मराठा आरक्षण को लेकर एक बार फिर से महाराष्ट्र की राजनीति गर्म होती दिख रही है। इसका कारण है- मराठा आरक्षण को लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय को सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थगित किया जाना। हालांकि यह मामला अब बड़ी बेंच या संवैधानिक खंडपीठ को भेजा जाएगा लेकिन विपक्षी दल बीजेपी ने इस मामले में राज्य सरकार को घेरते हुए बयानबाजी शुरू कर दी है।
बीजेपी ने कहा है कि उद्धव सरकार ने इस मामले में अपना पक्ष ठीक से नहीं रखा। पूर्व मुख्यमंत्री और इस मामले की उप समिति के प्रमुख अशोक चव्हाण ने कहा कि इस तरह के बयान सिर्फ राजनीतिक हैं। उन्होंने कहा कि देवेंद्र फडणवीस सरकार के दौरान जिन वकीलों ने हाई कोर्ट में पक्ष रखा था उन्होंने ही सुप्रीम कोर्ट में भी रखा है। चव्हाण ने कहा कि सरकार एक बार फिर सोमवार को इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जा रही है।
इन्हीं आरोप-प्रत्यारोप के बीच राष्ट्रवादी कांग्रेस के प्रमुख शरद पवार और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बीच बुधवार रात को मुख्यमंत्री आवास में बैठक हुई। दरअसल, मराठा आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश उसी बिंदु पर आया, जिसके आधार पर हाई कोर्ट ने इसे लागू करने की इजाजत दी थी।
संविधान में भले ही ज्यादा से ज्यादा 50% आरक्षण की बात कही गयी है लेकिन अपवाद वाली परिस्थितियों में उसमें बदलाव करने का अधिकार है और राज्य सरकार ऐसा निर्णय कर सकती है, यह निर्णय साल 2018 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने दिया था। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इसी को आधार बनाकर इस निर्णय को स्थगित करने के आदेश दिए हैं।
बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश के बाद महाराष्ट्र में मराठा समाज को आरक्षण देने का रास्ता साफ़ हो गया था। अपने आदेश में बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक शर्त रखी थी कि यह आरक्षण शिक्षा में 12 तथा नौकरियों में 13% से ज्यादा नहीं होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार ने मराठा समाज को 16% आरक्षण दिए जाने की सिफारिश की थी।
प्रदेश में मराठा आरक्षण की मांग साल 1980 से चल रही थी और 2009 के विधानसभा चुनाव में विलासराव देशमुख ने यह घोषणा की थी कि यदि कांग्रेस की सरकार आयी तो मराठा समाज को आरक्षण देने पर विचार किया जाएगा।
2009 से 2014 तक विभिन्न राजनीतिक दलों व सत्ताधारी दलों के नेताओं ने यह मांग सरकार के समक्ष रखी। 25 जून, 2014 को तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने मराठा आरक्षण को मंजूरी दे दी। उस आदेश के अनुसार शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में मराठा समाज को 16% आरक्षण दिये जाने की बात कही गयी, साथ ही 5% आरक्षण मुसलिम समाज को देने का फ़ैसला भी किया गया।
मराठा समाज का प्रदर्शन
नवम्बर, 2014 में इसे अदालत में चुनौती दी गयी। इस दौरान राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और बीजेपी-शिवसेना की सरकार आ गयी। साल 2018 में कोपर्डी में हुई बलात्कार की घटना के बाद मराठा आरक्षण का मुद्दा और गरमा गया और प्रदेश भर में मराठा समाज के लोगों ने हर जिला स्तर, संभाग और राज्य स्तर पर मूक मोर्चा निकाला। हर मोर्चे में लाखों की संख्या में युवक-युवती एकत्र होते थे और बिना किसी नारेबाजी या प्रदर्शन के अपनी मांगों का ज्ञापन संबंधित अधिकारियों को सौंपते थे।
हिंसक हुआ आंदोलन
इस आंदोलन का दूसरा चरण नवम्बर, 2018 में शुरू हुआ लेकिन इस चरण में आंदोलन हिंसक होने लगा। 18 नवम्बर, 2018 को मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने आनन-फानन में बैठक बुलाकर 16% मराठा आरक्षण देने का क़ानून मंजूर करने की घोषणा कर दी। लेकिन इसे फिर से अदालत में चुनौती दी गयी। 6 फरवरी, 2019 से 26 मार्च तक बॉम्बे हाई कोर्ट में हर दिन इस मामले की सुनवाई होती रही। 26 मार्च को इस पर अदालत ने अपना फ़ैसला आरक्षित कर दिया और ग्रीष्मकालीन अवकाश के बाद फैसला सुनाया।
फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
इस फैसले को अधिवक्ता जयश्री पाटिल ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और अब करीब एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश को स्थगित कर दिया।
अदालत ने कहा कि वर्ष 2020-21 में होने वाली सरकारी नौकरी भर्ती या शैक्षणिक प्रवेश के लिए मराठा आरक्षण लागू नहीं होगा। यह आदेश प्रदेश में सभी जातियों को दिया जाने वाला आरक्षण 50% से ज्यादा हो जाएगा, इस तर्क के आधार पर दिया गया।
न्यायाधीश हेमंत गुप्ता, एल. नागेश्वर और एस. रवींद्र भट ने यह फैसला सुनाया।
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लेकर 1995 में पहला पिछड़ा वर्ग आयोग स्थापित किया गया था। इस आयोग के अध्यक्ष न्यायाधीश खत्री ने मराठा आरक्षण पर अपनी रिपोर्ट साल 2000 में पेश की थी। इससे सरकार संतुष्ट नहीं हुई तो न्यायाधीश आर. एम. बापट की अध्यक्षता में आयोग बनाया गया।
बापट ने राज्यभर में सर्वेक्षण कर साल 2008 में रिपोर्ट दी और इसमें मराठा समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने से इनकार कर दिया। कांग्रेस की सरकार ने आनन-फानन में मंत्री नारायण राणे की अध्यक्षता में समिति गठित की। इस समिति ने नौकरी व शिक्षा में मराठा समाज को 16% और मुसलिम समाज को 4% आरक्षण देने की सिफारिश की।
पृथ्वीराज चव्हाण सरकार ने 25 जून, 2014 को मंत्रिमंडल की बैठक में उन सिफारिशों को माना और राणे समिति की रिपोर्ट के अनुसार आरक्षण लागू करने के लिए 9 जुलाई, 2014 को संविधान की धारा 15(4), 15(5), 16(4) के अनुसार शैक्षणिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े (SEBS) प्रवर्ग का गठन भी किया। लेकिन सरकार के इस फ़ैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी गयी और 14 नवंबर, 2014 को हाई कोर्ट ने मराठा आरक्षण के फ़ैसले को स्थगित कर दिया।
इसे फडणवीस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी लेकिन अदालत ने स्थगनादेश हटाने से इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को फिलहाल स्थगित कर दिया है लेकिन कानूनी लड़ाई का मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है।
मराठा समाज का दख़ल
महाराष्ट्र में मराठा समाज का राजनीति में बड़ा दख़ल है लेकिन उसके बावजूद समाज के आरक्षण को हल करने में 40 साल लग गए। प्रदेश में मराठा समाज की जनसंख्या करीब 28% के आसपास है लेकिन सरकारी सेवाओं में मराठाओं का प्रतिनिधित्व 6.92% ही है। यही नहीं, यदि उच्च शिक्षा के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो वहां भी मराठा पिछड़ते जा रहे हैं।
उच्च शिक्षा में मराठा समाज का औसत 4.30% ही है और करीब 75% मराठा समाज खेती पर निर्भर है। खेती की बिगड़ती हालत से समाज की आर्थिक स्थिति तेजी से बिगड़ी और यही वजह रही कि बड़े पैमाने पर युवा इस आंदोलन के साथ खड़े हैं।
आरक्षण आंदोलन पर राजनीति
पिछली सरकार के दौरान जब यह आंदोलन चरम पर था, उस समय सत्ताधारी बीजेपी-शिवसेना के नेता यह आरोप लगाते रहे थे कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस इन युवाओं के पीछे खड़ी है। इस आरक्षण को देने का फैसला कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुआ था लिहाजा सत्ताधारी दल के नेता यह आरोप लगा रहे थे कि आंदोलन भड़काने में विरोधियों का हाथ है। लेकिन आज सत्ता बदल गयी है और शिवसेना के साथ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस सरकार में है। अब बीजेपी नेता अलग तरह के आरोप लगा रहे हैं।
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