अभय चंद छजलानी का आज़ प्रातः निधन हो गया। लम्बी अस्वस्थता के बाद। 4 अगस्त, 1934 में जन्मे अभय जी अगले वर्ष शतक से एक दशक कम 90 वर्ष के होते। लेकिन रुग्ण देह ने उन्हें इसकी इज़ाज़त नहीं दी और अतंतः भूलोक से उठ जाना पड़ा। निश्चित ही इस अंतिम विदाई के साथ स्वस्थ व उजली पत्रकारिता का पटाक्षेप हो गया।
मेरा अभय जी से संपर्क 1978-79 के बीच हुआ और जनवरी, 1980 में नई दुनिया, इंदौर, के पत्रकारिता परिवार का विधिवत सदस्य भी बन गया। दैनिक के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख के पद पर नियुक्ति मिली। तब से लेकर दो वर्ष पहले तक उनके साथ फोन से सम्पर्क बना रहा। मैंने क़रीब दो दशक तक अभय जी के सम्पादकीय नेतृत्व में ब्यूरो चीफ़ की हस्तक्षेपमुक्त भूमिका को सफलतापूर्वक निभाया। निजी व व्यावसायिक या पत्रकारीय रिश्तों के आधार पर उन्हें मैंने जैसा देखा -पाया था, उसी काल के अनुभव आपके साथ शेयर कर रहा हूँ।
अभय जी मेरे लिए सदैव ‘अब्बूजी’ बने रहे। सम्पादक मालिक कम, वरिष्ठ आदरणीय मित्र अधिक थे। दोनों के बीच क्रिटिकल संवाद हुआ करता था। नई दुनिया ज्वाइन करने से पहले मेरी राजनीतिक पृष्ठभूमि चरम वामपंथ की थी। आपातकाल में मीसा वारण्ट भी रहा। कतिपय कारणों से गिरफ्तार नहीं हुआ। बावज़दू इसके अब्बूजी और अन्य दो मालिकों ने मुझे नई दुनिया में स्वीकार किया। हालाँकि प्रमुख
भूमिका तत्कालीन राजेंद्र माथुर और प्रबंध सम्पादक नरेंद्र तिवारी ने निभाई थी। लेकिन दैनिक के प्रमुख पार्टनर अभय परिवार था। अंतिम मोहर अब्बूजी ही की थी। नई दुनिया के तीनों पार्टनर (लाभ चंद छजलानी, बसंती लाल सेठिया और नरेंद्र तिवारी) कांग्रेस समर्थक थे।
सिक्योरिटी क्लीयरेंस के सवाल पर वे बोले कि हम सुप्रीम कोर्ट तक लड़ेंगे। आप क्रांति के लिए भटके थे, न कि दाऊद इब्राहिम बनने के लिए। नई दुनिया लड़ेगी। मेरे विरोधी कांग्रेसी सांसदों से भी उन्होंने एक ही बात कही कि यदि जोशी जी तथ्यों को ख़बरों में तोड़-मरोड़ कर रखे हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी, लेकिन सम्पादकीय आलेखों में विचार अभिव्यक्ति के लिए वे स्वतंत्र हैं।
1947 से प्रकाशित होने वाले इंदौर के इस दैनिक का शानदार पत्रकारिता स्कूल रहा है। राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर जैसे लोक प्रतिबद्ध सम्पादकों का इसे नेतृत्व मिला था। अभय जी ने इस विरासत को संभाले रखा। मेरे दो दशक के कार्यकाल में बमुश्किल दो-तीन ख़बरों के साथ उनकी असहमति रही होगी! मेरे किसी सम्पादकीय या आलेख को नहीं रोका। नवें दशक में राव -सरकार की कार्यशैली पर प्रथम पृष्ठ पर सात दिन तक समालोचनात्मक सम्पादकीय लिखे। चर्चित रहे।
ऐसा नहीं है कि अब्बूजी बिलकुल ही निरापद रहे हैं। विवादस्पद भी रहे। मानवगत कमज़ोरियाँ थीं। लेकिन थे साहसी और दबंग। दृष्टि सपंन्न। अब वैसे मालिक-सम्पादक कहाँ? प्रोफेशनल सम्पादकों की प्रजाति तो फ़ना हो चुकी है। अब दौर है गोदी प्रजाति की पत्रकारिता का। निश्चित अब्बूजी के जाने से जहां भावनात्मक दुख हुआ है वहीं स्वतंत्र व निर्भय प्रोफेशनल पत्रकारिता को आघात भी पहुँचा है। अभयजी की स्मृति को नमन।
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