'आया राम गया राम' मुहावरा तो सुना ही होगा! एक राजीनिक घटनाक्रम इतना रोचक हुआ कि यह मुहावरा बन गया। उसी राजनीतिक घटनाक्रम के बाद देश में दल बदल विरोधी क़ानून आया। अब इसी क़ानून पर इसलिए चर्चा हो रही है कि महाराष्ट्र में शिवसेना के कई नेता बाग़ी हो गए हैं। शिवसेना के ये बागी नेता क्या उद्धव ठाकरे सरकार को गिरा देंगे और किसी अन्य दल में विलय कर लेंगे या फिर दल बदल विरोधी क़ानून के तहत ये अयोग्य घोषित किए जाएंगे?
वैसे यह तो तय करेंगे विधानसभा के उपाध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट इसकी समीक्षा करेगा, लेकिन इस बारे में नियम क्या कहता है? क्या नियमानुसार बागी अपनी जगह पर सही हैं और इस वजह से उद्धव ठाकरे सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी होंगी?
यह समझने के लिए दल बदल विरोधी क़ानून को समझना ज़रूरी है। मौजूदा क़ानून क़रीब चार दशक पहले से काफ़ी अलग है। मौजूदा दल बदल विरोधी क़ानून की बारीकियाँ जानने से पहले यह जान लें कि यह क़ानून आया कब था और शुरुआत में क्या प्रावधान थे।
क़ानून बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। हरियाणा के एक विधायक थे गया लाल। उन्होंने 1967 में एक ही दिन में तीन बार अपनी पार्टी बदली। इसके बाद पार्टी बदलने के कई मामले आए। विधायकों के पाला बदलने से कई सरकारें समय से पहले ही गिर गईं, कई जगहों पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया। ऐसे मामले बढ़े तो 1985 में संविधान के 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से दल बदल विरोधी कानून पारित किया गया। इसके साथ ही भारतीय संविधान में ‘दसवीं अनुसूची’ जोड़ी गयी।
यह क़ानून लोकसभा और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू होता है। इस क़ानून में प्रावधान किया गया कि एक विशेष राजनीतिक दल के उम्मीदवारों के रूप में चुने गए सदस्यों को स्वेच्छा से पार्टी बदलने, मतदान करने या पार्टी के किसी भी व्हिप के विपरीत सदन में मतदान से दूर रहने पर अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
क़ानून के अनुसार सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य क़रार देने संबंधी निर्णय लेने का अधिकार है। हालाँकि 2003 में संविधान के 91वें संशोधन से दल बदल विरोधी क़ानून में कुछ बदलाव किया गया।
कानून में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें दल-बदल करने पर भी अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकेगा। दल-बदल विरोधी क़ानून में एक शर्त के साथ एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है। शर्त यह है कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों। ऐसे में न तो दल बदल रहे सदस्यों पर क़ानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर। यानी ऐसे सदस्य अयोग्य क़रार नहीं दिए जा सकते हैं।
इन्हीं प्रावधानों के तहत 2019 में तेलंगाना में कांग्रेस के कई विधायक टीआरएस में शामिल हो गए थे और उन पर दल बदल विरोधी क़ानून लागू नहीं हुआ था।
2019 के मध्य में तेलंगाना में कांग्रेस के 18 में से 12 विधायकों के समूह ने सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति यानी टीआरएस में विलय कर लिया था। विधानसभा के स्पीकर ने इन विधायकों की मांग मानते हुए टीआरएस में उनके विलय को मान्यता दे दी थी।
ऐसा ही मामला गोवा में भी आया था। 2019 में ही कांग्रेस के 10 विधायक पार्टी का दामन छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए थे। ऐसा तब हुआ था जब 2017 के चुनावों में कांग्रेस 40 सदस्यीय सदन में 17 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, लेकिन सरकार नहीं बना सकी थी। 13 सीटें जीतने वाली बीजपी ने कुछ निर्दलीय विधायकों और क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन कर सरकार बना ली थी।
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