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गो रक्षा का दम भरने वाली बीजेपी के शासन में कम क्यों हो गयीं गायें?

क्या गायें हमारे देश में सिर्फ़ राजनीति के लिए ही इस्तेमाल की जाती हैं या सरकार को वाक़ई उनकी चिंता है? महाराष्ट्र में पशु गणना के जो आँकड़े आए हैं उसके हिसाब से तो गाय या गोवंश राजनीतिक खेल ज़्यादा नज़र आता है और सरकार द्वारा उनके संवर्धन और संरक्षण के लिए किए गए उपाय कम। 

महाराष्ट्र में हर पाँच साल में पशु गणना होती है। पिछली गणना साल 2012 में हुई थी और उसके बाद साल 2017 में की जानी थी लेकिन उसमें दो साल की देरी हुई और यह गणना 2019 में हुई। राज्य सरकार ने पशु गणना के ये आँकड़े एक रिपोर्ट के साथ केंद्र सरकार को भेज दिए हैं। लेकिन आँकड़ों को देखें तो मुख्यतः गोवंश को लेकर स्थिति भयावह है। प्रदेश में खेती में प्रयोग किए जाने वाले बैलों की संख्या में 32% तथा दूध देने वाली गायों की संख्या में 13% की कमी आयी है। 

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यह कमी उन परिस्थितियों के बावजूद आयी जब पूर्ववर्ती देवेंद्र फडणवीस सरकार गोवंश वृद्धि की बड़ी-बड़ी बातें करती रही। यह बताती रही कि गायों की प्रजनन क्षमता वृद्धि करने के लिए अनेक योजनाएँ चलाई जा रही हैं। सरकार ने राज्य में अमेरिका और नीदरलैंड जैसे देशों में दूध के उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रयोग की जाने वाली तकनीक को इस्तेमाल किए जाने की भी बात कही। यही नहीं, सरकार ने यह भी कहा कि गायों के अंदर बायोटेक्नोलॉजी के ज़रिए X क्रोमोसोम की मात्रा बढ़ाई जाएगी, जिससे गाय सिर्फ़ मादा (गाय) ही पैदा करे। प्रदेश में गायों के मुक़ाबले बैलों या सांडों की संख्या ज़्यादा है और उसे कम करने के लिए नयी तकनीक को बढ़ा-चढ़ाकर बताया भी गया। लेकिन परिणाम इन सब दावों के विपरीत आए हैं। 
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वैसे, प्रशासन में बैठे अधिकारी यह कह रहे हैं कि ऐसा सूखे और बाढ़ की स्थिति की वजह से हुआ है। लेकिन अधिकारियों के इस दावे की पोल प्रदेश में भैंसों की संख्या में हुई वृद्धि ने ही खोल कर रख दी है। प्रदेश में सूखे और बाढ़ की इन विषम परिस्थितियों के बावजूद भैंसों की संख्या में 10 हज़ार की वृद्धि हुई है। 

राज्य में गोवंश हत्या बंदी क़ानून 4 साल से लागू है। प्रदेश में गोवंश के संरक्षण और संवर्धन के लिए हर ज़िले में एक गोशाला बनायी गयी है और उन्हें एक-एक करोड़ रुपये दिए गए हैं। इसके बावजूद गोवंश क्यों कम हो गए?
सूखे के दौरान जानवरों को बचाने के लिए फडणवीस सरकार ने सूखा पीड़ित किसानों के पशुओं के लिए चारा शेल्टर या कैम्प बनाने का काम शुरू किया था। दावा किया जाता था कि पूरे प्रदेश में कुल 1,653 कैम्प बनाए गए हैं तथा उनमें सरकार की तरफ़ से जानवरों के रहने की व्यवस्था तो की ही जाती है, साथ ही इन पशुओं को चारा-पानी भी मुहैया कराया जाता है। ये चारा छावनियाँ स्वयं सेवी संस्थाओं के माध्यम से संचालित किए जाते थे जिनमें बड़े जानवरों को 18 किलो और छोटे जानवरों को 9 किलो चारा देने का प्रावधान था। इस चारे को मुहैया कराने के लिए चारा कैम्पों के संचालकों को पैसा दिया जाता था। वैसे यह अलग बात है कि सूखाग्रस्त बीड ज़िले में जो सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता चारा छावनियाँ चलाते थे वे ज़िला कलेक्टर कार्यालय की कार्रवाई के दौरान बड़े पैमाने पर घोटाला करते हुए पाए गए थे। 
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सूखाग्रस्त क्षेत्रों में इस प्रकार के चारा घोटाले बहुत से हुए हैं। जो संस्थाएँ ये चारा छावनियाँ चलाती हैं उन्हें चारे का पैसा छावनी में जानवरों की संख्या के आधार पर प्रदान किया जाता था। ये संस्थाएँ अपने रजिस्टर में जितने जानवर दिखाती थीं हक़ीक़त में उतने पशु छावनियों में हुआ नहीं करते थे। इस चारा घोटाले पर सरकार ने लीपापोती कर दी। लेकिन ये सवाल तो खड़े हो ही गए कि जो सरकार गोवंश को लेकर इतनी बड़ी-बड़ी बातें करती है वह इस तरह की अवहेलना कैसे कर सकती है? तमाम योजनाओं के बाद भी गोवंश में वृद्धि की बजाय घाटा हो रहा है।

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संजय राय
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