टीआरपी का ही दबाव था कि पहले पहल अपराध पर आधारित ख़बरों और कार्यक्रमों की बाढ़ आई। उन्हें मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा। सनसनी पर जोर दिया गया। नाटकीयता आई और फिर टीवी का चरित्र ही बदल गया।
मुंबई पुलिस के 'टीआरपी घोटाले' के भंडाफोड़ से टीवी की दुनिया में हंगामा मच गया। टीआरपी का भूत क्या है, इस पर सत्य हिंदी एक शृंखला प्रकाशित कर रहा है। पढ़िए, कैसे इसने टीवी चैनलों को अपनी चपेट में लिया...
मुंबई पुलिस ने जब प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर दावा किया कि उसने 'टीआरपी घोटाले' का भंडाफोड़ किया है और उसमें रिपब्लिक सहित तीन चैनलों के नाम लिए तो टीवी की दुनिया में हंगामा मच गया? सवाल उठा यह टीआरपी घोटाला क्या है? इसे किसने पैदा किया या मजबूरी क्या है?
हालिया टीआरपी घोटाले के मद्देनज़र ब्रॉडकास्टिंग ऑडिएंस रिसर्च कौंसिल यानी बार्क ने दो से तीन महीने तक के लिए न्यूज़ चैनलों की टीआरपी न देने का एलान किया है। क्या सिर्फ़ इसी से रेटिंग प्रणाली में सुधार हो जाएगा?
बार्क ने कहा है कि वह अगले 3 महीनों तक टेलीविज़न चैनलों की रेटिंग नहीं करेगा ताकि 'रेटिंग के मौजूदा मानकों की समीक्षा की जा सके और उन्हें बेहतर बनाया जा सके।'
ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी ने सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय स्थितियों में हुई मौत और उसके बाद के मीडिया कवरेज मामले में चार समाचार चैनलों को अपने दिशा- निर्देशों का उल्लंघन करने का दोषी पाते हुए उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की है।
टीवी की दुनिया में एक सनसनीख़ेज़ खुलासा हुआ है। मुंबई पुलिस का दावा है कि कुछ टीवी चैनेल्स पैसे देकर अपनी टीआरपी बढ़ाया करते थे। इस मामले में रिपब्लिक टीवी पर गंभीर आरोप लगे हैं।
रिपब्लिक भारत पर लाइव कवरेज के दौरान एक रिपोर्टर ने गाली दे दी। टीवी चैनलों पर लाइव प्रसारण में गालियों की भाषा अब अक्सर क्यों इस्तेमाल हो रही है? क्या यह टीआरपी का खेल है?
हाल के अपने ‘कृत्यों’ की वजह से भारतीय मीडिया जनता की ज़बरदस्त आलोचना का शिकार है। एक तरफ़ ‘गोदी मीडिया’ है तो दूसरी ओर ‘सेक्युलर’ मीडिया का छोटा-सा वर्ग है।
यह धीरे-धीरे मरते हुए अख़बारों की एक अवस्था है जिसे कोरोना महामारी और उससे उपजी मंदी ने तेज़ कर दिया है। पूरी दुनिया में इस बात पर चर्चा हो रही है कि क्या कोरोना के बाद अख़बार बच पाएँगे या पूरी तरह समाप्त हो जाएँगे?
शुद्ध मन से की गयी कोई भी पहल स्वागत योग्य या आदर के योग्य होती है। बीजेपी और ख़ासतौर पर मोदी के शासन के बाद एक ऐसी ही पहल की ज़रूरत थी। कहना न होगा कि ‘सत्य हिंदी’ की पहल कुछ ऐसी ही सोच के साथ की गयी या होगी।
'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने नरेंद्र मोदी सरकार के हाल के फ़ैसलों का ज़िक्र करते हुए 'प्रदर्शन बढ़ रहे हैं तो क्या हिंदू राष्ट्र बनने के क़रीब पहुँच रहा भारत?' शीर्षक से ख़बर प्रकाशित की है।
रवीश कुमार कहते हैं कि एक समय उनके पास पैसे नहीं थे। वह काम की तलाश में थे। लेकिन जब एनडीडीवी में नौकरी मिली तो रवीश कुमार घबरा गए थे। वह तब क्यों घबरा गए थे? देखिए आशुतोष और शीतल पी सिंह की रवीश कुमार के साथ बातचीत का अंश। सत्य हिंदी पर।