आचार संहिता लग गयी, टिकटों का बँटवारा भी शुरु हो गया लेकिन भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दल अभी भी इस उलझन में हैं कि उनको भी कोई सीट मिलेगी या वे पिछले चुनाव की तरह इस बार भी सत्ता तक पहुँचने के लिए सीढ़ी मात्र रहेंगे। ये वही दल हैं, जिन्होंने गठबंधन टूटने पर विधान सभा चुनावों में बीजेपी के साथ मिलकर शिवसेना को पटकनी देने में मदद की थी।
बेगाने से सहयोगी दल
आज बीजेपी को शिवसेना का साथ मिलने पर ये सहयोगी दल बेगानों जैसे हो गये हैं। भाजपा-शिवसेना गठबंधन में सीटों के बँटवारे की घोषणा के साथ ही इन दलों ने अपनी हिस्सेदारी की बात कहना शुरु कर दी थी। फिर जब कोई जवाब नहीं मिला तो इन दलों के नेताओं ने संयुक्त बयान दिया कि अगर उनको हिस्सा नहीं मिला तो वे चौथा मोर्चा बना लेंगे।
वहीं कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस से समझौता नहीं होने की वजह से भारतीय रीपब्लिकन पार्टी, बहुजन महासंघ व एमआईएम ने वंचित आघाडी यानि तीसरे मोर्चे का गठन कर लिया है। राष्ट्रीय समाज पक्ष के अध्यक्ष व राज्य सरकार में मंत्री महादेव जानकर और बीजेपी के इशारे पर स्वाभिमानी शेतकरी संगठन को तोड़ कर अपनी अलग पार्टी बनाने वाले सदाभाऊ खोत ने कहा कि उन्हें कम से कम एक एक सीट तो दी जाए।
साल 2014 के चुनाव में महादेव जानकर बारामती से सुप्रिया सुले के ख़िलाफ़ चुनाव लड़े थे। सदाभाऊ खोत माढा सीट से विजय सिंह मोहिते पाटिल के सामने मैदान में उतरे थे। वहीं रामदास आठवले को सातारा सीट से उदयनराजे भोसले से लड़वाया गया था। बता दें कि इन तीनों ही नेताओं को पिछले चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।
आठवले की सबसे असहज स्थिति
भाजपा ने जानकर और खोत को विधान परिषद में भेजकर मंत्री पद दिया था जबकि आठवले को राज्य सभा में भेजकर केंद्रीय मंत्री की गद्दी दी। लेकिन इस बार तीनों नेताओं की स्थिति त्रिशंकु बनी हुई है। भाजपा के सहयोगियों में सबसे ज़्यादा असहज स्थिति केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले की है। उनके उपनाम आठवले का हिंदी में अर्थ ‘याद रहना है’ और इसी से तुकबंदी करते हुए उन्होंने बयान दिया कि
“
शिवसेना-भाजपा को मिलाने में मैंने इतनी मदद की लेकिन मुझे याद रखने की जगह भूल गए, जबकि मेरे नाम के साथ ही याद जुड़ा हुआ है।
भाजपा को अपनी याद दिलाते हुए आठवले इस बात को कहना नहीं भूलते की उन्हें कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस से भी प्रस्ताव मिले हैं। आठवले की इस बात की सच्चाई शायद भाजपा को पता है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता इस बात को नहीं मानते की उन्होंने ऐसा कोई प्रस्ताव भेजा है या दिया है। जानकारी के अनुसार, भाजपा के नेता अपने इन सहयोगी दलों के बयान को दबाव की राजनीति से ज़्यादा कुछ नहीं मानते और यही कारण है कि वे इनको गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।
आंबेडकर और कांग्रेस में नहीं बनी बात
उधर कांग्रेस से बात नहीं बनने पर भारिप बहुजन महासंघ और एमआईएम के गठबंधन ने प्रदेश की सभी सीटों से प्रत्याशी खड़े करने शुरु कर दिए हैं। महाराष्ट्र में 6 फ़ीसद दलित और 11 फ़ीसद मुस्लिम मतदाताओं को अपना वोट बैंक समझते हुए इस गठबंधन ने प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं।कांग्रेस -राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं ने इस गठबंधन से समझौता करने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन प्रकाश आंबेडकर सीटों की माँग पर अपने पत्ते खोल ही नहीं रहे थे। वह कभी संविधान बचाने तो कभी कांग्रेस आरएसएस के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई करेगी, चर्चा को इसी में उलझाए रहे थे।
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