साप्ताहिक टैबलॉयड 'ब्लिट्ज' को बंद हुए बरसों हो गए हैं और इसके संस्थापक-संपादक हरफनमौला पत्रकार रूसी करंजिया (रुस्तम खुर्शीदजी करंजिया) उर्फ आर.के. करंजिया भी 1 फरवरी, 2008 को इस दुनिया को अलविदा कह गए थे। दोनों की याद लाखों लोगों के जेहन में अभी भी ताजा है। 'ब्लिट्ज' और करंजिया एक-दूसरे के पूरक थे और दोनों के पाठक-प्रशंसक लाखों की तादाद में थे। भारत में तथ्यात्मक खोजी पत्रकारिता की बुनियाद रखने और उसे मान्यता दिलाने का श्रेय इन दोनों को जाता है। आर.के. करंजिया अपने आप में भारतीय पत्रकारिता का एक स्कूल थे और उनके जिक्र के बग़ैर पत्रकारिता का इतिहास सदा अधूरा रहेगा।
ताउम्र 'नेहरूवादी पत्रकारिता' की
'कांग्रेसी वामपंथी' रहे इस दिग्गज पत्रकार ने ताउम्र 'नेहरूवादी पत्रकारिता' की और एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए, जिनकी दूसरी कोई मिसाल नहीं है। बेशक ढलती उम्र में, जब देह और दिलो-दिमाग लगभग शिथिल हो गया था तब उन्होंने दक्षिणपंथी ख़ेमे में लड़खड़ाते हुए पांव रखे लेकिन वहां ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। जो शख्स नेहरू का शाश्वत मुरीद रहा हो और जिसकी कलम फासीवाद पर तीखे प्रहार करती हो वह ज्यादा दिन बाहोश, विपरीत रास्तों पर चल भी कैसे सकता था? जवाहरलाल नेहरू की छाप उनकी आख़िरी सांस तक पर थी!
विभाजन से पहले आरके करंजिया ने ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ से अखबारनवीसी शुरू की और दूसरे विश्व युद्ध की रिपोर्टिंग की थी। 3000 रुपये की पूंजी के साथ उन्होंने 1 फरवरी, 1941 में साप्ताहिक टैबलॉयड 'ब्लिट्ज' की शुरुआत की थी।
नेहरू की रिहाई की मुहिम चलाई
वाम क्रांतिकारी रुझान वाले बीवी नादकर्णी और बेंजामिन होमीनाम सरीखे दोस्तों ने उन्हें 'ब्लिट्ज' शुरू करने में सहयोग दिया था। करंजिया आज़ादी के संघर्ष के प्रबल समर्थक थे और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी थे। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान 'ब्लिट्ज' का दफ्तर भूमिगत हो गए कांग्रेसी वामपंथियों की पनाहगाह बन गया था। नेहरू जेल में बंद थे और 'ब्लिट्ज' ने उनकी रिहाई की मुहिम चलाई थी। जेल में नेहरू को अपना यह प्रिय बन चुका साप्ताहिक पढ़ने नहीं दिया जाता था तो करंजिया ने यह मामला लॉर्ड सोरेंसन के जरिए हाउस ऑफ़ कॉमर्स में उठवाया।
जवाहरलाल नेहरू और करंजिया की पहली मुलाक़ात में करंजिया को नेहरू से जबरदस्त लताड़ पड़ी थी। इसलिए कि उन्होंने गांधी जी पर निहायत आलोचनात्मक रिपोर्ट लिखी थी। नेहरू की लताड़ का असर यह हुआ कि अगले ही दिन करंजिया ने महात्मा गांधी को चिट्ठी लिखकर माफी मांगी और रिपोर्ट के एवज में पारिश्रमिक के तौर पर मिले 250 रुपये गांधी जी के हरिजन फंड में दान दे दिए। उस प्रकरण ने करंजिया को नेहरू का ऐसा मुरीद बनाया कि पूरी उम्र वह नेहरू के सुरूर में रहे।
'ब्लिट्ज' के लिए करंजिया हर महीने नेहरू का विशेष साक्षात्कार लिया करते थे और यह सिलसिला कभी नहीं टूटा। नेहरू का आख़िरी इंटरव्यू भी करंजिया ने लिया था। देश के प्रथम प्रधानमंत्री के सबसे ज्यादा साक्षात्कार लेने का रिकॉर्ड भी उनके नाम दर्ज है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के इंटरव्यू लेने का भी।
जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी से गहरी निकटता के बावजूद 'ब्लिट्ज' में केंद्र और राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार अथवा घोटालों की रिपोर्ट्स बगैर लाग-लपेट के प्रकाशित होती थीं।
कृपलानी, देसाई रहे निशाने पर
नेहरू और इंदिरा काल के पुराने सिंडिकेट यानी वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के ख़िलाफ़ भी इस साप्ताहिक में जिस तरह, जो छपता था, वह कहीं और देखने को नहीं मिलता था। आचार्य कृपलानी और मोरारजी देसाई सदा उनकी तीख़ी कलम के निशाने पर रहे। करंजिया को संसद में प्रताड़ित भी किया गया लेकिन उनके तीख़े तेवर बरकरार रहे। कृपलानी को करंजिया ‘कृपुलानी’ या ‘किपुलानी’ और मोरारजी देसाई को ‘मोरारजीना’ या ‘मोरारजूस’ लिखा करते थे। विरोध की भाषा की यह उनकी अपनी मौलिक संज्ञा थी। नेहरू इस पर उनसे अपनी नाराजगी जताते थे तो आर.के. करंजिया 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का तर्क देते थे।
आज कोई सोच भी नहीं सकता कि कोई प्रधानमंत्री किसी पत्रकार-संपादक की लिखी एक-एक पंक्ति पर गौर करके उसे फोन करे। लेकिन राजनीति में नेहरू युग और पत्रकारिता में करंजिया युग में यह संभव था।
इन दिनों जवाहरलाल नेहरू दक्षिणपंथी ताक़तों के सीधे निशाने पर हैं। आर.के. करंजिया और उनका 'ब्लिट्ज' होता तो यकीनन नेहरू विरोधी अभियान की जबरदस्त धज्जियां उड़ाता। आजीवन नेहरू के मुरीद रहे करंजिया ने 1988 में वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी को दिए एक साक्षात्कार में नेहरू पर कहा था, "नेहरू एक महान क्रांतिकारी थे। एक महान जनरल थे। एक महान राजनीतिक प्रशासक थे। गांधी और नेहरू, निश्चित ही विश्व के महानतम व्यक्तियों में से थे। मूलतः नेहरू एक स्वप्नदर्शी, युगदृष्टा, समन्वयवादी थे; सबको साथ लेकर चलना चाहते थे। वह निश्चित तौर पर फासीवाद, सामंतवाद, सांप्रदायिकता और जातिवाद के सख़्त ख़िलाफ़ थे। विचारधारा के आधार पर वह देश को विभाजित नहीं करना चाहते थे। वह भारत में एक समाजवादी समाज चाहते थे। तानाशाही के भी सख़्त ख़िलाफ़ थे।"
बेहद सरल थे करंजिया
आर.के. करंजिया ने विश्व के कई तत्कालीन चर्चित राष्ट्राध्यक्षों के इंटरव्यू लिए। फिदेल कास्त्रो का लिया उनका इंटरव्यू दुनिया भर में चर्चा का विषय बना था। एक साप्ताहिक अखबार का संपादक दुनियाभर के तमाम राजनेताओं से सहजता के साथ लंबे तथा सारगर्भित साक्षात्कार कर सकता है, आज यह सोचा भी नहीं जा सकता। इतनी आला पहुंच वाले करंजिया से मुंबई स्थित उनके केबिन में जाकर कोई अदने से अदना व्यक्ति भी सहजता के साथ मिल सकता था।
मानहानि का नोटिस या समन लेकर आए सिपाही को भी करंजिया चाय पिलाकर विदा करते थे। अपने स्ट्रिंगरों और साप्ताहिक के लिए लिखने वाले फ्रीलांस पत्रकारों को भी वह बराबर का दर्जा देते थे। इसकी पुष्टि उनके साथ लंबे वक्त तक काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार आनंद सहाय करते हैं।
मरहूम पत्रकार विनोद मेहता ने आर.के. करंजिया पर अपने एक संस्मरण में लिखा है, "करंजिया अपने फ्रीलांसरों को प्रति कॉलम पैसे नहीं देते थे बल्कि हर महीने के अंत में तनख्वाह की तरह उनका भुगतान करते थे। ख्वाजा अहमद अब्बास को वह हर महीने 5 रुपये के करारे नोटों की 500 रुपयों की गड्डी देते थे।"
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सत्तर के दशक में तीन लाख प्रतियां छापने और 10 लाख पाठक रखने वाला यह इकलौता साप्ताहिक अखबार था। 'ब्लिट्ज' के हिंदी, उर्दू और मराठी संस्करण भी खूब बिकते थे। विज्ञापनदाताओं से ज्यादा पैसा अखबार की बिक्री के जरिए मिलता था। विज्ञापनों के लिए आर.के. करंजिया न कभी झुके, न दबाव में आए और ना ही कभी अपने व्यापक असर-रसूख का इस्तेमाल किया।
करंजिया की उम्र के आख़िरी पड़ाव में पत्रकारिता 'मीडिया' में तब्दील होनी शुरू हो गई थी। 'ब्लिट्ज' को कायम रखते हुए उन्होंने मुंबई से 'डेली' दैनिक आरंभ किया। हालांकि तब तक सेहत साथ छोड़ने लगी थी और उनका झुकाव आश्चर्यजनक रूप से दक्षिणपंथ की ओर हो गया था।
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