क्या बीजेपी ज्योतिरादित्य सिंधिया की पार्टी से विदाई चाहती है? सवाल अटपटा है, लेकिन जवाब ‘सहज’ है। ऐसे उपक्रम (आज़िज आकर सिंधिया स्वयं भाजपा को अलविदा कह दें, उन्हें इसके लिए मजबूर करने के कथित उपक्रम बीजेपी से होते या किये जाते) दिखलाई पड़ने लगे हैं।
11 मार्च 2020 को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा ज्वाइन की थी। क्यों ज्वाइन की थी, मध्य प्रदेश और देश को मालूम है। भाजपा ज्वाइन करने के ठीक एक दिन पहले होली वाले दिन 10 मार्च को ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस को छोड़ने का ऐलान किया था। ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों द्वारा कांग्रेस को छोड़े और भाजपा में शामिल हुए आज 3 साल 3 महीने से कुछ ज़्यादा का वक़्त बीत गया है। मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव में चार-साढ़े चार महीने और एनडीए सरकार के तय कार्यकाल के हिसाब से आम चुनाव में 10 महीनों का समय शेष रह गया है।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के ऐन पहले राज्य भाजपा में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। राज्य और केन्द्र सरकार की कथित एंटी-इनकम्बेंसी के साथ भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई, क़ानून व्यवस्था के बुरे हालातों सहित अनेक मुद्दों को लेकर भाजपा परेशान है। घिरी हुई है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चेहरे की कम हुई चमक, उनके काबीना सदस्यों में खुले लड़ाई-झगड़े, संगठन की कमजोरी, कार्यकर्ताओं की हताशा, जबरदस्त अंतर्द्वंद्व के साथ-साथ कर्नाटक में मोदी के चेहरे को न मिल पायी तवज्जो ने भी पार्टी के भीतर हलचल मचाई हुई है। राज्य भाजपा में फिलहाल सिंधिया एवं उनके साथ आए पूर्व कांग्रेसी भारी खींचतान का बड़ा सबब बने हुए हैं।
सिंधिया को मूर्ख और नामर्द कहा गया
खींचतान और अंतर्द्वंद्व का आलम यह है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपाइयों ने मूर्ख और नामर्द तक कह डाला है। उनके साथ केसरिया दुपट्टा डालकर ‘कमल’ थामने वालों को बीजेपी के सीनियर लीडरों ने भरे मंच से (सिंधिया समर्थक मंत्रियों एव अन्य नेताओं की मौजूदगी के बीच) विभीषण करार दिया है। बीजेपी के लोगों ने ही पार्टी फोरम और फोरम के बाहर भी सिंधिया समर्थक मंत्रियों के तथाकथित भ्रष्टाचार को निशाने पर लिया।
भोपाल से लेकर दिल्ली तक के रणनीतिकार, सिंधिया एवं उनके समर्थकों के खिलाफ पार्टी की ‘बगावत’ पर चुप्पी साधे हुए हैं।
जहां-जहां सिंधिया समर्थक हैं, वहां स्पष्ट तौर पर ‘दो भाजपा’ हैं। भाजपा के अधिकारिक पार्टी कार्यालय/कार्यक्रमों में सिंधिया समर्थक या तो जाते ही नहीं है, और ‘असली भाजपा वाले’ अनेक बार बुलाते भी नहीं हैं।
सिंधिया समर्थक विधायक और नेताओं के जिलों/अपने क्षेत्र में पृथक ‘पार्टी कार्यालय’ हैं। सन्निकट विधानसभा चुनाव के मान से यह सब न तो सिंधिया और उनके समर्थकों के लिए अच्छा है, और न ही बीजेपी के लिए, बावजूद इसके सामंजस्य बैठाने एवं सुलह कराने की पहल होती नज़र नहीं आयी है।
सिंधिया को दो अंकों में टिकट मिलना मुश्किल!
सिंधिया की कांग्रेस से खुली बगावत के समय कुल 22 कांग्रेसी विधायक बीजेपी में गए थे। उपचुनाव में सभी को भाजपा ने टिकट से नवाजा था। इनमें 15 जीत पाये थे। जीते लोगों में ज़्यादातर को शिवराज काबीना में जगह मिली। महत्वपूर्ण विभाग मिले। करारी हार के बाद भी ‘डील’ के तहत शिवराज सरकार ने सिंधिया समर्थकों को निगम-मंडलों में एडजस्ट किया। मंत्री और राज्यमंत्री के दर्जों से नवाज़ कर लालबत्ती कार, गाड़ी-बंगला एवं अन्य सुविधाएं मुहैया कराईं। स्वयं ज्योतिरादित्य सिंधिया को बैकडोर से बीजेपी ने (मध्य प्रदेश से राज्यसभा का टिकट देकर) संसद भेजा। केन्द्र में मंत्री बनाया।
सिंधिया समर्थकों के टिकट कटना तय!
भाजपा एवं आरएसएस की अपनी ग्राउंड रिपोर्टें, चुनावी सर्वे तथा केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा मध्य प्रदेश को लेकर कराई गई चुनावी हालातों से जुड़ी ‘खोजबीन’ में सिंधिया और उनके समर्थकों के हालात खस्ता होने की ‘कहानी बयां’ करने वाली होने की सुगबुगाहट है। भाजपा के सूत्र कह रहे हैं, ‘सिंधिया समर्थक मौजूदा विधायकों में चार-पांच का पत्ता कटना तय है। उपचुनाव में हारे सिंधिया समर्थकों में भी अधिकांश को भी चुनाव लड़ने का चांस देकर पार्टी हार का ख़तरा मोल नहीं लेगी।’
शायद यही वजह है कि टिकट कटने और आगे की राजनीति पर ब्रेक के भय से सिंधिया समर्थक कांग्रेस में तेजी से वापसी कर रहे हैं। आधा दर्जन से ज्यादा कद्दावर सिंधिया समर्थक अब तक कांग्रेस में लौट चुके हैं, और कई ऐसे नेताओं की ‘बातचीत’ कमलनाथ और दिग्विजय सिंह से चल रही है।
विधानसभा की 40 तक टिकटें ली हैं सिंधिया ने
ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस में ‘रूतबे’ का आलम जुदा था। विधानसभा के चुनावों में मध्य प्रदेश कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के वे मुखिया तक बनाये जाते रहे। ग्वालियर-चंबल संभाग में टिकटों का बंटवारा सिंधिया के मन के अनुसार हुआ करता था। कांग्रेस आलाकमान ग्वालियर-चंबल में टिकटों के बंटवारे में एकतरफा ज्योतिरादित्य का ध्यान रखती थी। यहां के अलावा मालवा-निमाड़, बुंदेलखंड, महाकौशल, विंध्य और मध्य भारत क्षेत्रों में भी सिंधिया की पसंद-नापसंद पर गौर किया जाता था।
कांग्रेस खेमे में रहते हुए सिंधिया कोटे में दो दर्जन टिकट (कांग्रेस की बगावत के समय 22 विधायक टूटकर आये थे) पक्का हुआ करते थे। कई बार यह आंकड़ा 30 और 40 तक भी पहुंचा है।
75 साल के राजनीतिक इतिहास में 50 साल कांग्रेस के
आजादी के बाद 75 सालों के राजनीतिक दौर में ज्योतिरादित्य के पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया ने 30 साल से कुछ ज्यादा समय तक कांग्रेस में अपनी राजनीति को चमकाया। माधवराव सिंधिया की असामयिक मृत्यु के बाद कांग्रेस ने बिना देर किए ज्योतिरादित्य को उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाकर छोटी उम्र में सांसद बनाया। पार्टी में उच्च स्थान से नवाजा। पूछ-परख बनाये रखी।
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ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस में 20 साल बनाम भाजपा में 3 साल के सफर को क़रीब से देखने वाले राज्य के वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक राकेश पाठक ने ‘सत्य हिन्दी’ से कहा, ‘मैं पहले दिन से कह रहा हूं, जूनियर सिंधिया ने बीजेपी ज्वाइन करके अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल कर ली है। मेरी बात सौ टका सही साबित हो रही है।’
वे अपनी बात को आगे बढ़ाकर कहते हैं, ‘भाजपा सिंधिया और उनके साथ आए समर्थकों का इस कदर (नामर्द, मूर्ख और विभीषण कहकर) अपमान करेगी। राज्य इकाई से लेकर केन्द्रीय नेतृत्व तक चुप्पी साधे बैठे रहेगा, उम्मीद नहीं की थी।’
सिंधिया के चेहरे पर अब वह चमक और बात एवं भाषणों में वह खनक कदापि नहीं दिखलाई पड़ती जो कांग्रेस में रहते हुआ करती थी।
भाजपा के जलसों और मंत्री होते हुए भी सिंधिया, सदन के भीतर एवं संसद परिसर के ‘कोनों में सिमटे-सिमटे’ और ‘खोये-खोये’ से दिखलाई पड़ते हैं।
खामोश बने रहना ही विकल्प है?
प्रेक्षकों का अभिमत है, फिलहाल ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास खून का घूंट पीकर और अपमान सहते हुए भाजपा में बने रहने एवं सही समय का इंतजार करते रहने के सिवाय दूसरा विकल्प बचा नहीं है। राज्य विधानसभा के चुनाव में बहुत थोड़ा सा वक्त शेष है, ऐसे में क्षेत्रीय दल बना लेना ज्यादा बड़ा आत्मघाती कदम साबित हो जायेगा।
प्रेक्षक कहते हैं, ‘वर्तमान राजनीतिक हालात आगे भी बने रहे तो इस बात की पूरी संभावना है कि सिंधिया को अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए देर-सबरे राज्य में अपना अलग दल बनाना ही पड़ेगा।’
अपने तत्कालिक फायदे के लिए ‘ऑपरेशन लोटस अभियान’ के ज़रिये बीजेपी क्या नेताओं का इस्तेमाल करना जानती है? उमा भारती ने 230 सीटों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में 173 सीटों की अभूतपूर्व विजय भाजपा को दिलाई थी। जीत का अभूतपूर्व इतिहास रचा था। उमा की अगुवाई में बीजेपी ने कांग्रेस को 38 के स्कोर पर समेटकर रख दिया था। दिग्विजय सिंह को मिस्टर बंटाधार का तमगा ‘टीम उमा’ ने दिया था। मिस्टर बंटाधार 20 बरस बाद भी दिग्विजय सिंह से चिपका हुआ है। लेकिन उमा भारती आज हाशिये पर हैं।
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वसुंधरा राजे को मिली तवज्जो!
सिंधिया परिवार के लोगों को भाजपा की राजनीति में यदि सबसे ज्यादा तवज्जो किसी को मिली है तो उसमें वसुंधरा राजे सिंधिया को माना जा सकता है। राजस्थान में उनके प्रभाव के अलावा पार्टी के प्रति समर्पण एवं लोकप्रियता ने राजनीतिक तौर पर भाजपा में उन्हें जीवित रखा हुआ है। हालांकि पार्टी की कमान नरेंद्र मोदी-अमित शाह के हाथों में आने के बाद वसुंधरा राजे भी स्ट्रगल कर रही हैं।
आरएसएस की संस्थापकों में शुमार रहीं स्वर्गीय विजया राजे सिंधिया की छोटी बिटिया यशोधरा राजे सिंधिया के हाल भी सबके सामने हैं। शिवपुरी से पार्टी विधायक के अलावा वे शिवराज सरकार में मंत्री हैं, लेकिन उनके अपने बहुत सारे दर्द हैं। समय-समय पर उनके दर्द भी छलकते हैं।
सिंधिया ने मोदी से ‘मन की बात की’
सुगबुगाहट है कि बीते जून महीने की 28 तारीख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भोपाल में चुनावी आगाज़ के लिए आये और वापसी में ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने साथ जहाज में लेकर उड़े तो ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पीएम मोदी से खुलकर ‘मन की बात’ की। तमाम स्थितियों से अवगत कराया। अपना ‘दर्द और मर्म’ पार्टी प्रमुख के समक्ष बयां किया।
ग्वालियर-चंबल की राजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक राकेश अचल ने सिंधिया की कथित राजनीतिक फज़ीहत से जुड़े सवाल के जवाब में ‘सत्य हिन्दी’ से कहा, ‘ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कुल्हाड़ी पैर पर नहीं, अपना पैर ही कुल्हाड़ी पर दे मारा है।’विजयाराजे सिंधिया और माधव राव सिंधिया को कवर करते रहने वाले, जर्नलिस्ट अचल आगे कहते हैं, ‘ज्योतिरादित्य एक्सपोज हो गए हैं।’ अचल ने कहा, ‘बीते तीन सालों में सिंधिया ने भाजपा में अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने की जगह, संपत्ति को सहजने में गवां दिए हैं। ग्वालियर और गुना-शिवपुरी की जमीनों और संपत्तियों से जुड़े पुराने विवादों को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सुलझा लिया है। विधिसंवत अपने और परिवारजनों के नाम करा लिया है। मगर इस उपक्रम में बीजेपी में अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने का हाथ लगा सुनहरा अवसर गवां दिया।’
राकेश अचल यह भी कहते हैं, ‘सिंधिया राजवंश के मध्य प्रदेश के चश्मोचिराग रहे माधवराव सिंधिया और स्वयं ज्योतिरादित्य सिंधिया राज्य की राजनीति के लिए बने ही नहीं हैं। केन्द्र की राजनीति से जुड़ा डीएनए इनकी रगों में बहता रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा ज्वाइन करके बड़ी भूल की है, इसका पश्चाताप उन्हें करना ही पड़ेगा।’
जयवर्धन बोले- ‘बिका माल वापस नहीं होगा’
ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ आये समर्थक भले ही कांग्रेस में लौट रहे हैं, लेकिन फिलहाल तो सिंधिया के लिए कांग्रेस में वापसी का रास्ता पूरी तरह से बंद नजर आ रहा है। कांग्रेस खेमा और उसके लोग हर दिन सिंधिया एवं उनके समर्थकों पर तीखे राजनीतिक प्रहार कर रहे हैं।
कांग्रेस के चुनाव अभियान का आगाज़ करने आयीं प्रियंका गांधी ने बिना नाम लिए ज्योतिरादित्य एवं उनके साथ गए कांग्रेसियों को जमकर आड़े हाथों लिया था। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह भी माकूल अवसर पर ज्योतिरादत्य पर ‘राजनीतिक चोट’ करते हैं।
अपने पिता दिग्विजय सिंह की अगुवाई में राजनीति का ककहरा सीख कर ‘जूनियर पॉलीटिकल कॉलेज’ में ‘पहुँच चुके’ जयवर्धन सिंह ने भी सिंधिया पर दिलचस्प कटाक्ष कर कांग्रेस का रूख़ साफ़ कर दिया है। सिंधिया की चुटकी लेते हुए जयवर्धन ने कहा है, ‘कांग्रेस में बिका हुआ माल अब वापस नहीं होगा।’
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