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भूपिंदर सिंह नहीं रहे: 'आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं...'

एक आवाज़, जो माइक्रोफोन से निकलकर अपने भारी एहसास में खरज भरती सी लगती थी। कहीं पहुँचने की बेचैनी से अलग, बाकायदा अपनी अलग सी राह बनाती हुई, जिसे खला में गुम होते हुए भी ऑर्केस्ट्रेशन के ढेरों सुरों के बीच दरार छोड़ देनी थी। ये भूपी थे… सत्तर-अस्सी के दशक में ऐसे कई गीतों के सिरजनहार, जिन्होंने जब भी गाया, सुनने वाले को महसूस हुआ -जैसे कुछ गले में अटका रह गया है। एक कभी ना कही गई दुःख की इबारत, जिसके सहारे जज़्बात की शाख पर गीतकारों ने कुछ फूल खिला दिए थे।

याद कीजिए- 'आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं / जिंदगी इतनी मुख्तसर भी नहीं…' (थोड़ी सी बेवफाई), 'करोगे याद तो हर बात याद आएगी…' (बाज़ार), 'एक अकेला इस शहर में…’ (घरौंदा), 'फिर तेरी याद नए दीप जलाने आई…’ (आई तेरी याद), 'ज़िंदगी, जिंदगी मेरे घर आना…’ (दूरियां)।

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फिर उनकी गले की तैयारी, हर उस गाने में भी अलग से सुनी जा सकती है, जहां उनके करने के लिए बहुत ज़्यादा नहीं था, उनकी छोटी सी मौजूदगी भी कहीं दर्ज़ रह जाती है मन में… जैसे एस. डी. बर्मन के संगीत में लता मंगेशकर के शाहकार गीत 'होठों पे ऐसी बात मैं दबा के चली आई' ( ज्वेल थीफ) में उनका 'ओ! शालू…’ भर पुकारना, या मदन मोहन के लिए 'हकीकत'  में मो. रफ़ी, मन्ना डे और तलत महमूद जैसे दिग्गजों के संग 'होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा...'।

भूपेंद्र सिंह ऐसे बहुत थोड़े, मगर अमर गीतों में खुद की आवाज़ को हौले से दर्ज़ होने देते हैं। उनकी यही अप्रोच उनको बड़ा गायक बनाती है।

बाकी, उनके उन्मुक्त गानों पर झूमने के भी कई बहाने बनते हैं। मिताली के संग के कुछ गीतों में आप उन दोनों को सुनिए- 'राहों पे नज़र रखना/ होठों पे दुआ रखना/ आ जाए कोई शायद / दरवाज़ा खुला रखना…'
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वो दरवाज़ा खुला ही रहने वाला है। भूपी भला अब कहाँ लौटने वाले हैं? हम बस उनकी यादों में उन गानों की प्लेलिस्ट में डूबते-उतराते रहेंगे, जो उनकी सोज़ भरी गायकी पीछे छोड़ गई है।

ऐसे ही कुछ और भी गाने हैं, जिन्हें बरबस गुनगुनाने का मन करता है। उसमें मेरा सर्वप्रिय गीत 'सितारा' फ़िल्म का है...

थोड़ी सी ज़मी, थोड़ा आसमां, तिनकों का बस इक आशियां...।

(यतींद्र मिश्र की फ़ेसबुक वॉल से)

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यतींद्र मिश्र
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