा और 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' जैसे सशक्त संदेशों को दूर-दूर तक पहुँचाने के दावे करता है, ऐसे में इस बात को जानना और भी ज़रूरी हो जाता है कि जो अधिकार बाबासाहेब आम्बेडकर ने महिलाओं को दिए उन अधिकारों को वे कितना जानती हैं।
दिल्ली का निर्भया कांड हो, यूपी का उन्नाव, मिर्चपुर, हैदराबाद कांड या फिर कठुआ का दर्दनाक हादसा, ये सभी वे घटनाएँ हैं जो मीडिया के ज़रिए हम तक पहुँचाई गईं। राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के हालिया आँकड़ों के अनुसार हर 15 मिनट में एक बलात्कार दर्ज होता है। ये आँकड़े ‘बेटी बचाओ’ जैसे सशक्त संदेशों की धज्जियाँ उड़ाते हैं। साथ ही एक कड़वा सच यह भी है कि यदि महिला निचली जाति की हो तो उसके साथ होने वाली हिंसा और भी भयावह होती है। जिस पीड़ा को सोच कर ही रूह काँप जाती हो ऐसी पीड़ा को ये बेटियाँ हर रोज़ जीने को मजबूर हैं। क्योंकि ऐसे कृत्य को अंजाम देने वालों को कोई ठोस सज़ा दी ही नहीं जाती। लेकिन क्या आप जानते हैं कि आज महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए हमारे पास जो भी संवैधानिक सुरक्षा कवच, क़ानूनी प्रावधान और संस्थागत उपाय मौजूद हैं, इसका श्रेय सिर्फ़ बाबासाहेब आम्बेडकर को जाता है जिनके अथक प्रयासों से यह संभव हो पाया।
भारतीय संदर्भ में जब भी समाज में व्याप्त जाति, वर्ग और लैंगिक स्तर पर व्याप्त असमानताओं और उनमें सुधार के मुद्दों पर चिंतन हो तो डॉ. आम्बेडकर के विचारों और दृष्टिकोण को शामिल किए बिना बात पूरी नहीं की जा सकती।
आज बाबासाहेब की पुण्यतिथि पर महिलाओं के लिए उनके द्वारा किए गए अप्रतिम योगदान को याद करना इसलिए भी ज़रूरी है कि उन्हें जो अधिकार और आज़ादी मिली वह सिर्फ़ बाबासाहेब की ही देन है। सिर्फ़ पिछड़ी जाति ही नहीं, बल्कि बाबासाहेब आम्बेडकर ने सभी महिलाओं के लिए आज़ादी के नए द्वार खोले।
इस दृष्टिकोण से आम्बेडकर संभवतः पहले अध्येता रहे हैं जिन्होंने जातीय संरचना में महिलाओं की स्थिति को लैंगिक दृष्टि से समझने का प्रयास किया। उनके सम्पूर्ण विचार मंथन के दृष्टिकोण में सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा महिला सशक्तिकरण था फिर चाहे वह किसी जाति, धर्म, संप्रदाय की हो। उन्होंने भारत की तत्कालीन सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक धार्मिक राजनैतिक व्यवस्था का सूक्ष्म अध्ययन करके जाना कि सभी समस्या के समाधान की मूल शर्त सामाजिक न्याय और परिवर्तन की क्रांति से है न कि अन्य किसी उपाय से।
आज महिलाएँ फ़ख़्र से पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सिर्फ़ इसलिए चल पा रही हैं क्योंकि लोकतंत्र की आत्मा कहे जाने वाले संविधान में उनके लिए वह हक सुनिश्चित किए गए।
जब भारत आज़ाद हुआ तब हिंदू समाज में पुरुष और महिलाओं को तलाक़ का अधिकार नहीं था। पुरुषों को एक से ज़्यादा शादी करने की आज़ादी थी लेकिन विधवाएँ दोबारा शादी नहीं कर सकती थीं। विधवाओं को संपत्ति से भी वंचित रखा गया था। ऐसे में हिन्दू कोड बिल के ज़रिए महिलाओं को उनके अधिकार देने की बात बाबासाहेब ने कही।
इस बिल के ज़रिए महिलाओं की उन्नति, तलाक़ लेने का अधिकार, तलाक़ मिलने पर गुजारा भत्ता, एक पत्नी के होते हुए दूसरी शादी न करने का प्रावधान, बच्चे गोद लेने का अधिकार, संपत्ति में हिस्से का अधिकार, लड़की को उत्तराधिकार का अधिकार, अंतर-जातीय विवाह को शामिल करना और महिलाओंं को संपत्ति के बँटवारे के संबंध में क़ानूनों को संहिताबद्ध किए जाने का प्रस्ताव था। यह बिल ऐसी तमाम कुरीतियों को हिंदू धर्म से दूर कर रहा था जिन्हें परंपरा के नाम पर कुछ कट्टरपंथी ज़िंदा रखना चाहते थे। इन सभी बिंदुओं के अवलोकन से साफ़ होता है कि हिन्दू कोड बिल भारत की सभी महिलाओं के लिए कितना अमूल्य है।
सच तो यह है कि हिंदू कोड बिल महिला हितों की रक्षा करने वाला विधान बनाना भारतीय क़ानून के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इसका विरोध किया था। उनके अनुसार इस बिल के दूरगामी परिणामों के बारे में लोगों में मतभेद था। इसके चलते 26 सितम्बर 1951 को नेहरु ने घोषणा की कि यह बिल इस सदन से वापस लिया जाता है। 27 सितंबर 1951 को बाबा साहब ने मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। मक़सद पूरा न होने पर सत्ता छोड़ देना निस्वार्थ समाजसेवी की पहचान है। यह बाबासाहब जैसे लोग ही कर सकते थे।
बाबासाहब के इस्तीफ़े के बाद देश भर में हिंदू कोड बिल के पक्ष में बड़ी प्रतिक्रिया हुई। ख़ास तौर से महिला संगठनों द्वारा। विदेशों में भी इसकी प्रतिक्रिया हुई। कुछ साल बाद हिंदू कोड बिल 1955-56 के अधिकांश प्रावधानों को निम्न भागों में संसद ने पारित किया। इसका श्रेय डॉ. आम्बेडकर को ही जाता है।
- हिंदू विवाह अधिनियम
- हिंदू तलाक अधिनियम
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम
- हिंदू दत्तकग्रहण अधिनियम
ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था और समाज में व्याप्त परंपरागत धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएँ जो महिलाओं को पुरुषों के अधीन बनाए रखने की बात करती हैं, ऐसी व्यवस्थाओं को जड़ से मिटाने के लिए बाबासाहेब महाड़ आंदोलन के ज़रिए शुरुआत कर महिला क्रांति के मसीहा बने। स्त्री सरोकारों के प्रति आम्बेडकर का समर्पण किसी जुनून से कम नहीं था। सामाजिक न्याय, सामाजिक पहचान, समान अवसर और संवैधानिक स्वतंत्रता के रूप में नारी सशक्तिकरण के लिए उनका योगदान पीढ़ी दर पीढ़ी याद किया जाएगा।
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