सुबह की शुरुआत बेहद बुरी ख़बर से हुई। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और कोषाध्यक्ष अहमद पटेल करीब महीने भर तक कोरोना से जूझने के बाद जिंदगी की जंग हार गए। उनके निधन की ख़बर से न सिर्फ कांग्रेस बल्कि पूरी भारतीय राजनीति और मीडिया में मातम छा गया है। बेहद नेक और जिंदादिल, हमेशा चेहरे पर मुस्कान बिखेरे रहने वाले 'अहमद भाई' अब इस दुनिया में नहीं रहे।
विश्वास कर पाना मुश्किल हो रहा है। लेकिन दुर्भाग्यवश सच यही है कि अब बुरे से बुरे वक्त में भी पीठ थपथपा कर हौसला देने वाले 'अहमद भाई' से कभी मुलाक़ात नहीं हो पाएगी। वह दुनिया-ए-फानी से हमेशा के लिए कूच कर चुके हैं।
कांग्रेस को सत्ता में लाए
कांग्रेस के कोषाध्यक्ष अहमद पटेल का इस दुनिया से रुख़सत होना न सिर्फ कांग्रेस के लिए एक झटका है बल्कि पूरी भारतीय राजनीति की अपूर्णीय क्षति है। जादुई और चुंबकीय व्यक्तित्व के धनी अहमद पटेल को जहां कई वर्षों तक वनवास झेलती रही कांग्रेस को 2004 में सत्ता में लाने का श्रेय जाता है। वहीं, 2014 के बाद से लगातार हताशा और निराशा के दौर से गुज़र रही इस पार्टी को 2017 में अपना राज्यसभा का चुनाव जीतकर यह विश्वास जगाने का श्रेय भी जाता है कि अगर ढंग से लड़ाई लड़ी जाए तो जीता भी जा सकता है।
2014 में सत्ता से बाहर होने के बाद से लगातार संकटों से जूझ रही कांग्रेस के सामने अब बड़ा संकट पैदा हो गया है। पार्टी में सबकी ज़ुबान पर एक ही सवाल है- वह यह कि जब पार्टी का संकट मोचक ही नहीं रहा तो संकटों की भुल-भुलैया में फंसी कांग्रेस को बाहर निकलने का रास्ता कौन दिखाएगा?
पार्टी को संकट से निकाला
कांग्रेस के पिछले दो दशक का इतिहास गवाह है कि जब-जब कांग्रेस किसी बड़े संकट में फंसी है उसे संकट से बाहर निकालने में अहमद पटेल ने अहम भूमिका निभाई है। ख़तरा चाहे बाहर से हो या पार्टी के अंदर से। अहमद पटेल के पास संकट के हर ताले की चाबी रही।
जब-जब बीजेपी ने कांग्रेस के विधायकों को तोड़कर कांग्रेस की राज्य सरकारों को गिराने की कोशिश की, तब अहमद पटेल पार्टी विधायकों को रोकने के लिए आगे आए और अदालत में कपिल सिब्बल और मनु अभिषेक मनु सिंघवी जैसे दिग्गजों को खड़ा करके बीजेपी की कोशिशों को कई बार नाकाम किया।
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2003 में सोनिया गांधी का राजनीतिक सचिव बनने के बाद पटेल ने उन्हें यह समझाया कि मौजूदा हालात में कांग्रेस का अकेले सत्ता में वापसी करना नामुमकिन है। लिहाज़ा कांग्रेस को भी गठबंधन की राजनीति करनी चाहिए।
'एकला चलो रे' से गठबंधन की ओर
पटेल ने सोनिया को समझाया कि क्षेत्रीय दलों के साथ लोकसभा का चुनाव लड़कर ही कांग्रेस सत्ता में वापसी कर सकती है। इसके लिए कांग्रेस की नीति में बदलाव ज़रूरी था। लिहाजा 2003 में अहमद पटेल की पहल पर शिमला में चिंतन शिविर बुलाया गया। इसी में 'एकला चलो रे' की नीति को पलट कर गठबंधन की राजनीति की शुरुआत की गई। पटेल की कोशिशों से ही 2004 में कांग्रेस बड़ा गठबंधन बनाने में कामयाब रही और इसी से उसकी सत्ता में वापसी हुई।
शरद पवार को मनाया
अहमद पटेल की कुशल प्रबंधन क्षमता का बेहतरीन नमूना विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़कर गए शरद पवार को फिर से कांग्रेस के साथ जोड़ना रहा है। 1999 में शरद पवार सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर पार्टी छोड़कर गए थे। उसी साल महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन हुआ। सरकार बनी, मुख्यमंत्री कांग्रेस का बना और उपमुख्यमंत्री एनसीपी का और इस गठबंधन ने महाराष्ट्र में 15 साल राज किया।
यह गठबंधन अहमद पटेल की कोशिशों की बदौलत ही बन पाया। इसके लिए अहमद पटेल ने शरद पवार के साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों का इस्तेमाल किया था और इसी की बदौलत शरद पवार 2004 में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए भी राजी हुए। भारतीय राजनीति में यह कारनामा चुंबक के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव को मिलाने जैसा था।
निशाने पर रहे पटेल
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही पटेल उनके और गृह मंत्री अमित शाह के निशाने पर रहे। पटेल पर इनकम टैक्स, सीबीआई, ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसियों का शिकंजा लगातार कसता रहा। कई घोटालों में उनका नाम बार-बार लिया जाता है। लेकिन अभी तक किसी मामले में उन पर दोष साबित नहीं हो पाया है। यह भी कहा जाता है कि अमित शाह की अहमद पटेल से निजी खुन्नस है। क्योंकि शाह मानते हैं कि उन्हें जेल भिजवाने के पीछे पटेल का ही हाथ था और वो अहमद पटेल से हर हालत में बदला लेना चाहते हैं।
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मोदी-शाह की जोड़ी को हराया
2017 में अहमद पटेल को उनका राज्यसभा चुनाव हराने के लिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया था। कांग्रेस के कई विधायकों को ख़रीदा। उनके इस्तीफ़े कराए गए। इनकम टैक्स के छापे डलवाए गए। लेकिन सारी ताकत झोंकने के बावजूद अहमद पटेल चुनाव जीतने में कामयाब रहे। मोदी-शाह की जोड़ी को मुंह की खानी पड़ी। यह एक ऐसा चुनाव था जिसमें पटेल ने साबित किया कि अगर कांग्रेस चुनाव को गंभीरता से ले तो वह जीत सकती है।
हालांकि इसके कुछ महीनों बाद हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई थी। लेकिन अगले साल मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत के पीछे अहमद पटेल की ही रणनीति और कार्य योजना थी।
मध्य प्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में गहलोत को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पीछे भी पटेल की बड़ी भूमिका थी और इसी से खफा होकर राहुल गांधी और उनकी टीम ने लोकसभा चुनाव में पटेल को लगभग किनारे कर दिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी।
हाशिए पर डाले गए
कहा जाता है कि राहुल गांधी और उनकी टीम के लोग अहमद पटेल को पसंद नहीं करते थे। यही वजह है कि राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से पटेल को राजनीति में हाशिए पर धकेलने की कोशिश शुरू हुई लेकिन सोनिया गांधी उनकी ढाल बनकर खड़ी हो गईं। बताया जाता है कि उन्होंने साफ-साफ़ कह दिया था कि पार्टी में नंबर दो की भूमिका हर हाल में अहमद पटेल ही निभाएंगे। इसलिए सोनिया ने राहुल गांधी को अध्यक्ष पद सौंपने के बाद अहमद पटेल को पार्टी का कोषाध्यक्ष बनवा दिया।
पार्टी के संविधान के मुताबिक़ कांग्रेस अध्यक्ष के बाद नंबर दो की पोजिशन कोषाध्यक्ष की ही होती है। इस तरह सोनिया ने अहमद पटेल को पार्टी और उनके प्रति वफादारी का बड़ा इनाम दिया था। इसका बदला पटेल ने सोनिया गांधी को दोबारा अंतरिम अध्यक्ष बनवा कर चुकाया।
जब राहुल गांधी इस ज़िद पर अड़े थे कि उनकी मां, उन्हें और प्रियंका गांधी को छोड़कर किसी और को पार्टी का अध्यक्ष चुना जाए तब ये अहमद पटेल ही थे जिन्होंने पार्टी को एकजुट रखने के लिए सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनवाया।
पटेल से प्रभावित थे राजीव
कांग्रेस में पटेल के विरोधी अक्सर ये आरोप लगाते देखे गए हैं कि सोनिया गांधी से नज़दीकी के चलते पटेल राज्यसभा के जरिए संसद में लगातार बने रहे हैं। शायद ये लोग इस हक़ीक़त से वाकिफ नहीं है कि अहमद पटेल ने 1977 में गुजरात के भरूच से लोकसभा का चुनाव जीता था। उसके बाद 80 और 84 में भी वह चुनाव जीते। 1985 में राजीव गांधी ने उन्हें अपना संसदीय सचिव बनाया था।
राजीव गांधी अहमद पटेल के प्रबंधन कौशल से प्रभावित थे। शायद यही वजह रही कि बाद में सोनिया गांधी ने भी उन्हें अपना राजनीतिक सचिव बनाया। जब तक सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं, अहमद पटेल उनके राजनीतिक सचिव रहे।
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सरल राजनेता थे पटेल
अहमद पटेल यूं तो कांग्रेस में पिछले 20 साल से शीर्ष पर रहे। लेकिन 10 साल का वह दौर जब कांग्रेस सत्ता में थी उस वक्त उनकी मर्जी के बिना पार्टी और सरकार में पत्ता तक नहीं हिलता था। इसके बावजूद घमंड उनके आसपास से भी होकर नहीं गुज़रा। 24 घंटे उनके घर पर मिलने वालों की लंबी क़तारें लगी रहती थीं। रात को 12:00 और 2:00 बजे भी वह लोगों से उसी गर्मजोशी और खुशमिज़ाजी से मिलते थे जितनी गर्मजोशी और खुशमिज़ाजी से सुबह मिला करते थे। पार्टी के काम के लिए पटेल चौबीसों घंटे हाज़िर रहते थे। कांग्रेस कवर करने वाले उन पत्रकारों के लिए जिनके साथ उनका सीधा ताल्लुक था वह एक फोन कॉल पर हमेशा उपलब्ध रहते थे।
पटेल की सादगी की भारतीय राजनीति में मिसाल दी जाती है। कभी उन्होंने किसी से ऊंची आवाज में बात नहीं की। सत्ता के शिखर पर रहते हुए अपने किसी बेटे, बेटी या किसी नज़दीकी रिश्तेदार को पार्टी में कोई पद या टिकट दिलाने की कोशिश नहीं की। शायद यही वजह थी कि वह दो दशक तक सोनिया गांधी के सबसे भरोसेमंद विश्वास पात्र बने रहे। इसीलिए कहा जाता है पटेल कांग्रेस की रीढ़ थे।
अब जबकि कोरोना ने इस रीढ़ को लील लिया है तो कांग्रेस के सामने कई सवाल हैं। सबसे अहम यह कि कांग्रेस आने वाले चुनाव में खड़ी कैसे होगी? दूसरा यह कि पार्टी में अब अहमद पटेल की जगह कौन भरेगा?
एक बेजोड़ और बेमिसाल नेता के निधन पर उन्हें दिल की गहराइयों से श्रद्धांजलि और नमन।
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