‘मैं ही पाँच साल के लिए मुख्यमंत्री रहूंगा और हमने किसी से 50:50 के फ़ॉर्मूले का वादा नहीं किया है’, मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के इस बयान के बाद महाराष्ट्र में राजनीति गर्मा गयी है। बीजेपी-शिवसेना में चुनाव परिणाम के बाद अब तक जो शह-मात का खेल चल रहा था, उस पर राजनीतिक विश्लेषकों का यही आकलन था कि यह सत्ता में भागीदारी तय करने के लिए नूरा-कुश्ती जैसा ही है। लेकिन फडणवीस के इस बयान के बाद टकराव क्या निर्णायक मोड़ लेगा यह अटकलें लगने लगी हैं।
दूसरी ओर, शिवसेना ने भी अपने तेवर तीख़े कर लिये हैं। शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने कहा है, ‘यहां कोई दुष्यंत नहीं है जिसके पिता जेल में हैं? हमें मजबूर नहीं करें दूसरा विकल्प चुनने को?’ तो क्या वाक़ई शिवसेना दूसरा विकल्प चुनने जा रही है? या बीजेपी के साथ शिवसेना के अलावा भी कोई नया साथी खड़ा हो गया है?
क्या बीजेपी सरकार बनाने के लिए निर्दलीय, छोटी पार्टियों व शिवसेना, कांग्रेस या एनसीपी के विधायकों को तोड़ने का खेल खेलेगी? वर्तमान में ये सारे विकल्प खुले हुए हैं। बीजेपी ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि वह मुख्यमंत्री का पद शिवसेना को नहीं देने वाली है। हालांकि बीजेपी इशारा कर चुकी है कि आदित्य ठाकरे को उप मुख्यमंत्री की कुर्सी दी जा सकती है। लेकिन शिवसेना चाहती है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी बारी-बारी से ढाई-ढाई साल के लिए शिवसेना और बीजेपी को मिले।
इस बीच, दोनों पार्टियां निर्दलीय विधायकों को साधने की कोशिश में जुटी हुई हैं। इस बीच यह भी ख़बर मिल रही है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह 30 अक्टूबर को अब मुंबई नहीं आ रहे हैं। पहले बताया जा रहा था कि अमित शाह मुंबई आकर पार्टी विधायकों से मुलाकात करेंगे और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से भी मिलेंगे। लेकिन शिवसेना की ओर से की जा रही बयानबाज़ी के बाद अब मामला और बिगड़ गया है।
महाराष्ट्र बीजेपी के नेताओं का कहना है कि जब तक शिवसेना की ओर से बयानबाज़ी जारी है, उससे कोई बातचीत नहीं की जानी चाहिए। एक अहम बात और है, वह यह कि अमित शाह की मुंबई यात्रा टलने की बात यदि सही है तो यह प्रदेश में नए ध्रुवीकरण को जन्म दे सकती है।
शिवसेना कह रही है कि वह सत्ता में भागीदारी के सवाल पर किसी भी राज्य स्तरीय नेता से बात नहीं करेगी। यदि ऐसे में अमित शाह मुंबई नहीं आ रहे हैं तो क्या यह मान लिया जाये कि वह शिवसेना को छोड़ किसी नए समीकरण के तहत सरकार बनाने का प्रयास भी कर रहे हैं। या यह चाल भी शिवसेना के ऊपर किसी मनोवैज्ञानिक दबाव डालने के लिए चली जा रही है।
निर्दलीयों को साधने की कोशिश में बीजेपी
बीजेपी 105 विधायकों के अपने आंकड़े को साल 2014 के 122 के आंकड़े पर ले जाने की हरसंभव कोशिश में जुटी है ताकि जब सत्ता में भागीदारी के प्रस्ताव पर चर्चा हो तो वह दावा कर सके कि उसकी ताक़त कम नहीं हुई है। इसके तहत वह निर्दलीय विधायकों व छोटी पार्टियों को पटाने या उनके विधायक तोड़ने के खेल में लगी हुई है। गोंदिया (विदर्भ) से चुनकर आये निर्दलीय विधायक विनोद अग्रवाल और उरण (नवी मुंबई) से जीते महेश बालदी ने देवेंद्र फडणवीस और बीजेपी को अपना समर्थन दे दिया है। दरअसल, ये दोनों बीजेपी के ही नेता हैं और इन्होंने बग़ावत करके शिवसेना के प्रत्याशी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था और बीजेपी का संगठन चुनाव प्रचार में इनके साथ ही खड़ा था।
प्रदेश में इस बार 12 निर्दलीय विधायक जीते हैं और अगर ये सभी बीजेपी को समर्थन दे देते हैं तब भी उसके विधायकों का आंकड़ा 2014 के आंकड़े को छू नहीं सकेगा। वैसे, दो निर्दलीय विधायकों ने शिवसेना को समर्थन दे दिया है जबकि कांग्रेस-एनसीपी के एक-एक निर्दलीय विधायक जो बाग़ी के रूप में चुनाव लड़े थे, उन्होंने अपनी-अपनी पार्टी के प्रति समर्थन जारी किया है। यानी कुल मिलाकर ज़्यादा से ज़्यादा आठ निर्दलीय विधायक बीजेपी का समर्थन कर सकते हैं।
छोटी पार्टियों में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को एक, समाजवादी पार्टी को दो, असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को दो, हितेंद्र ठाकुर की बहुजन विकास आघाडी को तीन, राजू शेट्टी की स्वाभिमानी शेतकरी पार्टी को एक, शेतकरी कामगार पार्टी को एक सीट मिली है। अभी तक कि जो जानकारी मिली है, इनमें से एक भी पार्टी का विधायक बीजेपी या शिवसेना के साथ खड़ा नहीं होने वाला है क्योंकि ये पार्टियां परंपरागत रूप से इन दोनों पार्टियों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ती रही हैं।
मुख्यमंत्री पद पर शिवसेना के कड़े रुख के बाद से बीजेपी ने दबाव की राजनीति का खेल शुरू कर दिया है। बीजेपी के नेता मीडिया में आकर या सूत्रों के हवाले से इस प्रकार की ख़बरें चलवा रहे हैं कि शिवसेना के अधिकांश विधायक उनके पक्ष में हैं और वे सरकार बनाने के लिए समर्थन देने को तैयार हैं।
कमजोर है बीजेपी का दावा
उल्लेखनीय है कि साल 2014 में भी बीजेपी ने कुछ ऐसी ही रणनीति अपनाई थी और शिवसेना बाद में सरकार में शामिल हुई थी। उस समय एनसीपी के खुले समर्थन पर बीजेपी ने विधानसभा में फ़्लोर टेस्ट का दांव खेला था और सफल भी हुई थी। शिवसेना को अधिकृत रूप से विरोधी पक्ष का नेता पद भी दिया गया था। बाद में पार्टी विधायकों में टूट की अफवाहों के बीच शिवसेना सरकार में शामिल हो गयी थी। लेकिन इस बार शिवसेना के विधायकों की तरफ़ से यह बात आ रही है कि पार्टी को मुख्यमंत्री का पद छोड़ना नहीं चाहिए और सत्ता में बराबर हिस्सेदारी की बात करनी चाहिए। इसलिए बीजेपी का यह दावा कि शिवसेना के अधिकांश विधायक उसके साथ हैं ,पुख्ता नजर नहीं आता।
खुले हुए हैं विकल्प: राउत
इस बारे में शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत का कहना है कि पार्टी हर गतिविधि पर नजर रखे हुए है। राउत ने कहा, ‘हमारी इतनी ही माँग है कि लोकसभा चुनाव में गठबंधन के समय जो फ़ॉर्मूला तय किया गया था उसके अनुरूप सत्ता में भागीदारी मिले।’ राउत यह भी कहते हैं कि बीजेपी यदि नहीं मानेगी तो उनके पास विकल्प खुले हुए हैं।
यह बात स्पष्ट है कि शिवसेना के बिना बीजेपी के पास सत्ता बनाने का कोई विकल्प नहीं है। बीजेपी के जो नेता 15 निर्दलीय विधायकों का दावा कर अपनी सीटों की संख्या 120 तक पहुंचाने की बात कह रहे हैं, यह बात भी यथार्थ से परे है, क्योंकि उतने निर्दलीय विधायक उसके साथ हैं ही नहीं।
मुंबई और कोंकण क्षेत्र को छोड़ दें तो इस बार प्रदेश के हर संभाग में बीजेपी-शिवसेना का प्रदर्शन ख़राब ही हुआ है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी अपने विधानसभा क्षेत्र में विरोधी प्रत्याशी के मुक़ाबले बढ़त बढ़ाने में सफल नहीं हो सके। विदर्भ जो कि मुख्यमंत्री फडणवीस, वित्त मंत्री सुधीर मुनगंटीवार, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी सहित राज्य सरकार के 7 मंत्रियों का इलाक़ा है, में बीजेपी पिछली बार जैसा प्रदर्शन नहीं कर सकी।
62 विधानसभा क्षेत्रों वाले विदर्भ में पिछली बार बीजेपी को 44 तथा शिवसेना को 4 स्थान पर सफलता मिली थी। लेकिन इस बार बीजेपी वहां 28 सीटें ही जीतने में सफल रही जबकि कांग्रेस 16, एनसीपी 6 व 3 सीटों पर शिवसेना को सफलता मिली।
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