महाराष्ट्र में चुनावी लड़ाई में जिस इमोशनल मुद्दे की कमी थी उसे अब संविधान का मुद्दा भरते हुए नज़र आ रहा है। भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे पर ख़तरों की खिलाड़ी बन रही है और वो कांग्रेस की पिच पर फंसती नज़र आ रही है।
महाराष्ट्र में इस समय 288 विधानसभा सीट के लिए 8000 से ज़्यादा कैंडिडेट, 12 से ज़्यादा पार्टियाँ हैं। सबसे कठिन चुनाव होने के बाद भी चुनाव का माहौल बन नहीं रहा था क्योंकि लोकसभा चुनाव की तरह कोई बड़ा मुद्दा बनते हुए नजर नहीं आ रहा था। लाड़ली बहना योजना का लाभ जिनको मिल रहा है वो बस खुश है, वोट अभी डालना बाक़ी है। सरकार के कई काम हैं लेकिन फिर भी ये कहना कठिन है कि लोग उससे खुश है। इतना ही नहीं, ‘गद्दार’ और पार्टी तोड़ने का मुद्दा भी नहीं बन पा रहा। असल में लोग इतने सारे दल और कैंडिडेट के कारण कन्फ्यूज्ड हैं इसलिए चुप भी हैं और मतदान के दिन ही तय करने वाले हैं कि किसे वोट दें। लेकिन इस बीच बीजेपी ने एक बड़ा ख़तरा मोल ले लिया है और आरक्षण के साथ संविधान के मुद्दे पर तेजी से रिएक्ट करके कांग्रेस का फायदा कर दिया है।
राहुल गांधी ने सोची समझी रणनीति के तहत महाराष्ट्र में अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत नागपुर में संघ मुख्यालय के बाजू में एक सभागार में संविधान सम्मेलन करके आरक्षण और संविधान का मुद्दा छेड़ दिया। साथ ही इसने संघ को सीधी चुनौती देते हुए जातिगत जनगणना की बात कर दी। राहुल के इस हमले से आरएसएस और भाजपा तिलमिला उठी है और देवेंद्र फणनवीस ने इस तरह की बात करने वालों को अर्बन नक्सल बोल दिया। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि सौ से ज्यादा ऐसे संगठन हैं जो ये साजिश कर रहे हैं। मीडिया के लिए तो ये मसाला ख़बर है लेकिन ये दांव उल्टा पड़ सकता है।
हरियाणा चुनाव के बाद कहा जा रहा था कि दलित इस बार महाविकास आघाडी के साथ नहीं जायेगा, लेकिन ये बहस फिर से महाराष्ट्र में दलितों को एकजुट कर सकती है। महाराष्ट्र में दलितों की संख्या क़रीब 13 प्रतिशत है और पिछली बार बड़ी संख्या में ये भाजपा के विरोध में गया था। लोकसभा चुनाव में राज्य में दलित, मुस्लिम और मराठा गठजोड़ हो गया था। वो फिर से कंसोलिडेट होता दिखने लगा है।
इस तरह मराठा और मुस्लिम में तो विरोध दिख ही रहा है और अब दलित को नक्सल बताकर बीजेपी ने गलत दांव खेल दिया है।
ये सच है कि महाराष्ट्र में दलित आंदोलन और राजनीति की जड़ें बहुत गहरी हैं, ये भी सच है कि कुछ संगठनों पर नक्सल होने का आरोप भी लगता रहा है लेकिन इसका फायदा बीजेपी को होने के बजाय नुक़सान ही होगा। ये संगठन राज्य में अंदर तक पैठ रखते हैं और घऱ-घर तक संविधान विरोध का नैरेटिव फिर से फैला सकते हैं।
मराठवाड़ा, पश्चिम महाराष्ट्र और कोंकण के दौरे के बाद मेरा पहला आकलन यही है कि चुनाव अभी चढ़ा नहीं है और बहुत से कैंडिडेट होने के कारण लोग अभी उदासीन हैं और अब तक त्यौहार का मूड बना हुआ है। लोगों के उदासीन होने के कारण मतदान कम भी हो सकता है। बहुत से कैंडिडेट होने के कारण मतदान बँटेगा और हार जीत का अंतर बहुत कम होगा। ऐसे में ना तो सरकार के पक्ष में लहर है ना विरोध में, लेकिन अगर ये दलित, मुस्लिम, मराठा का जाति कार्ड फिर से चल गया तो नुकसान महायुति को ही होगा।
मराठावाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र में शरद पवार का गहरा असर दिखाई दे रहा है। शरद पवार लगातार घूम रहे हैं और उनके कैंडिडेट भी बेहतर हैं। उनकी पार्टी में टूट होने के कारण उनको नये चेहरे देना आसान हो गया, इसलिए सबसे कम बगावत उनकी पार्टी में ही है। शऱद पवार चुनाव में अप्रत्याशित परिणाम दे सकते हैं। पवार की लोकप्रियता का फायदा कांग्रेस और शिवसेना दोनों को मिलता हुआ दिख रहा है।
उद्धव ठाकरे की शिवसेना यूबीटी का घर अभी तक बहुत व्यवस्थित नहीं हो पाया है। मजबूत कैंडिडेट और धन की कमी के कारण उनका प्रचार अब तक जोर नहीं पकड़ा है… हालांकि उद्धव कुल 46 रैली करने वाले हैं, जिसके साथ माहौल बनेगा। उनकी भी आस अब तक दलित, मुस्लिम, मराठी वोटों के गठजोड़ पर ही है। उद्धव ठाकरे के नेता मानते हैं कि पार्टी को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है और उसके पास अभी बेहतर मैनेजर नहीं हैं लेकिन फिर भी पार्टी का परफॉर्मेंस ठीक होगा और चालीस से ज़्यादा सीटें आ सकती हैं।
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