पाकिस्तान के दसवें राष्ट्रपति बने और सर्वाधिक विवादास्पद जनरल परवेज मुशर्रफ जहां भारत में सबसे अधिक नफरत किये जाने वाले पाकिस्तानी नेता कहे जाएंगे, खुद पाकिस्तान में भी उन्हें चाहने वाले कम औऱ नफरत करने वाले अधिक ही माने जाएंगे। हालाँकि भारत के खिलाफ करगिल घुसपैठ करवाने के लिये पाकिस्तान का अतिवादी तबका उन्हें पाकिस्तान का हीरो मानता है लेकिन एक शिक्षित उदारवादी वर्ग उन्हें पाकिस्तान की मौजूदा दुर्दशा के लिये ज़िम्मेदार भी मानता है। 1999 में पाकिस्तान में जनतांत्रिक व्यवस्था को भंग कर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को देश से निकाल बाहर करने और देश की शासन-व्यवस्था चरमराने के लिये पाकिस्तान के लोग उन्हें ज़िम्मेदार मानते हैं।
करगिल घुसपैठ के बाद पाकिस्तान में जनरल मुशर्ऱफ को एक कुशल रणनीतिज्ञ तो कहा गया लेकिन करगिल पर हमला करने के बाद जिस तरह कश्मीर मसले ने अंतरराष्ट्रीय हलकों में शक्ल लिया उसके नतीजों के मद्देनजर उन्हें एक कमजोर सामरिक योजनाकार भी कहा गया। जनरल मुशर्ऱफ ने सोचा था कि करगिल घुसपैठ करवा कर भारत पाकिस्तान को परमाणु युद्ध के कगार पर खड़ा कर देंगे और जम्मू कश्मीर एक ज्वलंत अंतरराष्ट्रीय मसला बन जाएगा लेकिन हुआ इसका उलटा। करगिल घुसपैठ को भारत द्वारा सफलतापूर्वक समाप्त करने के बाद जम्मू कश्मीर की नियंत्रण रेखा को औपचारिक सीमा के तौर पर माना जाने लगा है।
यह विडम्बना ही कही जाएगी कि नई दिल्ली में जन्मे लेकिन पाकिस्तान में पले -बढ़े परवेज मुशर्रफ को पाकिस्तान की सरजमीं पर उनके शव को दफनाने के लिये एक गज जमीन भी मयस्सर करने को मौजूदा शरीफ सरकार तैयार नहीं दिखी। बेनजीर भुट्टो की हत्या के लिये दोषी ठहराए गए मुशर्रफ के दो प्रबल राजनीतिक विरोधी - नवाज शरीफ के भाई शाहबाज शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं तो बेनजीर भुट्टो का बेटा बिलावल भुट्टो देश के विदेश मंत्री हैं। इसलिये मुशर्ऱफ के निधन के कई घंटों बाद तक अंतिम संस्कार के लिये पार्थिव शव को पाकिस्तान लाने के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई।
मुशर्रफ के सैनिक और राजनीतिक जीवन में एक बड़ा विरोधाभास यह है कि जहाँ उन्हें 1999 के करगिल संघर्ष के लिये मुख्य साजिशकर्ता बताया गया लेकिन इससे सबक़ लेते हुए वह भारत के साथ जम्मू कश्मीर मसले के समाधान के लिये 2007 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ एक शांति समझोते को भी तैयार हो गए थे। इसके तहत दोनों नेताओं के बीच एक चार सूत्रों वाले रोडमैप पर कथित सहमति हो गई थी जिस पर यदि दोनों देशों के नेता अंतिम मुहर लगा देते तो सम्भवतः जम्मू कश्मीर का एक हल निकल आता। इस रोडमैप को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया और सत्ता से बेदखल होने के बाद मुशर्रफ ने ऐसी किसी सहमति से साफ इनकार भी कर दिया। हालाँकि दोनों देशों का अतिवादी राजनीतिक तबक़ा इस चार सूत्री रोडमैप को आज भी मानने को तैयार नहीं।
इस रोडमैप पर सहमति देने और इसका ऐलान करने के लिये 2007 के सितम्बर महीने में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पाकिस्तान दौरे की तैयारी भी की जा रही थी लेकिन इस दौरान मुशर्रफ ने पाकिस्तान के संविधान के साथ खिलवाड़ किया और पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के साथ सीधा टकराव तब मोल लिया जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार अली चौधरी को कॉलर पकड़ कर बाहर कर दिया था। इसके बाद उन्होंने देश पर आपात काल लगाने का ऐलान किया और सुप्रीम कोर्ट के 60 जजों को भी नज़रबंद करवा दिया।
आपातकाल के इस घटनाक्रम के बाद पाकिस्तान में घोर राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई थी। इसी राजनीतिक कोहराम के बाद 2008 में मुशर्ऱफ को इस्तीफा देना पड़ा और जम्मू कश्मीर मसले का हल ठंढे बस्ते में पड़ गया।
तब इस चार सूत्री रोडमैप में इस आशय के प्रस्ताव पर सहमति हुई थी कि जम्मू कश्मीर की 740 किलोमीटर लम्बी नियंत्रण रेखा (एलओसी) को अप्रासंगिक बना दिया जाए और इसे अनौपचारिक बना कर जम्मू कश्मीर के दोनों इलाक़ों के लोगों की खुली आवाजाही के लिये खोल दिया जाए। जम्मू कश्मीर के दोनों हिस्सों पर दोनों देशों की सम्प्रभुता बनी रहे लेकिन वहाँ से दोनों देशों को अपनी सेनाएँ पूरी तरह हटानी होंगी। दोनों इलाक़ों पर स्वशासी प्रशासन होगा। इसके अलावा यह भी सहमति हुई थी कि दोनों इलाकों के शासन को देखने के लिये एक संयुक्त व्यवस्था होगी। लेकिन राज्य के दोनों हिस्सों को आजादी नहीं मिलेगी। तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह प्रसिद्ध बयान दिया था कि यह सीमाएँ बदलने का युग नहीं है बल्कि सीमाओं को अप्रासंगिक बनाने का युग है।
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जनरल मुशर्रफ का मानना था कि भारत और पाकिस्तान को 1948 की स्थिति पर अनंत काल तक टिकाए नहीं रखा जा सकता है। दोनों देशों को जम्मू कश्मीर की अपनी घोषित स्थिति से पीछे हटना होगा।
करगिल की चोटियों पर 1999 के मई में जेहादियों के भेष में पाक सेना के जवानों से घुसपैठ करवाने की साजिश रच कर इसे जमीन पर उतारने वाले परवेज मुशर्रफ के नजरिये में इतना क्रांतिकारी बदलाव कैसे आया, यह काफी रोचक है।
1999 में करगिल संघर्ष समाप्त होने के बाद प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उन्हें पद से हटाने का फ़ैसला कर लिया था। अक्टूबर, 1999 में जब जनरल मुशर्रफ कोलम्बो से लौट रहे थे तब उनके विमान को कराची हवाई अड्डे पर उतरने से रोकने का आदेश नवाज शरीफ ने दिया था लेकिन परवेज मुशर्रफ के जूनियर जनरलों ने इस आदेश को नहीं माना। इसी के बाद उन्होंने नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री पद से हटाकर खुद को पाकिस्तान का सीईओ घोषित किया और 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी के साथ शिखर बैठक के लिये जुलाई में आगरा पहुँचने के पहले अपने को राष्ट्रपति घोषित करवाया ताकि इस पद के अनुरुप उनके साथ पूर्ण प्रोटोकॉल बरता जाए।
आगरा में उन्होंने प्रधानमंत्री वाजपेयी के साथ कड़े तेवर बनाए रखे और आगरा शिखर बैठक विफल रही। लेकिन इसके कुछ महीनों बाद ही 11 सितम्बर को अमेरिकी शहरों न्यूयॉर्क और वाशिंगटन पर इतिहास का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला हुआ जिससे अमेरिका सहित पूरी दुनिया सहम गई। इस हमले की साजिश पाकिस्तान की जमीन पर ही रची गई थी जिसमें अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन की प्रमुख भूमिका बताई गई। इस घटना के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान के प्रति नजरिया बदला और परवेज मुशर्रफ को साफ संदेश दिया कि यदि वह आतंकवादी तत्वों को पनाह और प्रशिक्षण देना बंद नहीं करवाते तो पाकिस्तान को आखेट युग में भेज दिया जाएगा। सम्भवतः अमेरिकी दबाव में ही उन्होंने 2003 में जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर स्थाई सीजफायर करने का ऐलान किया और भारत से यह वादा भी किया कि पाकिस्तान की धरती से भारत विरोधी आतंकवादी हरकतों के संचालन की अनुमति व सुविधा नहीं दी जाएगी।
लेकिन मुशर्रफ के इस वादे को पाकिस्तान के भविष्य के जनरलों ने नहीं माना। जनरल मुशर्रफ के खिलाफ पाकिस्तान के राजनीतिक हलकों में माहौल उग्र होता गया और उनके खिलाफ राजद्रोह और संविधान के साथ तोड़ मरोड़ करने, बेनजीर भुट्टो की हत्या आदि कई आरोप लगाए गए। इन आपराधिक आरोपों पर पाकिस्तान की अदालतों में मुक़दमा चलने लगा तो परवेज मुशर्रफ ने 2016 में खुद को पाकिस्तान से निर्वासित कर लिया। कुछ वक्त तक लंदन में रहने के बाद वह दुबई चले गए जहाँ उनका निधन हुआ।
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