'जब राजनीतिक प्रक्रियाओं की हत्या हो रही हो तो कोर्ट मूकदर्शक बना नहीं रह सकता'; 'राष्ट्रपति कोई राजा नहीं होते जिनके फ़ैसलों की समीक्षा नहीं हो सकती, राष्ट्रपति और जज दोनों से भयानक ग़लतियां हो सकती हैं', ये दो टिप्पणियां हैं जो देश की शीर्ष अदालतों द्वारा की गयी हैं। ये टिप्पणियां भी ऐसे मामलों से जुड़ी हैं जब सत्ता के खेल में राज्यपाल और राष्ट्रपति के स्व विवेक के आधार पर लिए गए निर्णयों से सियासी संकट खड़े हुए हैं।
महाराष्ट्र में भी राजनीति या यूं कह लें कि सत्ता का समीकरण या संघर्ष कुछ ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। सबकी नजरें अदालत पर टिकीं है कि क्या वह ऊपर लिखी हुई अपनी ही टिप्पणियों को आधार बनाते हुए कुछ इस तरह का आदेश देगी कि बार-बार होने वाले इस स्व विवेक के सवाल पर विराम लग जाये या कोई फौरी आदेश देकर स्थिति को सुलझाने का फ़ैसला करेगी।
महाराष्ट्र में सत्ता का यह संघर्ष न्यायपालिका के बाहर जनता की अदालत में भी खेला जा रहा है। साथ ही तमाम राजनीतिक दाँव-पेच भी आजमाए जा रहे हैं।
सोनिया से मिले शिवसेना के सांसद
सत्ता के इस संघर्ष में एक स्वर यह भी उभर कर आ रहा है कि बीजेपी को रोकने के लिए अब विचारधाराओं की सीमाओं को लांघना पड़े तो भी हिचकिचाना नहीं चाहिए। कांग्रेस ने इस दिशा में समर्थन की पहल की तो शिवसेना के चार सांसदों ने पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी से मुलाक़ात कर इस सिलसिले को आगे बढ़ाया। राजनीति में बदलाव का यह बड़ा संकेत है। शिवसेना के चार सांसद अरविंद सावंत, गजानन कीर्तिकर, अनिल देसाई और राहुल शेवाले ने सोनिया गांधी से मुलाक़ात की है।
महाराष्ट्र में चल रहे सरकार बनाने के संघर्ष में शिवसेना नेताओं की सोनिया गांधी से मुलाक़ात की यह पहली घटना है। यह रिश्ता कैसा बन रहा है इसका अंदाजा शरद पवार के एक बयान से भी लगाया जा सकता है। उन्होंने सोमवार शाम को विधायकों की परेड के दौरान कहा कि पांच साल नहीं पचास साल का गठबंधन हो रहा है। राजनीति में इस तरह के बयानों को कई नजरिये से देखा जाता है और कौन सा रिश्ता कब टूट जाए इसका ताजातरीन उदाहरण अजीत पवार की बग़ावत से अच्छा क्या हो सकता है। बहरहाल, महाराष्ट्र में सरकार बनाने के संघर्ष के घटनाक्रम की बात करते हैं अदालत में इसे लेकर चल रही लड़ाई से।
ऊपर बतायी गयी पहली टिप्पणी देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जगदीश सिंह खेहर की है जो अरुणाचल प्रदेश में 2016 में लागू किये गए राष्ट्रपति शासन को लेकर की गई। पांच जजों की खंड पीठ ने इस मामले में फ़ैसला दिया था और इसमें से एक जज महाराष्ट्र मामले में बनी तीन जजों की बेंच में भी शामिल हैं। दूसरी टिप्पणी उत्तराखंड हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस केएम जोसेफ़ के द्वारा उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन को अदालत में चुनौती पर दिए गए फ़ैसले के दौरान की गयी थी।
देश आज संविधान दिन मना रहा है और संविधान के पालन की जिम्मेदारी देश की सर्वोच्च अदालत है और वहां से आने वाले फ़ैसले का महाराष्ट्र ही नहीं देश की जनता को भी इंतज़ार है। लेकिन लगता है जिस तरह से स्व विवेक पर राज्यपाल और राष्ट्रपति के फ़ैसले विवादित बनते जा रहे हैं, लोगों की क़ानून के प्रति विश्वसनीयता कमजोर होती जा रही है।
शक्ति प्रदर्शन या डर!
शिवसेना-एनसीपी और कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट से प्रदेश में साझा सरकार बनाने के लिए तुरंत प्रभाव से विधानसभा का सत्र बुलाकर विश्वास प्रस्ताव पर मतदान कराये जाने का आदेश देने की मांग कर रहीं हैं। लेकिन साथ ही साथ उन्होंने मुंबई के हयात होटल में अपने विधायकों की मीडिया के सामने परेड भी कराई। इस घटना को मीडिया ने शक्ति प्रदर्शन कहकर ख़बरें दिखाई लेकिन क्या यह शक्ति प्रदर्शन है? शक्ति प्रदर्शन से ज्यादा यह अविश्वास और डर है। डर की वजह से ही इन तीनों पार्टियों ने विधानसभा के पटल से पहले एक होटल में अपने बहुमत की ताक़त दिखाई। इन दलों ने अपने विधायकों को दिलासा दिलाया कि उनकी विधानसभा सदस्यता रद्द नहीं होगी।
कहीं ना कहीं इन नेताओं के दिल में अविश्वास का कोई अंकुर ज़रूर पनपा होगा। तभी तो उन्होंने अदालत के फ़ैसले से पहले जनता की अदालत में यह दिखाने का प्रयास किया कि उनके पास सरकार बनाने का संख्या बल है और वे सभी एक साथ हैं।
इस शक्ति प्रदर्शन को आयोजित करने के पीछे यही एक बड़ा मक़सद हो सकता है कि शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के नेता यह दर्शाना चाहते हों कि बीजेपी के पास संख्या बल नहीं है और वह लोकतंत्र का मखौल उड़ा रही है।
कुछ लोगों का इस प्रदर्शन को लेकर यह भी मत है कि ये पार्टियां इसके माध्यम से अदालत को यह संदेश भेजने की कोशिश कर रहीं है कि क़ानूनी दाँव-पेच भले ही कुछ भी हों, महाराष्ट्र की सत्ता के असली दावेदार वे ही हैं क्योंकि उनके पास विधायकों का समर्थन धरातल पर है, कागज़ पर नहीं।
महाराष्ट्र में सत्ता के संघर्ष का यह नया खेल एक कागज़ को लेकर ही उपजा है। एनसीपी का कहना है उन्होंने जिस शख़्स को विधायक दल का नेता चुना था वह उनके हस्ताक्षर वाला पत्र लेकर चला गया और उसी के आधार पर राज्यपाल ने देवेंद्र फडणवीस और उसे शपथ दिला दी। चाहे विधायकों की परेड हो या सिर्फ एक पत्र के आधार शपथ दिलाने का मामला, इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ है।
अब उस पत्र की वैधता पर ही सवाल है। जिस नेता ने उसका दुरुपयोग किया है उसे उसकी पार्टी ने सर्व सम्मति से प्रस्ताव पास कर विधायक दल के नेता पद से ही हटा दिया और इस बात की जानकारी राज्यपाल कार्यालय को भी दे दी है। लेकिन इसके बाद भी क्या राज्यपाल स्व विवेक का प्रयोग करेंगे? यह बड़ा सवाल है।
राज्यपाल ने फडणवीस सरकार को बहुमत सिद्ध करने के लिए 14 दिन का समय भी दे दिया और इस बात का ख़ुलासा भी अदालत में उनका पक्ष रखने वाले वकील की दलील में हुआ जबकि पहले यह कहा जा रहा था कि बहुमत साबित करने के लिए 30 नवम्बर की तिथि निर्धारित की गयी है।
महाराष्ट्र के सत्ता संघर्ष का यह क़ानूनी पक्ष था लेकिन जिस तरह के बयान शक्ति प्रदर्शन के दौरान आये हैं, उनकी राजनीतिक समीक्षा की जाए तो यह प्रदेश में नए टकराव की ओर इशारा कर रहे हैं। शरद पवार ने जिस तरह से चुनौती देते हुए कहा, 'यह महाराष्ट्र है, गोवा नहीं कि आप यहां कुछ भी कर लेंगें' के कई मायने हैं। पहला मतलब तो यही है कि वह आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं। दूसरा यह कि आप किसी शोर-शराबे के बीच विधानसभा के पटल पर तकनीकी खेल का इस्तेमाल कर एक बार बहुमत हासिल भी कर लेंगे तो भी आपको चुनौती मिलती रहेगी और फिर से विश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ सकता है।
क़रीब आ रहे तीनों दलों के नेता
बदलते घटनाक्रम में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के विधायक और नेता क़रीब आ रहे हैं और उनमें नया आत्मविश्वास दिख रहा है। विधायकों को वापस लाने का मामला हो या विधायकों पर पहरा बिठाने का तीनों ही दलों के नेता-कार्यकर्ता एक-दूसरे के संपर्क में हैं। इस एकजुटता का असर यह दिख रहा है कि जो विधायक कुछ डांवाडोल स्थिति में थे अब उन्हें भी यह स्पष्ट होने लगा है कि दल-बदल जैसा कोई भी फ़ैसला उन्हें भारी पड़ेगा क्योंकि तीनों ही दलों के नेताओं ने यह स्पष्ट संदेश दिया है कि बग़ावत करने वाले को एकजुट होकर हरायेंगे। ऐसे में इन विधायकों का मनोबल भी डगमगा गया है।
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