शेषन होने का मतलब!
शेषन के महत्व को समझने के लिए देश के तत्कालीन चुनावी तंत्र और प्रक्रियाओं को समझना बहुत प्रासंगिक होगा, ख़ास कर उत्तरी भारत के राज्यों में मौजूद चुनावी प्रक्रियाओं में व्याप्त खामियाँ। उन दिनों के अख़बार आम चुनावों के समय बूथ लूट, व्यापक हिंसा, बूथों पर बमबारी आदि ख़बरों से भरे होते थे। ये आम बात थीं। सरकारी संरक्षण में सरकारी गुंडे, प्रशासनिक अधिकारी मिलकर इन कुकृत्यों को अंजाम दिया करते थे।कैसे बदला समीकरण?
मास वोटों का कांग्रेस से विलगाव, मुसलिमों का कांग्रेस से मोहभंग होना और मंझोली जातियाँ आनी अन्य पिछड़ी जातियाँ जो कभी कांग्रेस के लिया लठैती करती रही रही थी, जातीय खेमों में बँटकर क्षेत्रीय दलों की तरह मुड़ चुकी थीं।जो कल तक कांग्रेस के लिए बूथ लूटते थे , वे अब राजद, सपा, बसपा में जाति के नाम पर टिकट पाकर चुनाव लड़ने लगे और कभी विधायक प्रतिनिधि बनकर संतोष कर लेने की जगह अब खुद विधायक बनने लगे। ऐसे एकाध लोग नहीं थे बल्कि सैकड़ों की संख्या में थे।
बूथ-लूट जारी रहा?
लेकिन इस सबके बीच उस बूथ लूट की संस्कृति का क्या हुआ ? इसका उत्तर यह है कि यह अनवरत जारी रहा। लेकिन इसके स्वरूप और दिशा में तबदीली आयी। अब यह एकतरफा नहीं रहा। पिछड़े वर्ग के लोग, खासकर यादव, कुर्मी और दबदबा रखने वाली अन्य जातियाँ जो कांग्रेस, कम्युनिस्ट और अन्य दलों में विभाजित रहती थीं, जाति के नाम पर गोलबंद होती गयी और अपने - अपने दबदबे वाले क्षेत्रों में अपनी जाति के उम्मीदवारों के लिए पोलिंग बूथ पर आक्रामक रूप से वोट कराने लगी। जहाँ मौका मिला, वहाँ वोटिंग में ज़बरदस्ती भी की और अपने दलों ( राजद , तत्कालीन जनता दल ) के लिए बूथ भी छापती थीं।क्या हुआ बिहार में?
आरोपों - प्रत्यारोपों के बीच बिहार विधानसभा का चुनाव होना था और टी. एन. शेषन के सामने निष्पक्ष चुनाव कराने की चुनौती थी। उधर पदभार ग्रहण करने के साथ ही शेषन ने अपने इरादे स्पष्ट कर दिए थे कि वह सरकारी रबड़ स्टाम्प बनकर रहने वालों में से नहीं है।
शेषन के बारे में कई लोकोक्तियाँ आज भी प्रचलित हैं। उन्होंने एक बार प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि वह नाश्ता में पॉलिटिशियन खाते हैं। यानि जब भी कोई नेता चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन करता पाया जाता था, उनको एक्शन लेने में सेकंड भी नहीं लगते थे। चुनावी हिंसा और बूथ लूट के लिए कुख्यात बिहार विधानसभा चुनाव भी उनके लिए पहाड़ को लांघने जैसी चुनौती से कम नहीं थीं।
कई चरणों में चुनाव
पहली बार बिहार विधानसभा एक से अधिक चरणों में कराने का निर्णय लिया गया। लोगों ने पहली बार विधानसभा चुनाव में आरएएफ़, बीएसएसफ़, सीआरपीएफ़, सीआईएसएफ की बटालियन को गाँव - गाँव, चप्पे -चप्पे पर तैनात देखा। हर आदमी की जुबान पर टी. एन. शेषन का नाम चढ़ चुका था। ऐसा लग रहा था कि शेषन बनाम लालू यादव हो रहा है। लालू यादव अक्सर अपनी सभाओं में शेषन पर आलोचनात्मक अंदाज में बोलते थे कि शेषन कुछ भी कर ले, मतपेटियों से जिन्न निकलेगा और हम भरी बहुमत से सरकार बनाएंगे।निष्पक्ष चुनाव, कम हिंसा!
शेषन ने अपना काम बखूबी कर लिया था। बिहार में पहली बार निष्पक्ष चुनाव करवाया जा सका था वह भी बिना अधिक हिंसा के। कहीं -कहीं थोड़ी गड़बड़ी ज़रूर हुई थी लेकिन वह इतनी कम थी कि इतने बड़े राज्य में इसे नगण्य ही कहा जा सकेगा।जब चुनाव संपन्न हुए और मतगणना की बारी आयी तो इस निष्पक्ष चुनाव के नतीजे आशा के अनुरूप ही आये। लालू यादव ने अपने राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी जीत हासिल की थीं और उनकी बात सच निकली कि मतपेटियों से जिन्नात निकलेंगे।
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