बीजेपी में उस दौर में जेटली, मोदी और वेंकैया नायडू, महाजन के ख़िलाफ़ ख़ेमे के रूप में उभरे थे। बाद में अनंत कुमार भी इसी ख़ेमे में शामिल हो गए थे। ये सभी नुस्ली वाडिया के क़रीबी थे, जबकि महाजन, अम्बानियों के क़रीबी थे। 2005 से मोदी इस ख़ेमे की कमान संभाले हुए हैं।
मोदी-जेटली में बढ़ी क़रीबी
मोदी और जेटली का शुरुआती राजनीतिक जीवन समानांतर रास्तों पर चला। मोदी बीजेपी के महासचिव 1998 में बने। एक साल बाद, जेटली भी पार्टी के प्रवक्ता बना दिए गए। दोनों में से किसी ने भी तब तक कोई चुनाव नहीं जीता था और दोनों की ही तरक्की, ऊँचे ओहदों पर हुई थी। उसी साल जब जेटली सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने, उन्हें गुजरात से राज्यसभा का सदस्य भी बना दिया गया। दो साल बाद मोदी उस राज्य के मुख्यमंत्री बने। फिर 2002 में जब मोदी ने उसी साल गुजरात में हुए दंगों के बाद आठ महीने पहले ही विधानसभा भंग करने का एलान किया तो जेटली को उन्होंने पार्टी का इंचार्ज बना दिया। लेकिन 2004 के आम चुनाव में हार के बाद संकट से गुजर रही पार्टी के अंदर प्रतिस्पर्धा तेज़ हो रही थी। जेटली को नजरदाज़ करते हुए संघ ने उत्तर प्रदेश से आने वाले राजनाथ सिंह को समझौता प्रत्याशी के रूप में बीजेपी अध्यक्ष पद के लिए समर्थन दिया। सिंह के लिए यह पद काँटों का ताज़ साबित होने वाला था। जल्द ही उनका सामना, आपस में लड़ते-झगड़ते नेताओं से हुआ। वह अपने पद पर अभी ठीक से बैठ भी नहीं पाए थे कि मीडिया में उनकी नकारात्मक छवि पेश की जाने लगी।राजनाथ ने पद से हटाया
फ़रवरी 2007 में वाजपेयी और आडवाणी को सूचित करने के बाद राजनाथ सिंह ने जेटली को पार्टी प्रवक्ता के पद से बेदखल कर दिया। लेकिन पार्टी के अन्दर जेटली के सितारे लगातार चमकने की राह पर थे। 2008 में जेटली ने कर्नाटक में बीजेपी को ऐतिहासिक जीत दिलाकर एक बार फिर यह साबित कर दिया कि उनके हाथों में जैसे कोई जादुई शक्ति या पारस का पत्थर हो।जेटली की हुई आलोचना
प्रधानमंत्री पद के दावेदार आडवाणी ने उसी साल उन्हें 2009 के आम चुनावों की कमान सौंप दी। बीजेपी को 2009 के चुनावों में केवल 116 सीटें मिलीं थीं। यानी 2004 के मुक़ाबले 22 सीटें कम। जब जून के महीने में हार का विश्लेषण करने के लिए पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई तो उस वक़्त जेटली लंदन में भारत-इंग्लैंड क्रिकेट शृंखला का मज़ा लेते हुए छुट्टियाँ मना रहे थे। बैठक में मौजूद लगभग सभी नेताओं ने जेटली की ख़ूब आलोचना की। उत्तर प्रदेश से सांसद मेनका गाँधी ने शिकायत की कि उनके पास पत्रकारों से तो घंटों बात करने का समय होता है, लेकिन वह प्रत्याशियों के फ़ोन तक नहीं उठाते।बीजेपी सांसद अरुण शौरी ने एनडीटीवी से कहा था कि पार्टी को माओ के शब्दों में ‘अपने मुख्यालय को बम से उड़ा देना चाहिए। ऊपर से नीचे तक सफ़ाई होनी चाहिए तथा संघ को पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में ले लेना चाहिए।’ इसके बाद जेटली ने खुले तौर पर शौरी के ख़िलाफ़ बोलना शुरू कर दिया।
मोदी ने दी थी बड़ी ज़िम्मेदारी
मोदी ने जब 2014 में प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश की तो जेटली भी अमृतसर से लोकसभा चुनाव लड़ने पहुँचे। वहाँ उन्होंने ख़ुद को पंजाब के माझा इलाक़े का बताया। लेकिन जेटली ने अपना चुनाव क्षेत्र चुनने में ग़लती कर दी थी। उन्होंने सत्तारूढ़ अकाली दल से हाथ मिला लिया था, जिसके ख़िलाफ़ राज्य में पहले ही व्यापक रूप से असंतोष व्याप्त था, ऊपर से कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह जैसा धाकड़ प्रतिद्वंदी मैदान में खड़ा कर दिया। उनके कैंपेन मेनेजर विक्रम सिंह मजीठिया पर भी कई आरोप थे और जेटली चुनाव हार गए। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने जेटली को चुनावी हार के बाद भी वित्त, रक्षा और कॉर्पोरेट अफ़ेयर मंत्रालय का कार्यभार सौंप दिया। इन जिम्मेवारियों को उन्हें सौंपने के बाद महीनों तक दोनों के बीच के रिश्तों पर कयास लगाए जाते रहे।
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