आंबेडकर ने धर्म क्यों बदला?
ये शब्द बाबा साहब डा. आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को महाराष्ट्र के नागपुर की दीक्षा भूमि में आयोजित धर्मांतरण कार्यक्रम में बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद कहे थे। यह दो दशक पुराना वादा था जिसे उन्होंने इस दिन पूरा किया था। अक्टूबर 1935 में येवला में डिप्रेस्ड क्लासेज के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए बाबा साहब ने कहा था-“
‘मेरा दुर्भाग्य है कि मैं एक हिन्दू अस्पृश्य के रूप में पैदा हुआ। मैं इस तथ्य को नहीं बदल सकता। मगर मैं ऐलान करता हूँ कि ऐसे हेय और अपमानजनक हालात में जीने से इनकार करना मेरी शक्ति के भीतर है। मैं दृढ़तापूर्वक आपको यह आश्वासन देता हूँ कि मैं एक हिन्दू के रूप में नहीं मरूँगा।’
डॉक्टर भीम राव आंबेडकर
हिन्दू धर्म को सीख
इस धर्मांतरण समारोह में बाबा साहब के 3,80,000 अनुयायियों ने भी हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया। इसलिए आज की तारीख बाबा साहब के अनुयायियों और बौद्धों के लिए जितनी ख़ास है, उतनी ही भारतीय सामाजिक व्यवस्था के लिए अर्थवान भी है।अलबत्ता हिन्दू धर्म के लिए यह तारीख एक सबक भी बन सकती थी। लेकिन आज भारतीय समाज और हिन्दू धर्म जिस राजनीतिक मंच पर सुशोभित हैं, उससे हम सब वाकिफ़ हैं।
विभिन्न धर्मों पर विचार
हिन्दू धर्म त्यागने के ऐलान के बाद डा. आंबेडकर ने विकल्प के तौर पर विभिन्न धर्मों पर विचार किया। एक अस्पृश्य हिन्दू के रूप में जन्मे बाबा साहब के लिए स्वतंत्रता और समानता जैसे मूल्यों के साथ दलित समाज के उत्थान का सवाल सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण था। इसलिए उन्होंने ईसाई और इसलाम धर्मों पर सबसे पहले विचार किया।ईसाईयत
ईसाई धर्म पर विचार करते हुए वह कहते हैं कि अस्पृश्यों के लिए स्वतंत्रता और समता जैसे मूल्य यहाँ निहित हैं। पश्चिमी दुनिया का धर्म होने के नाते अस्पृश्यों को आर्थिक सहयोग भी मिल सकता है।इसलाम
उनका कुछ यही खयाल इसलाम के बारे में भी है। इसलाम में निहित समता से प्रभावित बाबा साहब कहते हैं कि इसलामी दुनिया के मुसलमानों से अस्पृश्यों को बहुत सहयोग मिल सकता है। ईसाई और इसलाम धर्म के लोग भी बाबा साहब को अपना धर्म स्वीकारने के लिए प्रेरित करते हैं।आंबेडकर का कहना था कि ईसा मसीह खुद को ईश्वर की संतान कहते हैं। इसी तरह मुहम्मद साहब खुदा के पैगंबर यानी संदेश वाहक हैं। इसलिए इनकी कही गई बातों पर तर्क नहीं किया जा सकता। आंबेडकर के लिए तर्क और विवेक ज़रूरी मूल्य हैं।
सिख धर्म
इसके बाद वे सिख धर्म पर विचार करते हैं। हिन्दू धर्म के बरक्स इसमें न तो ईश्वर का पाखंड है और न ही असमानता। यह भारतीय भी है। लेकिन चालीस लाख की आबादी ( उस समय की सिख आबादी) अस्पृश्यों को ईसाई और इसलाम की तरह ताक़त नहीं दे सकती।ऐसा लगता है कि ईसाई और इसलाम धर्म को खारिज करने के पीछे अभारतीयता का सवाल नहीं, बल्कि पूना पैक्ट के तहत प्राप्त अधिकारों के खोने की चिंता ज्यादा थी।
महाड़ आन्दोलन
डा. आंबेडकर द्वारा हिन्दू धर्म छोड़ने का पहला जिक्र 1927 में महाड़ आंदोलन के समय मिलता है। 1935 तक आते-आते तमाम अस्पृश्यों के सामूहिक धर्मांतरण के लिए बाबा साहब संकल्पबद्ध हो जाते हैं। अपने साथियों को संबोधित करते हुए वे कहते हैं, ‘हमने जिस तरह के अभावों को झेला है और जिस तरह के अपमान का घूंट पिया है उसका मूल कारण यही था कि हम हिन्दू समुदाय के सदस्य हैं। क्या हमारे लिए यह बेहतर नहीं होगा कि हम इस धर्म को छोड़कर एक ऐसा नया धर्म अपनाएं जो हमें बराबरी की हैसियत व सुरक्षित स्थान दे और जहां हमारे साथ ऐसा बर्ताव किया जाए जिसके हम हकदार हैं?'“
'मैं आपको सलाह देता हूँ कि हिन्दू धर्म के साथ अपने सारे ताल्लुक तोड़ लें और कोई नया धर्म अपनाएँ। मगर, ऐसा करते हुए, नया धर्म अपनाते हुए एहतियात बरतें और यह देखें कि वहाँ आपको व्यवहार, हैसियत और अवसरों के मामले में पूरी बराबरी मिलेगी या नहीं।’
डॉक्टर भीम राव आंबेडकर
प्रतिक्रियाएं
सामूहिक धर्मांतरण की प्रतिबद्धता के बाद विभिन्न धर्मों की प्रतिक्रियाएं आने लगीं। भारतीय ईसाइयों ने आंबेडकर के संस्थागत धर्मांतरण को खारिज कर दिया।हिन्दू धर्मगुरुओं ने क्या कहा?
इस सबके बीच सबसे ज़रूरी सवाल यह है कि बाबा साहब के इस निर्णय पर हिन्दू धर्मगुरुओं और नेताओं की क्या प्रतिक्रिया थी? आमतौर पर हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर महात्मा गाँधी को डा. आंबेडकर के बरक्स खड़ा किया जाता है और सिद्ध किया जाता है कि सनातनी गाँधी अछूतों के उद्धार का आन्दोलन चलाकर आंबेडकर के मिशन को कमज़ोर कर रहे थे।डा. आंबेडकर द्वारा सामूहिक धर्मांतरण के ऐलान से हिन्दू महासभा को डर सताने लगा कि अगर अस्पृश्यों ने धर्मांतरण कर लिया तो राजनीतिक रूप से महासभा कमज़ोर हो जाएगी।
अस्पृश्यों को बाँटा
इससे भी बड़ा डर यह था कि आंबेडकर के नेतृत्व में मुसलिम, ईसाई, एंगलो इंडियन आदि अल्पसंख्यक समुदाय कहीं एकजुट न हो जाएं। इसलिए सबसे पहले हिन्दू महासभा ने अस्पृश्यों की ताक़त को विभाजित किया।आंबेडकर को अलग-थलग करने के लिए हिन्दू महासभा ने जगजीवन राम, जे. एन. मंडल, रसिक लाल बिस्वास, धर्म प्रकाश, पी. एन. राजभोज, पावलंकर बालू और एम. सी. राजा आदि अस्पृश्य नेताओं को अपने संगठन में शामिल किया।
हिन्दू महासभा
हिन्दू महासभा ने एक दूसरा रास्ता भी अपनाया। इसके नेता बी. एस. मुंजे ने नागपुर जाकर डा. आंबेडकर से गुप्त बैठक की। ये वार्ता तीन दिन तक चली। बाबा साहब के जीवनीकार क्रिस्टोफ जैफरलो लिखते हैं,“
'दिलचस्प बात यह है कि मुंजे ने भी आंबेडकर की इस राय से हमदर्दी और सहमति जताई कि रूढ़िवादी हिन्दू धर्म में सुधार की कोई ठोस अपेक्षा करना निरर्थक होगा।'
क्रिस्टोफ जैफरलो, डॉ आंबेडकर के जीवनीकार
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