वह मेरा दोस्त है। बरसों हमने साथ रिपोर्टिंग की है। जब भी मिलते हैं एक गर्मजोशी से मिलते हैं। पर जब मैं उसे टीवी पर देखता हूँ तो ग़ुस्सा आता है। इसलिये नहीं कि वह जो कर रहा है, उसे कुछ भी कहा जाये पर वह पत्रकारिता नहीं है। ग़ुस्सा इस बात पर आता है कि उसने टीवी पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी को बरबाद कर दिया है। वे उसकी भौंडी नक़ल करते हैं। उससे तेज़ अंदाज़ में चीख़ते हैं और सामने वाले को चीर-फाड़ देने को तत्पर रहते हैं। पर सरकार का कोई प्रतिनिधि आ जाये तो भीगी बिल्ली बन जाते हैं। विपक्ष इन सबके लिये एक आसान खिलौना है जिससे वे मनचाहे तरीक़े से खेलते हैं जैसे बिल्ली अपने शिकार को खाने के पहले उसके साथ खेलती है, शिकार को तड़पता हुआ देख और उत्तेजित होती है। यह नई टीवी की पत्रकारिता है।
पुलवामा में सीआरपीएफ़ के चालीस जवान शहीद हुए। इन रणबाँकुरों के नथुने फड़कने लगे। उनका राष्ट्रवाद जाग गया। देशभक्ति कुलाँचे मारने लगी। ख़ून खौलने लगा। और लगा कि बस चंद मिनटों में ही ये वीर पाकिस्तान को नेस्तनाबूद कर देंगे और फिर गौरव भाव से घर कूच कर जायेंगे।
इस दृ्श्य को देखकर मैं हीन भाव से ग्रस्त हो गया। मुझे लगने लगा कि सालों की गयी मेरी पत्रकारिता व्यर्थ है, मैं उस तरह से देश सेवा नहीं कर पाया जिस तरह से टीवी के ये वीर जवान कर रहे हैं। इन टीवी वीरों से फिर ईर्ष्या होने लगी। फिर मेरी नींद टूटती है। और मुझे इन पर दया आती है।
24 घंटे टीवी न्यूज़ चैनलों ने ख़बरों का संसार बदल दिया
पुलवामा में आतंकवादी हमला कोई पहला हमला नहीं है। भारत 1980 के दशक से ही आतंक का शिकार होता रहा है। पहले पंजाब ने देश को झकझोरा और फिर कश्मीर ने। उत्तर पूर्व के राज्यों में भी रह रह कर काफ़ी बम फूटे हैं, ढेरों जानें गयी हैं। पर वह टीवी का युग नहीं था। ले-दे कर दूरदर्शन था। वह वही दिखाता था जो सरकार चाहती थी। वह पत्रकारिता नहीं थी। अख़बार तब ख़बरों का एकमात्र ज़रिया थे। इंटरनेट का तो शायद ही किसी ने नाम सुना हो। सोशल मीडिया तो तब पैदा भी नहीं हुआ था। लेकिन जैसे ही 24 घंटे के टीवी न्यूज़ चैनल आये, ख़बरों का संसार पूरी तरह से बदल गया। विज़ुअल महत्वपूर्ण हो गये। ख़ून, क़त्ल, ग़ोला-बारूद और जंग आकर्षक हो गये।
- ऐसी ख़बरें सदियों से लोगों को रोमांचित करती रही हैं। टीवी में अपनी आँखों के सामने ख़ून बहते देखना, बम फटना, किसी अपराधी या आतंकवादी को बोलते हुये देखना लोमहर्षक हो गया। ऐसी ख़बरों की बाढ़ आ गयी। इस नये खेल को नया आयाम दिया आतंकवाद ने। धीरे-धीरे विज़ुअल मीडियम ने हुक्मरानों को परेशान करना शुरू कर दिया।
विमान अपहरण पर रिपोर्टिंग
टीवी अपने स्वभाव में भावनात्मक और सनसनीख़ेज़ है। ऐसे में जब आईसी 814 विमान का अपहरण हुआ तो वह टीवी के लिये एक अज़ूबा घटना थी। सब कुछ दिखाने की होड़ लग गयी। जब अपह्रत विमान में फँसे यात्रियों के परिवार वालों ने हंगामा काटना शुरू किया तो वाजपेयी सरकार पशोपेश में पड़ गयी। प्रधानमंत्री निवास के बाहर इन रिश्तेदारों की रोती-चीख़ती तसवीरों ने सरकार के हाथ पैर फुला दिये। सरकार पर इतना दबाव पड़ा कि वह मसूद अज़हर जैसे ख़ूँख़ार आतंकवादियों को छोड़ने के लिये मजबूर हो गयी। तब के कैबिनेट मंत्री जसवंत सिंह तीनों आतंकवादियों को अपने जहाज में बिठाकर कंधार छोड़ने गये। यह एक बड़ी ग़लती थी।
तब दो ही 24 घंटे के टीवी चैनल थे। इन पर प्रसारित होने वाली रिश्तेदारों की बोलती तसवीरों ने सरकार को झुकने के लिये मजबूर कर दिया था। अगर वे तसवीरें नहीं होतीं तो सरकार कुछ दूसरे कड़े क़दम उठा सकती थी।
मुंबई हमले की रिपोर्टिंग पत्रकारिता के मानदंडों को भूल गयी
सन् 2000 आते-आते 24 घंटे चलने वाले कई चैनल देश में हो गये। 2008 में जब मुंबई पर भयानक हमला हुआ तो पूरा देश काँप गया। 26/11 के नाम से बदनाम वह हमला भारत के इतिहास में एक बड़ा काला अध्याय है। लेकिन इस घटना की टीवी की कवरेज की ज़बर्दस्त आलोचना हुई। यह आरोप लगा कि एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में पत्रकारिता के सारे मानदंड भुला दिये गये, राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरे में डाला गया। कमांडो ऑपरेशन की कई तसवीरों को लाइव दिखाने पर कहा गया कि जवानों की जान को ख़तरे में डाला गया। यह भी कहा गया कि इन तसवीरों को देखकर पाकिस्तान में बैठे आतंकवादियों के आकाओं ने ताज होटल और दूसरे ठिकानों में फँसे आंतकवादियों को कमांडो ऑपरेशन की जानकारी दे उन्हें एलर्ट कर दिया।
कुछ बड़े टीवी एंकर और पत्रकारों ने सीधे मुंबई पहुँच हादसे की जगह से लाइव रिपोर्टिंग की थी। इन संपादकनुमा एंकरों ने न्यूज़ रूम को जूनियर के हवाले छोड़ दिया था। इस पर विनोद मेहता जैसे बड़े संपादक ने लिखा ‘संपादकों को कौन संपादित करेगा।’
कुछ टीवी चैनलों ने कमांडो ऑपरेशन के दौरान आतंकवादियों के लाइव फ़ोन इंटरव्यू भी किये थे। इस पर भी टीवी की ख़ूब छीछालेदर हुयी।
मुंबई हमले की रिपोर्टिंग पर पत्रकार देशद्रोही नहीं था?
मुंबई हमले की रिपोर्टिंग को लेकर यह कहा गया था कि टीवी ने राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ किया। लेकिन किसी ने किसी भी पत्रकार को देशद्रोही नहीं कहा। और न ही ऐसे पत्रकारों को पाकिस्तान परस्त बताया, जबकि सरकार और सुरक्षा एजेंसियों से तीखे सवाल पूछे गये थे। सरकार से यह पूछा गया था कि इतने बड़े हमले के लिये कौन ज़िम्मेदार है? ‘इंटेलीजेंस फेल्योर’ क्यों हुआ? सुरक्षा एजेंसियाँ क्यों इस हमले को नहीं रोक पायीं? सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा भड़का था। मुंबंई और देश के दूसरे हिस्सों में मोमबत्ती मार्च हुआ था। बीजेपी तब विपक्ष में थी। उसने सरकार की आलोचना करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज की तरह तब सरकार की आलोचना को देशहित और राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ नहीं माना गया और न यह कहा गया कि आलोचना सुरक्षा बलों का मनोबल गिरा रही है।सरकार चौतरफा हमले से इतने दबाव में आ गयी कि देश के गृह मंत्री शिवराज पाटिल, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख, उप मुख्यमंत्री आर. आर. पाटिल को इस्तीफ़ा देना पड़ा। तीनों इस्तीफ़े एक ही दिन हुए।
पुलवामा घटना के बाद सरकार से सवाल पूछना गुनाह है
पर आज क्या यह संभव है? बिलकुल नहीं। पुलवामा की घटना के बाद सरकार से सवाल पूछना गुनाह है। जिसने भी 40 जवानों की शहादत के लिये सरकार की ज़िम्मेदारी तय करने की कोशिश की, उसे सीधे तौर पर पाकिस्तान परस्त और भारत विरोधी क़रार दिया गया। यह काम सत्ता पक्ष करे तो समझ में आता है पर जब यह काम टीवी स्टूडियो में बैठे बड़े नामचीन एंकर-संपादक करे तो बात समझ में नहीं आती। 26/11 की कवरेज में अतिरेक था, भावुकता का ज्वार था पर मनमोहन सरकार को कटघरे में खड़ा किया गया था।
आज के माहौल में एकाध अपवाद छोड़ दें तो मोदी सरकार से कोई भी टीवी एंकर यह पूछने की हालत में नहीं है कि मोदी जी आप पाँच साल से प्रधानमंत्री हैं, ये आतंकवादी हमले रुक क्यों नहीं रहे हैं?
आज हर एंकर राष्ट्रवाद से बलबला रहा है
आज के समय में हर एंकर राष्ट्रवाद से बलबला रहा है। वह स्टूडियो में ऐसे बोल रहा है जैसे एक घंटे की डिबेट में पाकिस्तान के सैकड़ों टुकड़े कर देगा। वह एंकर नहीं सुपरमैन है। युद्ध का उन्माद पैदा कर रहा है। पाकिस्तान से बातचीत की बात करने वालों को ‘पाकिस्तान का प्रवक्ता’ घोषित कर रहा है। शांति की वकालत करने वालों को ‘कायर’ और ‘पाकिस्तान का एजेंट’ कह रहा है। हिंसा का वातावरण बना रहा है। विरोध की हर आवाज़ को देशद्रोही साबित कर रहा है। कुछ एंकर अपनी अज्ञानता में यह काम कर रहे हैं तो कुछ एजेंडे के तहत सरकार के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।
हर कश्मीरी को आतंकी क्यों बता रहे न्यूज़ चैनल?
दक्षिणपंथी टीवी चैनल खुलेआम हर कश्मीरी को आतंकवादी बताने में जुटे हैं। टीवी डिबेट में किसी भी कश्मीरी को बोलने नहीं दिया जा रहा है, उससे गाली-गलौच की जा रही है। 2014 के बाद से ही सिविल सोसायटी के जो लोग सरकार की हाँ में हाँ नहीं मिलाते, उनको ‘एंटी इंडिया लाबी’ की लिस्ट में डाल दिया गया है। इन्हें भारत के ‘टुकड़े टुकड़े’ करने वालों के साथ जोड़ दिया गया है। यह शब्द जेएनयू की घटना के बाद टीवी में ख़ूब प्रचलन में आया है। प्रशांत भूषण, कविता कृष्णन जैसे वामपंथियों के बारे में टीवी एंकर धड़ल्ले से प्रचारित कर रहे हैं कि ये सब पाकिस्तान से मिले हुये हैं, देश में रह कर पाकिस्तान के लिये काम कर रहे हैं।
- टीवी एंकर ऐसा उन्माद पैदा कर रहे हैं कि कभी भी प्रशांत भूषण और कविता कृष्णन के साथ कोई सिरफिरा कोई हादसा कर सकता है। पुलवामा के बाद ‘इंटरनल एनेमी’ यानी ‘घरेलू दुश्मन’ नाम का नया शब्द ईजाद किया गया है। बीजेपी, संघ परिवार और सरकार से जुड़े लोगों की नज़र में प्रशांत भूषण जैसे लोग ‘घरेलू दुश्मन’ हैं। एंकर इस नैरेटिव को पूरी शिद्दत के साथ आगे बढ़ा रहे हैं। यह बेहद ख़तरनाक है।
सरकार की आलोचना देश पर हमला कैसे?
सबसे अहम बात यह है कि सरकार और देश के बीच फ़र्क़ ख़त्म कर दिया गया है। सरकार के ख़िलाफ़ बोलने को सीधे तौर पर देश के ख़िलाफ़ बताया जा रहा है। किसी भी हादसे, किसी भी ग़लती के लिये प्रधानमंत्री मोदी से सवाल नहीं पूछे जा सकते और जो पूछने की हिम्मत कर रहे हैं उन्हें बेइज़्ज़त किया जा रहा है। यह काम टीवी एंकर कर रहे हैं। 26/11 के बाद ये सवाल टीवी में उठे थे कि समुद्री रास्ते से आतंकवादी कैसे आये? कोस्ट गार्ड क्यों चूका? इंटेलीजेंस फेल्योर पर सरकार के कपड़े फाड़े गये? लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। शायद ही किसी एंकर ने यह सवाल पूछा कि 350 किलो विस्फोटक कैसे आतंकवादी के पास पहुँचा? अगर यह विस्फोटक सीमापार से आया है तो फिर सीमा सुरक्षा में लगे सुरक्षा बल क्या कर रहे थे, क्यों नहीं पकड़ पाये? अगर देश के अंदर से मिला है तो सेना के अलावा कहीं से इतना विस्फोटक नहीं मिल सकता है।
पर आज के माहौल में सेना से सवाल पूछना ईशनिंदा से भी बड़ा अपराध है। यह सवाल किसी ने नहीं पूछा कि सीआरपीएफ़ के मूवमेंट की जानकारी कैसे लीक हुई और आंतकवादी ने गाड़ी उसी बस में क्यों टकरायी जो फूलप्रूफ़ नहीं थी?
यानी न केवल यह इंटेलीजेंस फेल्योर है, बल्कि अंदर के किसी आदमी ने पूरी जानकारी आतंकवादियों की दी। यह भेदिया कौन है?
मोदी सरकार की पाक नीति पर सवाल क्यों नहीं?
विपक्ष और सिविल सोसायटी ‘लाबी’ को भारत के ख़िलाफ़ काम करने वाला तो बताया जा रहा है पर किसी ने यह सवाल नहीं पूछा कि क्या मोदी सरकार की कोई पाकिस्तान या कश्मीर नीति है या नहीं या सब कुछ एडहॉक बेसिस पर चल रहा है? बातचीत की वकालत करने वाले तो देशद्रोही हो जाते हैं पर यह नहीं पूछा जाता कि 2014 में प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के तत्कालीन पीएम नवाज़ शरीफ़ को बुलाना कहाँ तक जायज़ है? पठानकोट हादसे के पहले मोदी का अचानक लाहौर में उतरना, नवाज़ शरीफ़ को जन्मदिन की शुभकामनायें देना और पठानकोट ब्लास्ट के बाद पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के अधिकारियों को पठानकोट ब्लास्ट की जाँच के लिये बुलाना क्या जायज़ था? यानी जिसपर ब्लास्ट का आरोप लग रहा था वही ब्लास्ट की जाँच भी कर रहा था।
- अगर पाकिस्तान से बातचीत की वकालत करना गुनाह है तो प्रधानमंत्री का नवाज़ शरीफ़ को केक खिलाना भी क्या गुनाह नहीं है? अगर किसी और प्रधानमंत्री ने यह क़दम उठाया होता तो यही टीवी एंकर उनका जीना हराम कर देते पर अब ऐसे सवाल मोदी से नहीं पूछे जा सकते हैं। ये सब मास्टर स्ट्रोक हैं। सरकार की दिल खोल कर सराहना होती है।
विपक्ष के बयान देश विरोधी कैसे?
टीवी एंकर विपक्ष की इस बात पर निंदा करते हैं कि पुलवामा के बाद वह सरकार की हाँ में हाँ क्यों नहीं मिलाती लेकिन ये सवाल बीजेपी, संघ परिवार या सरकार से नहीं किये जाते कि आप लोग 2014 के पहले मनमोहन सिंह को हर आतंकवादी घटना के लिये क्यों ज़िम्मेदार ठहराते थे? तब सरकार की आलोचना के मोदी के बयान सोशल मीडिया पर जम कर चल रहे हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का वह बयान भी सबके सामने है जब एक भारतीय सैनिक हेमराज का सिर पाकिस्तान के काटने के बाद उन्होंने दिया था। तब उन्होंने कहा था कि भारत एक सिर के बदले दस सिर लेकर आये। तब ये बयान देश विरोधी नहीं थे। अगर तब ऐसे बयान देश विरोधी नहीं थे तो आज कैसे विपक्ष के बयान देश विरोधी हो गये?
राज्य मीडिया वाली बीमारी राष्ट्रीय मीडिया को कैसे लगी?
सवाल बहुत हैं पर जवाब कहीं नहीं है। हक़ीकत यह है कि आज मीडिया ख़ासतौर पर टीवी डरा-सहमा है। वह अपनी आज़ादी खो चुका है। कुछ को छोड़ दें तो टीवी के ज़्यादातर एंकर और संपादक सरकार के ‘खुलेआम’ प्रवक्ता बन गये हैं। मीडिया अपनी स्वायत्तता खो चुका है। यह आज की सच्चाई है। पहले यह बीमारी राज्यों के मीडिया में थी। राज्यों में इक्का-दुक्का अख़बार या टीवी को छोड़ दें तो बाक़ी सब राज्य सरकार के प्रवक्ता बने घूमते हैं और जो नहीं घूमता वह नौकरी से हाथ धो बैठता है। अब यह बीमारी राष्ट्रीय मीडिया को भी लग गयी है। ऐसे में मीडिया की बर्बादी के लिये सिर्फ़ अपने दोस्त को ज़िम्मेदार क्यों कहूँ? और क्यों उसका नाम लूँ? बाकी आप सब तो समझदार हैं ही।
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