मणिपुर, कर्नाटक और अब मध्य प्रदेश में विधायकों के दल-बदल और इस्तीफ़े देने की घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि दल-बदल क़ानून अपना महत्व खोता जा रहा है। देश की राजनीति और लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता तथा नैतिकता बनाये रखने के लिये संविधान की दसवीं सूची में शामिल इस क़ानून में पहले से ज़्यादा कठोर प्रावधान करना ज़रूरी हो गया है।
बेहतर हो कि उच्चतम न्यायालय के सुझाव के अनुसार संसद दल-बदल करने वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों के सियासी भविष्य का निर्णय करने के लिये एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण जैसी व्यवस्था करने पर विचार करे जो दल-बदल क़ानून के तहत आने वाले मामलों का निपटारा करे।
राज्यों में सत्तारूढ़ दल के विधायकों द्वारा सदन की सदस्यता से इस्तीफ़ा देने या पार्टी के निर्देशों का पालन नहीं करने की स्थिति में उन्हें अयोग्य घोषित करने की सत्तारूढ़ दल की याचिकाओं पर संबंधित विधानसभाओं के अध्यक्ष की भूमिका पर उच्चतम न्यायालय अक्सर प्रतिकूल टिप्पणियां करता रहा है। मणिपुर विधानसभा में कांग्रेस विधायक के दल-बदल करके सत्तारूढ़ बीजेपी में शामिल होने के मामले में विधानसभा अध्यक्ष के रवैये को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने तो यहां तक सुझाव दे दिया कि संसद को दल-बदल क़ानून के मामले में सदस्यों को अयोग्य घोषित करने के अध्यक्ष के अधिकार पर फिर से विचार करना चाहिए।
न्यायमूर्ति आर. नरीमन, न्यायमूर्ति अनिरूद्ध बोस और न्यायमूर्ति वी. रामासुब्रमणियन की तीन सदस्यीय पीठ की यह टिप्पणी विधानसभा अध्यक्ष के दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है कि सदन में पीठासीन अधिकारी भी किसी न किसी राजनीतिक दल का सदस्य ही होता है।
मणिपुर प्रकरण में मई, 2017 में 60 सदस्यों वाली विधानसभा में चुनाव के बाद 28 सीटें जीत कर कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी जबकि बीजेपी को 21 सीटों पर जीत मिली थी। बीजेपी ने कुछ दलों के साथ गठबंधन करके सरकार बनाने का दावा किया था। इसी बीच, कांग्रेस के विधायक श्याम कुमार ने भी बीजेपी को अपना समर्थन दे दिया था और बाद में वह मंत्री बन गये थे।
इस घटना के बाद, कांग्रेस के विधायकों ने श्याम कुमार को दल-बदल क़ानून के तहत अयोग्य घोषित करने के लिये विधानसभा अध्यक्ष के पास कम से कम 13 याचिकायें दायर कीं लेकिन उन्होंने इन पर कोई कार्रवाई नहीं की। इसी वजह से सारा मामला उच्च न्यायालय से होता हुआ उच्चतम न्यायालय पहुंचा था।
मणिपुर प्रकरण में न्यायालय ने कहा कि यही समय है कि संसद इस पर फिर से विचार करे कि क्या अर्द्ध न्यायिक प्राधिकारी के रूप में अध्यक्ष को अयोग्यता संबंधी याचिकाओं पर निर्णय लेने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए जबकि वह स्वयं एक राजनीतिक दल विशेष के सदस्य होते हैं।
न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा था कि संसद को संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत सदस्यों की अयोग्यता से संबंधित विवादों का पूरी निष्पक्षता के साथ तेजी से निपटारा सुनिश्चित करने के लिये संविधान में संशोधन करके लोकसभा और राज्यों में विधानसभाओं के अध्यक्ष के स्थान पर एक स्थायी न्यायाधिकरण बनाने के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए।
शीर्ष अदालत ने कहा था कि इस स्थायी न्यायाधिकरण का अध्यक्ष उच्चतम न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के किसी पूर्व मुख्य न्यायाधीश को बनाया जा सकता है या फिर कोई अन्य बाहरी स्वतंत्र व्यवस्था की जा सकती है। ऐसा करके दसवीं अनूसूची का उद्देश्य प्रभावी तरीक़े से हासिल किया जा सकता है जो हमारे लोकतंत्र के सुचारू ढंग से काम करने के लिये महत्वपूर्ण है।
यही नहीं, इस फ़ैसले में न्यायालय ने ‘किहोतो होलोहान’ प्रकरण में फरवरी, 1992 में संविधान पीठ के अल्पमत वाले न्यायमूर्ति जगदीश शरण वर्मा के निर्णय के एक अंश को भी उद्धृत किया। न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा था कि दसवीं अनुसूची में अध्यक्ष को ऐसे विवाद का अंतिम निर्णायक बनाया गया है और इसमें अध्यक्ष के फ़ैसले के ख़िलाफ़ किसी स्वतंत्र प्राधिकरण के समक्ष अपील या पुनरीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है।
न्यायमूर्ति वर्मा ने इस तथ्य को इंगित किया था कि दसवीं अनुसूची में यह उलटा प्रवाह है और इससे संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन होता है क्योंकि अध्यक्ष को इस काम के लिये सक्षम प्राधिकारी नहीं माना जा सकता है।
कर्नाटक में एच.डी. कुमारस्वामी की गठबंधन सरकार से इस्तीफ़ा देने वाले विधायकों के मामले में भी शीर्ष अदालत ने अध्यक्ष की भूमिका पर प्रतिकूल टिप्पणी की थी।
न्यायमूर्ति एन.वी. रमण, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की तीन सदस्यीय पीठ ने 13 नवंबर, 2019 को अपने फ़ैसले में कहा था कि अध्यक्ष में तटस्थ रहने के अपने सांविधानिक कर्तव्य के ख़िलाफ़ काम करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। कर्नाटक में दल-बदल करने वाले विधायकों को अध्यक्ष ने विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने की अवधि तक के लिये अयोग्य घोषित कर दिया था।
इस संबंध में शीर्ष अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा कि संविधान के मौजूदा प्रावधानों के तहत अध्यक्ष को किसी भी सदस्य को कार्यकाल के अंत तक के लिये अयोग्य घोषित करने का अधिकार नहीं है। हालांकि, दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित सदस्य संविधान के अनुच्छेद 75:1बी, अनुच्छेद 164:1बी और अनुच्छेद 361बी में प्रदत्त प्रतिबंधों के दायरे में आयेगा।
ख़ामियों का फ़ायदा उठाया
इसमें कोई संदेह नहीं कि दल-बदल की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के इरादे से ही 1985 में संविधान संशोधन के माध्यम से दल-बदल क़ानून को संविधान की दसवीं अनुसूची में शामिल किया गया था। लेकिन इसके बावजूद दल-बदल का खेल बदस्तूर चला क्योंकि राजनीतिक दलों के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने इसके प्रावधानों की ख़ामियों का लाभ उठाया। इन ख़ामियों को दूर करने के लिये क़ानून में संशोधन करके दल-बदल के प्रावधानों को पहले से अधिक कठोर बनाया गया। लेकिन दल-बदल क़ानून में कठोर प्रावधानों के बावजूद यह प्रक्रिया थम नहीं रही है।
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