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'अर्बन नक्सल' का आतंकवादी कनेक्शन! क्या है भीमा कोरेगाँव का सच?

पुणे के भीमा कोरेगाँव में 1 जनवरी 2018 को हुई हिंसा और उसके बाद उससे जुड़े लोगों की गिरफ़्तारी के पीछे अर्बन नक्सल और अब आतंकवादी नेटवर्क की जो बात पुलिस ने कोर्ट को बतायी है, उसके मायने काफ़ी गंभीर हैं। गंभीर इसलिए कि इस मामले की शुरुआत भीमा कोरेगाँव हिंसा से हुई थी और अब इसे आतंकवाद से जोड़ दिया गया है। हर साल जब 1 जनवरी को दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगाँव में जमा होते हैं, वे वहाँ बनाये गए 'विजय स्तम्भ' के सामने अपना सम्मान प्रकट करते हैं। यह विजय स्तम्भ ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस युद्ध में शामिल होने वाले लोगों की याद में बनाया था। इस स्तम्भ पर 1818 के युद्ध में शामिल होने वाले महार योद्धाओं के नाम अंकित हैं। ये वे योद्धा हैं जिन्हें पेशवाओं के ख़िलाफ़ जीत मिली थी। कुछ लोग इस लड़ाई को महाराष्ट्र में दलित और मराठा समाज के टकराव की तरह प्रचारित करते हैं और इसकी वजह से इन दोनों समाज में कड़वाहट भी पैदा होती रहती है। 2018 को चूँकि इस युद्ध की 200वीं वर्षगाँठ थी लिहाज़ा बड़े पैमाने पर लोग जुटे और टकराव भी हुआ। इस सम्बन्ध में शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के अध्यक्ष संभाजी भिडे और समस्त हिंदू अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे पर आरोप लगे कि उन्होंने मराठा समाज को भड़काया, जिसकी वजह से यह हिंसा हुई। भिडे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक हैं और एकबोटे भारतीय जनता पार्टी के नेता और विधायक का चुनाव लड़ चुके हैं। हिंसा के बाद दलित नेता प्रकाश आंबेडकर ने इन पर मुक़दमा दर्ज कर गिरफ़्तार करने की माँग की थी। 31 दिसंबर, 2017 को पुणे में एलगार परिषद सम्मेलन हुआ, उसके अगले दिन भीमा कोरेगाँव में हिंसा हुई और 28 अगस्त, 2018 को पुलिस ने वामपंथी कार्यकर्ता के पी. वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनो गोन्जाल्विस को गिरफ़्तार कर लिया।

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आरोप लगाया गया है कि इस सम्मेलन के बाद भीमा-कोरेगाँव में हिंसा भड़की। 24 जुलाई 2019 को पुणे पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में बॉम्बे हाईकोर्ट के सामने यह दावा किया कि गौतम नवलखा हिज़्बुल मुजाहिदीन और दूसरे कई कश्मीरी अलगाववादियों के संपर्क में थे। पुलिस के अनुसार, नवलखा कश्मीर के अलगाववादियों और उन सभी लोगों से जुड़े थे, जिनसे हिज़्बुल के रिश्ते थे। पुलिस की माँग को ख़ारिज़ करते हुए हाई कोर्ट ने नवलखा की गिरफ़्तारी पर लगी रोक अगले आदेश तक बढ़ा दी है और उन्हें सुरक्षा देने को कहा है। न्यायमूर्ति रंजीत मोरे और न्यायमूर्ति भारती डांगरे का खंडपीठ गौतम नवलखा की याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने की माँग की गई है। दिल्ली के रहने वाले 65 साल के गौतम नवलखा पेशे से पत्रकार रहे हैं। मानवाधिकार के मुद्दों पर नवलखा काफ़ी बेबाकी से अपने विचार रखते रहे हैं। पिछले दो दशकों में वह कई बार कश्मीर का दौरा कर चुके हैं।

के. पी. वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनो गोन्जाल्विस के नाम आने के बाद मीडिया में अर्बन नक्सल को लेकर एक बहस छिड़ गयी। इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और देवकी जैन, समाजशास्त्र के प्रो. सतीश पांडे और मानवाधिकार कार्यकर्ता माजा दारूवाला ने इस मामले में देश की शीर्ष अदालत में याचिका दायर कर इन मानवाधिकार एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की तत्काल रिहाई तथा उनकी गिरफ़्तारी की स्वतंत्र जाँच कराने का अनुरोध किया था। 1 अक्टूबर को दिल्ली उच्च न्यायालय ने नवलखा को नज़रबंदी से मुक्त कर दिया था। लेकिन 3 अक्टूबर को महाराष्ट्र सरकार ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 12 मार्च 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बॉम्बे हाईकोर्ट नवलखा की लंबित याचिका पर आठ सप्ताह में फ़ैसला दे। 12 जून 2019 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि नागरिक स्वतंत्रता के हिमायती कार्यकर्ता गौतम नवलखा के ख़िलाफ़ प्रथम दृष्टया कोर्ट ने कुछ नहीं पाया है। जस्टिस मोरे ने कहा, ‘उनके (नवलखा) ख़िलाफ़ कुछ नहीं है। प्रथम दृष्टया हमारा विचार है कि हमारे समक्ष सौंपे गए दस्तावेज़ों के आधार पर उनके ख़िलाफ़ कुछ नहीं है।’ लेकिन अतिरिक्त सरकारी वकील अरुण कुमार पाई ने कहा था कि कई अन्य दस्तावेज़ भी हैं जो नवलखा के लैपटॉप से बरामद हुए। वे उनके ख़िलाफ़ आरोपों को मज़बूत कर सकते हैं। पाँच जुलाई 2019 को हाईकोर्ट ने नवलखा की गिरफ्तारी पर 23 जुलाई तक अंतरिम रोक लगाई थी। अब पुलिस ने यह आरोप लगाया है कि गौतम नवलखा के सम्बन्ध आतंकवादी संगठनों से हैं। 

क्यों संदेह के घेरे में है पुलिस की जाँच प्रक्रिया?

इस मामले ने पुलिस की जाँच प्रक्रिया को संदेह के घेरे में ला खड़ा किया है। 6 सितम्बर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में महाराष्ट्र सरकार व पुलिस को कड़ी फटकार लगाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने पुणे पुलिस के एसीपी के बयानों पर कड़ा संज्ञान लेते हुए कहा कि वह अदालत पर आरोप लगा रहे हैं। कोर्ट ने कहा था कि जब मामले की सुनवाई अदालत में हो रही हो तो महाराष्ट्र सरकार अपनी पुलिस को ज़्यादा ज़िम्मेदार होने का निर्देश दे। 

इससे पहले बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2 सितम्बर 2018 को महाराष्ट्र पुलिस को भीमा कोरगाँव हिंसा के मामले में ग़िरफ्तार किए गए 5 सामाजिक कार्यकर्ताओं के संबंध में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के कारण फटकार लगाई थी। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में पुलिस ने गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के पास से ‘जब्त’ किए गए पत्रों से जुड़ी जानकारी मीडिया के साथ साझा की थी। उल्लेखनीय है कि नवलखा और उनके साथियों के तार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साज़िश से भी जोड़कर बताया गया था। यह कहा गया था कि इनके माओवादियों से रिश्ते हैं और ये ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों में शामिल हैं। सुरक्षा अधिकारियों ने कहा था कि नक्सली नेताओं के बीच जिन दो पत्रों का आदान-प्रदान हुआ था, उनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और गृह मंत्री राजनाथ सिंह की हत्या की योजना से जुड़ा ब्योरा था। इस पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने कड़ी आपत्ति की थी।

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पानसरे, दाभोलकर में भी फटकार

इस मामले के अतिरिक्त सामाजिक कार्यकर्ता गोविन्द पानसरे और डॉ. नरेंद्र दाभोलकर हत्या मामले में देरी या निष्क्रियता को लेकर उसे अदालत डाँट लगाती रही है। दाभोलकर हत्या मामले में तो अदालत ने अब सत्ताधारी दल और सरकार को भी फटकार लगाई है। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या 6 साल पहले हुई थी। 

अदालत ने कहा कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में एक के बाद एक चार ऐसे विचारकों की हत्याएँ एक सिलसिलेवार तरीक़े से हुई हैं जिनके विचार बहुसंख्यकों से भिन्न थे। इन हत्याओं के पीछे जो मक़सद नज़र आ रहा है वह है बहुसंख्यकों से हटकर व्यक्त किये गए विचारों को ख़त्म करने या यह बताने का कि इस तरह के विचार रखने वाले लोगों का यही अंजाम होगा। अदालत ने कहा कि चार विचारकों की हत्या का परिणाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होता है। इसलिए राज्य सरकार को इस ख़तरे को समझना चाहिए। अदालत ने यह भी सवाल उठाया था कि क्या राज्य सरकार राज्य में ऐसा ही चलते रहने देना चाहती है?

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संजय राय
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