महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे 24 अक्टूबर को ही घोषित हुए, चुनाव पूर्व गठबंधन बनाने वाले दल बीजेपी-शिवसेना दोनों मिला कर सरकार आराम से सरकार बना सकते हैं, इस लायक सीटें उनके पास हैं। इसके बावजूद वे सरकार नहीं बना रहे हैं। विपक्षी गठबंधन कांग्रेस-एनसीपी के पास इतनी सीटें नहीं हैं कि वे सरकार बनाएं। उन्होंने शिवसेना के साथ मिल कर सरकार बनाने से साफ़ इनकार कर दिया है और कहा है कि जनता ने उन्हें सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया है, यह जनादेश बीजेपी-शिवसेना को मिला है, लिहाज़ा वे ही सरकार बनाएं।
पूरा मामला मुख्य मंत्री की कुर्सी पर टिका हुआ है। शिवसेना का कहना है कि चुनाव के पहले ही 50-50 साझेदारी की बात हुई थी, लिहाज़ा उसका आदमी आधे समय यानी ढाई साल के लिए मुख्य मंत्री बनेगा और बीजेपी को यह लिखित आश्वासन देना होगा।
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दूसरी ओर बीजेपी का कहना है कि 50-50 का मतलब मंत्रालय में बराबरी की हिस्सेदारी है, मुख्य मंत्री पद को आधे-आधे समय के लिए साझा करने की बात नहीं है। इस पर जिच बनी हुई है। न बीजेपी झुकने को तैयार है न ही शिवसेना किसी तरह का समझौता करने को राज़ी है।
अजीब स्थिति यह है कि जो सरकार बना सकते हैं, वे बना नहीं रहे हैं। विधानसभा का कार्यकाल शनिवार यानी 9 नवंबर को ख़त्म हो रहा है।
इस अजीबोगरीब स्थिति में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका बढ़ गई है। तमाम लोगों की निगाहें उन्हीं पर टिकी हुई हैं, वे क्या कदम उठाते हैं, इस ओर सबका ध्यान लगा हुआ है। उनके पास क्या विकल्प हैं, यह सवाल महत्वपूर्ण है।
- राज्यपाल मौजूदा मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस से कह सकते हैं कि वह नए विकल्प तक पद पर बने रहें। मुख्य मंत्री का पद विधानसभा के साथ ही ख़त्म नहीं होता है।
- राज्यपाल चुनाव में सबसे ज़्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी (बीजेपी) के नेता को मुख्य मंत्री पद की शपथ दिलवा कर यह सकते हैं कि वे एक निश्चित समय अवधि में विधानसभा में अपना बहुमत साबित करें।
- राज्यपाल यह कह सकते हैं कि विधानसभा अपना नेता चुने, यह काम बैलट के ज़रिए हो। ऐसा पहले हो चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में कहा था कि उस समय उत्तर प्रदेश में चुने गए मुख्य मंत्री जगंदबिका पाल और उनके पूर्ववर्ती कल्याण सिंह में से किसके पास बहुमत है, यह विधानसभा में बैलट के ज़रिए तय हो।
- यदि कोई सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करे और उसके बाद ऊपर के तीनों विकल्प भी नाकाम रहे तो राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश कर सकते हैं।
बता दें कि इस बार के चुनाव में महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा 105 सीटें बीजेपी को मिलीं। इसके बाद शिवसेना को 56, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटें मिलीं। राज्य विधानसभा में 259 सीटें हैं, सरकार बनाने के लिए 130 सीटों की ज़रूरत है।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि अब बीजेपी-शिवसेना के बीच किसी तरह के समझौते की उम्मीद लगभग ख़त्म हो चुकी है। वह किसी सूरत में मुख्य मंत्री पद से कम पर राज़ी नहीं है और बीजेपी उसे किसी हालत में यह पद नहीं देगी। ऐसा करने से उसे दूरगामी राजनीतिक नुक़सान होगा।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि पर्दे के पीछे की राजनीति यह है कि पहले बीजेपी-शिवसेना सरकार बनाने में नाकाम रहे, उसके बाद एसीपी कांग्रेस सामने आएं। एनसीपी शिवसेना के साथ मिल कर सरकार यह कह कर बना ले कि अभी चुनाव हुए हैं, आर्थिक बदहाली पहले से ही है, ऐसे में राज्य पर एक और चुनाव का बोझ लादना ग़लत होगा। उस सरकार को कांग्रेस बाहर से स्थिरता के नाम पर समर्थन दे दे। यदि यह चाल कामयाब होती है तो उस समय एक बार फिर राज्यपाल की भूमिका केंद्र में आ जाएगी।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह भी मुमकिन है कि राज्यपाल मौजूदा मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस से अगले विकल्प मिलने तक पद पर बने रहने को कहें। इस दौरान बीजेपी शिवसेना और कांग्रेस के 25-30 विधायकों को तोड़ कर अपने पाले में ले आए।
यदि इसके बाद भी बीजेपी ज़रूरी बहुमत का जुगाड़ नहीं कर पाती है तो मुमकिन है कि राज्यपाल राष्ट्रपति शासन लागू कर दें। यह 6 महीने के लिए होता है। बीजेपी उस समय का इस्तेमाल आराम से करे और साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करते हुए शिवसेना-बीजेपी के विधायकों को अपने पाले में ले आए।
यह स्थिति महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश में शायद कभी नहीं आई थी। इसलिए राज्यपाल को क्या करना चाहिए, इसकी कोई नज़ीर नहीं है। लेकिन इस बार यह पता चल जाएगा कि कोश्यारी क्या करते हैं। यह राज्यपाल की भूमिका और तटस्थता पर नई रोशनी डालेगी। साथ ही यह भी पता चल जाएगा कि 'चाल चरित्र और चेहरा' की बात करने वाले और 'राजनीतिक सुचिता' की बात करने वाले राजनीतिक दल ऐसी स्थिति में क्या करते हैं।
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