अटल जी होते तो आज सौ बरस के होते।अटल भारतीय राजनीति का एक समदर्शी विचार हैं। नेहरु के आलोचक हैं और प्रशंसक भी । लोहिया के सखा हैं और विरोधी भी। इंदिरा से सहमत भी हैं और असहमत भी। अटल राजनीति में कट्टरता से दूर उदारता के निकट खड़े हैं। भारत आजाद होते ही हिंसात्मक और कड़वी राजनीति के मुहाने पर था । जिन नेताओं ने देश की राजनीति को मनुजता की तरफ लौटाया उसमें एक नाम अटल बिहारी का भी है । जिनकी हस्ती में अपने दल से ज्यादा बल है।
मैने अटल जी के मिजाज के कई रंग देखे और उन्हें हर रंग में बेजोड़ पाया।ये बात 1999 की है।तब कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे औरअटल जी देश के प्रधानमंत्री। कल्याण सिंह ने किन्हीं विशेष कारणों से पार्टी नेतृत्व के खिलाफ झंडा उठा लिया था।वे अटल जी के भी खिलाफ हो गए।बाद में उन्हें मुख्यमंत्री पद भी छोड़ना पड़ा और रामप्रकाश गुप्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
जब यह विवाद चरम पर था, वाजपेयी जी लखनऊ आए। वे राजभवन में रूके। दोनों में आपकी कटुता इस हद तक बढ़ चुकीथी कि लखनऊ के अखबारों में उस रोज ये कयास भरी खबरें भी छपीं थी कि कल्याण सिंह राजभवन में प्रधानमंत्री से मिलने जाएंगे या नहीं। अपनी पिछली यात्रा में अटल जी ने मेरी नन्ही बिटिया से मिलने की इच्छा जताई थी। मैं अपनी बेटी को अटल जी से मिलवाने राजभवन पहुंचा। मुलाकात के इंतजार के दौरान ही मैंने देखा कल्याण सिंह अटल जी मिलकर बाहर आ रहे हैं। मेरे लिए ये ‘स्कूप’ था। मैने सोचा कि अब अटल जी मिलूंगा तो खबर पता चलेगी। जैसे ही मैं उनके कमरे में दाखिल हुआ, अटल जी ईशानी को देखकर खुश हो गए। वे उसके साथ खेलने लगे।
मैंने उनसे पूछा कल्याण सिंह आए थे। उन्होंने सिर हिलाकर ‘हां’ कहा। क्या बात हुई? मेरे सवाल को उन्होंने अनसुना कर दिया। मैंने दुबारा पूछा अटल जी ने फिर अनसुना किया। दाहिने कान से उन्हें सुनने में कुछ परेशानी थी। वे ‘हियरिंग एड’ लगाते थे। मैंने दूसरी तरफ जाकर जोर देकर पूछा क्या बात हुई, कल्याण सिंह से? आपसे क्या शिकायत है उन्हें? अटल जी ने अपनी सदरी की जेब में हाथ डाला और ‘हियरिंग एड’ निकाल कर मुझे दिखाते हुए बोले- “मैंने तो कुछ सुना ही नहीं। मेरी मशीन जेब में थी।“ अप्रिय बात न सुनने की यह भी एक अटल शैली थी।
अटल जी कभी कभी ऐसी बातें कर जाते थे जो राजनेताओं के लिए हमेशा से अकल्पनीय रही हैं। ये उस वक्त की बात है जब लखनऊ से फिल्मकार मुजफ्फर अली, अटल जी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे। उनके लिए कई फिल्मी हस्तियां प्रचार कर रही थीं। खूब जनता जुटती थी। भीड़ को देखकर अटल जी के कैंप में चिंता की लकीरें उठने लगी थी। मैंने इस बीच एक रिपोर्ट लिखी। रिपोर्ट में साल 1950 में हुए लखनऊ के मेयर चुनाव का हवाला दिया गया था। उस वक्त लखनऊ के मशहूर हकीम शमशुद्दीन मेयर पद के प्रत्याशी थे। उनका बड़ा रसूख था। उनकी लोकप्रियता को देखते हुए कुछ मजा लेने वाले तत्वों ने जिनमें कुछ समाजवादी भी थे, उनके खिलाफ दिलरूबा नाम की एक तवायफ को खड़ा कर दिया। प्रचार में ठुमके लगने लगे। युवाओं की भीड़ उमड़ने लगी। लगा हकीम साहब चुनाव हार जाएंगे।
तभी लखनऊ के प्रमुख शहरियों ने अमृत लाल नागर के नेतृत्व में नारा दिया ‘दिल दीजिए दिलरूबा को वोट शमशुद्दीन को’। मामला पलटा, हकीम साहब चुनाव जीत गए। मेरे जमीनी सोर्स लगातार मुझे रिपोर्ट दे रहे थे कि कुछ ऐसी ही स्थितियां अटल जी के सामने भी थीं। खबर पढ़कर अटल जी ने मुझे फोन किया। कहने लगे- “गजब, आपने यह कहानी ढूंढकर हमारे कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा दिया है। जो भीड़ से परेशान हो रहे थे। बहुत धन्यवाद।“ मैंने कहा- अटल जी इसमें धन्यवाद कैसा? जो पाया, वही लिखा।
अटल जी के भीतर भवितव्यता का अनुमान कर लेने वाली सहज बुद्धि मौजूद थी। इसका भी मुझे परिचय मिला। यह बात जुलाई 1995 की है। भाजपा में इस बात को लेकर पशोपेश था कि अटल जी के नेतृत्व में चुनाव हो या आडवाणी को आगे कर। पुणे में हुई कार्यसमिति की बैठक में अटल जी पार्टी के अध्यक्ष तो चुने गए। पर पार्टी किसके चेहरे पर चुनाव लड़े इस बात पर भीतर भीतर बहस चल रही थी। अटल जी को इस बहस का अहसास था कि कुछ लोग आडवाणी को नेता बनाना चाहते हैं।
तब तक आडवाणी मंदिर आंदोलन के हीरो हो चुके थे। उसी दिन शाम की रेसकोर्स की सार्वजनिक सभा में वाजयेपी अपने चुंबकीय व्यक्तित्व के साथ मंच पर थे। उनकी आवाज का संगीत सभा पर छाया था। आरोह-अवरोह। दो शब्दों के बीचनाटकीय विराम के साथ आंख मूंदना और फिर चीरने वाली नजरों से देखना। शायद इन्हीं वजहों से वाजपेयी जी का भाषण सुना नहीं, देखा जाता था। एक झटके में वाजपेयी ने कहा “कुछ लोगों को लग रहा है मैं थक गया हूं। कुछ समझते हैं कि मैं रिटायर हूंगा। मैं ना ‘टायर्ड’ हूं ना ‘रिटायर’ होने जा रहा हूं। चलिए आडवाणी जी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा। हम आगे बढ़ेंगे”। यह अटल जी का अपनी बात कहने का अंदाज था। विवाद खत्म हो चुका था। मगर असर ये था कि शाम को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आडवाणी जी को कहना पड़ा कि चुनाव अटल जी के नेतृत्व में होगा। 1996 में चुनाव अटल जी के नेतृत्व में हुआ। अटल जी प्रधानमंत्री बने।
एक और किस्सा याद आ रहा है । बात 1993 की है। उस रोज़ लखनऊ से लेकर दिल्ली तक सनसनी फैल गई थी। लखनऊ से दिल्ली के लिए उड़ान भर रहे इंडियन एयरलाइन्स के प्लेन को हाईजैक कर लिया गया था। तारीख थी 22 जनवरी 1993 की। लखनऊ से हवाई जहाज अभी उड़ा ही था कि 15 मिनट के बाद ही अफरातफरी की स्थिति हो गई। एक आदमी हाथ में कपड़ा लपेटे हुए चेतावनी भरे लहजे में कह रहा था, 'मेरे हाथ में केमिकल बम है। इस प्लेन को फौरन लखनऊ वापस ले चलो, वरना अंजाम बेहद भयानक होगा।' यात्रियों की जान सूख चुकी थी। आनन-फानन में लखनऊ स्थित एयर ट्रैफिक कंट्रोल को प्लेन के हाइजैक होने की खबर दी गई। विमान में 48 यात्री थे। अब तक जहाज़ लखनऊ के हवाई अड्डे पर वापस लैंडिंग कर रहा था।
वह उन्हें बुलाने पर अड़ा हुआ था। अटल जी ने कहा मुझे जाने दो। अब डीएम, लालजी टंडन और अटल बिहारी वाजपेयी एक जीप में बैठकर प्लेन तक पहुंचे। हाइजैकर बाहर से बात करने पर नही माना, सो उन्हें भीतर जाना पडा। पहले डीएम अशोक प्रियदर्शी भीतर घुसे, फिर लालजी टंडन प्लेन में घुसे।तब तक वो समझ चुके थे कि अपहर्ता चाहता क्या है। टण्डन जी ने अटल जी को जहाज़ में बुलाया। अब अटल जी उसके सामने थे। उनके सिक्योरिटी गार्ड भी अंदर घुस चुके थे। लालजी टंडन ने हाइजैकर को समझाया कि अटल जी तुम्हारे सामने हैं। तुम पहले उनका पैर छुओ। फिर अपनी बात कहो। हाइजैकर मान गया।
वह जैसे ही झुका, गार्ड्स ने उसकी गर्दन दबोच ली। केमिकल बम की बात गलत निकली। पुलिस उसे पकड़कर ले गई। जनता अटल बिहारी की जय जय के नारे लगा रही थी। सारा हंगामा थम चुका था। अब लालजी टंडन ने प्लेन में नजर घुमाई। कांग्रेस के तब के कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी उसी प्लेन में चुपचाप कोने में दुबके पड़े थे। उस रात यात्रियों का लखनऊ में ही ठहरने का इंतजाम किया गया। अगले दिन उसी फ्लाइट से सारे यात्री दिल्ली गए। फ्लाइट में उनके साथ अटल बिहारी वाजपेयी और लालजी टंडन भी थे।
इसी साल की एक और कहानी सुना देता हूं । 1993 में हिमाचल प्रदेश में चुनाव थे। कानपुर के जेके सिंघानिया कंपनी के एक छोटे जहाज से वाजपेयी जी का दौरा था। साथ में बलबीर पुंज और एकाध लोग और थे। जहाज को धर्मशाला पहुंचना था। वाजपेयी जी जहाज में बैठते ही सो जाते थे। तभी विमान के को-पायलट कॉकपिट से बाहर निकले और पुंज जी से पूछा- “क्या आप पहले धर्मशाला आए हैं”। बलबीर पुंज ने पूछा लेकिन आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं। पायलट ने थोड़ी लाचारी बताते हुए कहाकि हमारे पास दूसरे विश्वयुद्ध का नक्शा है। ए.टी.सी से संपर्क नहीं हो पा रहा है और धर्मशाला ऊपर से दिख नहीं रहा है। पुंज जी घबरा गए, कहा- ध्यान रखिए कहीं गलती से हम चीन की सीमा में ना पहुंच जाएं। तभी वाजपेयी जी की नींद खुली, पूछा- “सभा का समय हो रहा है। हम कब उतरेंगे? सहयोगी ने तात्कालिक समस्या बताई। वाजपेयी जी ने चुटकी ली। यह तो बहुत बढ़िया रहेगा। खबर छपेगी। ‘वाजपेयी डेड’। गन कैरेज में जाएंगे। हालांकि उनकी इच्छा के अनुसार उनकी अंतिम यात्रा ‘गनकैरेज’ में ही हुई। घबराए पुंज जी बोले, “आपके लिए तो ठीक है मेरा क्या होगा”। वाजपेयी जी ने मजे लेते हुए कहा “यहां तक आए हैं तो वहां भी साथ चलेंगे”। माहौल को हल्का करने के लिए वे फिर बोले जागते हुए अगर ‘क्रैश’ हुआ तो बहुत तकलीफ होगी। इतना कह कर वे दुबारा सो गए। सभी साथी सदमे में थे। बाद में एक दूसरे जहाज से संपर्क हुआ। और अटल जी का जहाज सकुशल कुल्लू में उतरा।
हाजिरजवाबी में वाजपेयी जी का कोई सानी नहीं था। कई बार मुश्किल से मुश्किल सवाल को वे अपनी वाकपटुता से उड़ा देते थे। संसद के अंदर हो या बाहर उनकी वाकपटुता की रपटीली राह पर न जाने कितने फिसल कर गिरे। भारतीय जनता पार्टी में हमेशा वाजपेयी को उदार चेहरा माना जाता था। मंदिर आंदोलन को लेकर पार्टी में दो धड़े थे। मंदिर को लेकर तो सहमति थी पर आंदोलन के तरीके को लेकर दो राय थी। इसी मुद्दे पर वाजपेयी जी से एक बार यह सवाल पूछा गया कि भाजपा में एक नरम दल है और एक गरम दल। एक के नेता आप हैं दूसरे के आडवाणी जी। वाजपेयी जी ने फौरन जवाब दिया- मैं किसी दलदल में नहीं हूं। मैं तो औरों के दलदल में अपना कमल खिलाऊंगा। सवाल हवा में उड़ गया।
मुश्किल मुद्दों के ऐसे जाने कितने अवसर आए जब वाजपेयी जी अपनी हाजिरजवाबी से उससे निकल लिए। शादी न करने पर वाजपेयी जी का जवाब बड़ा चर्चित है। उन्होंने एक बार कहा मैं अविवाहित जरूर हूं पर (पॉज़ लेकर) कुवांरा नहीं हूं। एक महिला पत्रकार उनके कुंवारे रहने के रहस्य को लेकर बेहद उत्सुक थीं। कई बार के प्रयास के बाद उन्होंने अटल जी से सीधा सवाल पूछ ही लिया- “वाजपेयी जी, आप अब तक कुंवारे क्यों हैं”? वाजपेयी जी रूके, उन्हें घूरा। फिर बोले... “आदर्श पत्नी की खोज में।” महिला पत्रकार वहीं नहीं रूकीं। उन्होंने दुबारा सवाल किया, क्या वह मिलीं? वाजपेयी ने अपने अंदाज में फिर थोड़ा रूककर जवाब दिया- “मिली तो थीं पर उन्हें भी आदर्श पति की तलाश थी”। असहज करने वाला यह सवाल ठहाकों की बलि चढ़ गया।
अटल जी से जुड़ी यादें, किस्से सब जीवन दर्शन की तरह हैं। राजनीति में रहते हुए भी इतना सुलभ, सरल और सहज रह पाना उनके ही जीवन शिल्प का हिस्सा था। अपने सिद्धांतों पर अड़िग रहना और फिर भी कटु न होना, द्वेष न पालना, प्रतिद्वंदिता के युद्ध न करना, ये सब उनकी ही विरासत के अवशेष हैं जो उनके बाद अब दुर्लभ हो चले हैं। उनकी हाज़िर जवाबी गुदगुदाती थी। बांध लेती थी। जो एक बार उनसे मिलता था, उनका होकर रह जाता था। वे रिश्ते कमाते थे। मानवीय सम्बन्धों का अर्जन करते थे। इन नातों का कोई ओर छोर नही था। जितने अपनी विचारधारा के संगी साथ थे, उतने ही गैर सोच वाले भी हमराह थे।अटल जी अपने आप मे एक विलक्षण राजनीतिक संस्कृति थे। ऐसी संस्कृति समय के पटल पर हमेशा अविस्मरणीय रहेगी।
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