वारदात गंभीर थी लेकिन उसमें अचानक ही किसी फ़िल्मी कहानी जैसा मोड़ आ गया। पिछले दिनों जब देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर के बाहर विस्फोटों से भरी एक एसयूवी मिली तो चिंता की रेखाएँ हर तरफ़ दिखी थीं। लेकिन इससे पहले कि पुलिस मामले की तह तक पहुँच पाती उस एसयूवी के मालिक की मौत ने इस कथा के रहस्य को काफ़ी गहरा दिया है। उस एसयूवी को वहाँ खड़ा करने का मक़सद क्या था और यह काम किसने किया, पुलिस के लिए इसे पता करने का काम अब और कठिन हो जाएगा।
लेकिन इस मामले का घटनाक्रम वारदात की याद दिला देता है जो 12 साल पहले मुकेश अंबानी के भाई अनिल अंबानी के साथ हुई थी। बेशक दोनों अलग-अलग और अलग तरह की घटनाएँ हैं लेकिन वारदात के बाद के घटनाक्रम में कुछ समानताएँ भी हैं। इसीलिए उसे याद करना भी ज़रूरी है।
यह बात 23 अप्रैल 2009 की है। अनिल अंबानी को अगली सुबह अपने बेल-412 चाॅपर से नवी मुंबई जाना था। इसके लिए कर्मचारी जब चाॅपर में ईंधन भरने गए तो उन्हें टंकी का ढक्कन खुला मिला। उन्होंने जब आगे जाँच की तो पाया कि किसी ने टंकी में कंकड़, पत्थर और मिट्टी भर दी थी। यानी इस स्थिति में अगर हैलीकाॅप्टर को उड़ाया जाता तो दुर्घटना होना लगभग तय था।
इसके बाद थाने में रिपोर्ट लिखाई गई और आपरधिक षड्यंत्र का मामला दर्ज कर दिया गया। इतना ही नहीं इसे लेकर रिलांयस-धीरुभाई अनिल अंबानी की तरफ़ से मुख्यमंत्री, राज्य के गृह मंत्री, मुख्य सचिव और पुलिस कमिश्नर को चिट्ठी भी लिखी गई।
रिपोर्ट दर्ज होते ही पुलिस ने मामले की जाँच शुरू कर दी। जाँच अभी कहीं पहुँच पाती इसके पहले ही एक दिन भरत की लाश विले पार्ले स्टेशन के पास रेल की पटरियों पर मिली।
शुरुआती ख़बरों में यह बताया गया कि उसकी पैंट की जेब से एक चिट्ठी मिली है जिसमें लिखा है कि रिलायंस के लोग उसके पास लगातार पूछताछ करने आ रहे हैं।
हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक ख़बर के अनुसार मुंबई पुलिस के ज्वाइंट कमिश्नर राकेश मारिया और रेलवे पुलिस के एडीशनल डीजीपी के पी रघुवंशी ने कहा कि यह आत्महत्या का मामला है और उसने चलती ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या कर ली है।
लेकिन अगले ही दिन आश्चर्यजनक ढंग से मुंबई पुलिस और रेलवे पुलिस दोनों के ही बयान बदल गए और यह कहा गया कि भरत बोर्गे की मृत्यु एक दुर्घटना का नतीजा थी। ऐसे चश्मदीद भी ढूंढ निकाले गए जिन्होंने उसे रेल की पटरियाँ पार करते समय ट्रेन से टकराते हुए देखा था। उसके पास मिलने वाली चिट्ठी की चर्चा एक सिरे से ही ग़ायब हो गई।
बाद में पुलिस ने इस मामले में दो लोगों पर आपराधिक षड्यंत्र का मुक़दमा चलाया। ये दोनों ही लोग एयरवर्क की श्रमिक यूनियन के सदस्य थे और उनका अपनी कंपनी के प्रबंधन से झगड़ा चल रहा था।
लेकिन अदालत में पुलिस की कहानी टिकी नहीं, न ही पुलिस कोई पुख्ता सबूत पेश कर सकी। लगभग डेढ़ साल बाद 30 नवंबर 2010 को मुंबई की निचली अदालत ने दोनों को ही रिहा कर दिया।
हम आज तक नहीं जान पाए कि वह षड्यंत्र क्या था और किसने किया था।
ताज़ा वारदात और 12 साल पहले की घटनाओं में कुछ चीजों का एक जैसा होना संयोग भी हो सकता है। लेकिन यह सवाल तो है ही कि ऐसे मामलों में रहस्य से पर्दा क्यों नहीं उठ पाता?
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार ऐसा नहीं होगा। यह मामला कुछ ज़्यादा गंभीर है।
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