'पहला गिरमिटिया'
गिरिराज किशोर के फिलहाल तक 15 उपन्यास प्रकाशित हैं। सब अपनी अपनी खस़ूसियतों के चलते चर्चा में रहे। सबको मिली कम-ज़्यादा मान्यता के आधार पर उनका विशिष्ट पाठक वर्ग बना। लेकिन उन्हें सर्वाधिक मक़बूलियत हासिल हुई गाँधी जी के दक्षिण अफ्रीकी जीवन पर केंद्रित उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' से।मोहनदास से महात्मा
गिरिराज किशोर के निर्मम आलोचकों ने भी बाकायदा स्वीकार किया है कि 'पहला गिरमिटिया' मोहनदास करमचंद गाँधी की महात्मा गाँधी बनने की प्रक्रिया को समझने के लिए एक अपरिहार्य कृति है। गांधी पर लिखे रचनात्मक लेखन में सर्वश्रेष्ठ। इसे लिखने के लिए गिरिराज जी ने आठ-नौ वर्ष अथक परिश्रम किया।अपने कथा-कौशल की नई गहराई और ऊँचाई को विलक्षणता के साथ सिद्ध किया। इतनी विस्तृत रचना को बगैर ऊब के पढ़वा ले जाना और शुरू से अंत तक पठनीयता को बरकरार रखना बेहद मुश्किल है।
आलोचक भी हो गए क़ायल
लेकिन 'पहला गिरमिटिया' के हाथों-हाथ लिए जाने तथा एक के बाद एक उसके कई संस्करण आना इसकी पुख़्ता मिसाल है कि उनमें निरंतर विकसित होती अद्भुत प्रतिभा थी। जिन्होंने घोर निंदकों/आलोचकों को भी उनका क़ायल बनाया। 'बा' के संबंध में भी यही हुआ। इस उपन्यास को उनकी क्षमता और प्रतिभा के विकास के तौर पर भी लिया गया।“
'मोहनदास करमचंद गाँधी के कुली बैरिस्टर से महात्मा गाँधी बनने की प्रक्रिया और विलक्षण कहानी जैसी 'पहला गिरमिटिया' में से बनकर निकली है वैसी मैंने पहले कहीं और नहीं पढ़ी।'
प्रभाष जोशी, संस्थापक संपादक, जनसत्ता
गिरिराज किशोर के समकालीन श्रीलाल शुक्ल ने 'पहला गिरमिटिया' पर पहले-पहल प्रतिक्रिया दी थी कि यह उपन्यास अंग्रेजी में लिखा जाता तो गिरिराज को अकूत रॉयल्टी मिलती। तब इसे श्रीलालजी का कटाक्ष कहा गया था। लेकिन बाद में स्पष्ट हुआ कि इसके मायने नकारात्मक नहीं, सकारात्मक थे।
गाँधी के जटिल जीवन की समझ
कटाक्ष था भी तो ईर्ष्याजनित और रचना को रद्द करने वाला कतई नहीं था। बाद में श्रीलाल शुक्ल ने कहा : 'मेरी दृष्टि में, यह उपन्यास समकालीन हिंदी साहित्य की एक असाधारण घटना है। यही नहीं, यह गिरिराज किशोर के दीर्घकालीन लेखन की चरम सार्थकता भी है। ... यह कृति निश्चय ही हमारे--विशेषत: नई पीढ़ी के लिए आश्चर्यपुरुष (महात्मा गाँधी) के जटिल जीवन और दर्शन को संवेदना और समझ के साथ पहचानने में मदद करेगी।'अफ्रीका, मॉरीशस, लंदन की यात्रा
'पहला गिरमिटिया' लिखने के लिए गिरिराज किशोर ने दक्षिण-अफ्रीका, लंदन और मॉरीशस की कई यात्राएं कीं। इन महंगी यात्राओं के लिए आर्थिक संसाधनों का कतिपय राजनेताओं से सहयोग लेने के चलते उन्हें आरोपों के कटघरे में भी खड़ा किया गया लेकिन इतनी बड़ी रचना के आगे वे तमाम आरोप गौण हो गए। हालांकि तब 'जनसत्ता' में उन्होंने इस बाबत अपना तार्किक पक्ष भी मजबूती से रखा। आखिर में अहम रह गया 'पहला गिरमिटिया' का कालजयी प्रभाव और उसके दीर्घकालीन सरोकार।विस्तृत शोध, लंबी यात्राओं और निरंतर कलमघिसाई के बाद इसकी पांडुलिपि को अंतिम रूप गिरिराज किशोर ने 30 मई, 1998 में कानपुर में दिया। पांडुलिपि में आवश्यक संशोधन-सुधार के लिए उन्होंने इतिहास की गहरी समझ रखने वाले प्रख्यात लेखक प्रियंवद, राजेंद्र यादव, नरेश सक्सेना और शैलेश मटियानी की सहायता ली।
गिरमिटिया मतलब?
उपन्यास की रचना प्रक्रिया के दौरान अप्रीतम कथाकार-उपन्यासकार शैलेश मटियानी ने उनसे कहा था, 'गिरिराज जी, गाँधीजी की लाठी लगने की बात है, अगर छू गई तो उपन्यास पूरा हो जाएगा...!'क्या किया गाँधी ने?
तभी इंग्लैंड से वकालत की पढ़ाई पूरी कर 1893 में मोहनदास करमचंद गाँधी दक्षिण अफ्रीका पहुंचते हैं। रेलगाड़ी का टिकट होने के बावजूद उन्हें रेल के डिब्बे से सामान समेत बाहर निकाल फेंका जाता है। इस रंगभेद नीति के पहले अनुभव ने युवा गांधी पर गहरी छाप छोड़ी। रंगभेद नीति की आड़ में दक्षिण अफ्रीका में काम कर रहे भारतीय मजदूरों पर हो रहे अन्याय गाँधी को बर्दाश्त नहीं होते और वे उन्हें उनके अधिकार दिलाने के संघर्ष में पूरी तरह जुट जाते हैं।भारतीय ज्ञानपीठ से वापस ली किताब
'शतदल सम्मान' और 'गांधी सम्मान' से सुसज्जित 'पहला गिरमिटिया' गाँधीजी को समझने का एक सफल प्रयास है।' 'पहला गिरमिटिया' का प्रथम संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। बाद में लेखकों और भारतीय ज्ञानपीठ के बीच हुए वैचारिक मतभेद के चलते गिरिराज किशोर ने यह उपन्यास अपने सर्वाधिकार का इस्तेमाल करते हुए वहां से वापस ले लिया। इसमें उन्हें काफी मुश्किलें आई।गिरिराज किशोर के अनुसार महात्मा गाँधी के जीवन के तीन पक्ष हैं--एक मोहनिया पक्ष, दूसरा मोहनदास पक्ष और तीसरा महात्मा गाँधी पक्ष। उन्होंने 'मोहनदास पक्ष' चुना। जिसके बाद मोहनदास करमचंद गांधी भारत आकर महात्मा गाँधी बने।
गहन शोध
'पहला गिरमिटिया' के बाद गिरिराज किशोर गांधी जी की जीवनसंगिनी कस्तूरबा गाँधी की ओर मुड़े, जो महज गांधी जी की पत्नी ही नहीं बल्कि देश की आजादी के लिए लड़ने वालीं एक प्रतिबद्ध महिला भी थीं। इसे लिखने के लिए भी गहन शोध और यात्राएं कीं। वह उन बेशुमार लोगों से मिले जिनके पास कस्तूरबा गांधी से संबंधित कोई भी सूचना मिल सकती थी।कहानी 'बा' की
उन्नीसवीं सदी के भारत में एक कम उम्र की लड़की का पत्नी रूप में होना और फिर धीरे-धीरे पत्नी होना सीखना, उस पति के साथ जुड़ी उसकी इच्छाएं, कामनाएं और फिर इतिहास के एक बड़े चक्र के फलस्वरूप यह कैसे व्यक्ति की पत्नी के रूप में खुद को पाना जिसकी ऊंचाई उनके समकालीनों के लिए भी एक पहेली थी। यह यात्रा लगता है कई लोगों के हिस्से की थी जिसे बा ने अकेले पूरा किया। यह उपन्यास इस यात्रा के हर पड़ाव को इतिहास की तरह रेखांकित भी करता है और कथा की तरह हमारी स्मृति का हिस्सा भी बनता है।उपन्यास 'बा' में हम खुद बापू के भी एक भिन्न रूप से परिचित होते हैं। उनका पति और पिता का रूप। घर के भीतर वह व्यक्ति कैसा रहा होगा, जिसे इतिहास ने पहले देश और फिर पूरे विश्व का मार्गदर्शक बनते देखा, उपन्यास के कथा-फ्रेम में यह महसूस करना भी एक अनुभव है।
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