2014 जैसे नहीं हैं हालात
2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी जिस तरह से देश के अलग-अलग राज्यों में गठबंधन करने में सफल रही थी, वैसा आज होता नहीं दिख रहा है। इसके अलावा, उस समय के बहुत से सहयोगी दलों ने या तो उसका साथ छोड़ दिया है या छोड़ने की तैयारी में हैं। 1984 से पूर्व देश में कांग्रेस विरोधी या तीसरे मोर्चे के रूप में गठबंधन बनते थे लेकिन अब तस्वीर बदल गई है। अब मुख्यत: दो ध्रुवीय गठबंधन हो गए हैं। इस बार सत्ता की धुरी में बीजेपी है लिहाजा कांग्रेस उसके ख़िलाफ़ अपने कुछ सहयोगियों को लेकर महागठबंधन बनाने की जद्दोजेहद में लगी हुई है।
कांग्रेस की कोशिश है कि कोई तीसरा मोर्चा नहीं बने और बीजेपी गठबंधन से उसकी लड़ाई आमने-सामने की हो, लिहाजा उसके नेता राज्यवार गठबंधन के फ़ॉर्मूले पर काम कर रहे हैं।
अपनों ने ही छोड़ दिया था साथ
महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ उसकी परंपरागत सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और उसके प्रमुख शरद पवार खड़े हैं। साल 2014 में भी इन दोनों दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा था लेकिन तब उनके वे साथी भी उनसे अलग हो गए थे जो शिवसेना-बीजेपी की दक्षिणपंथी राजनीति से दूरी बनाकर ख़ुद को प्रगतिशील कहते रहे हैं। इन दलों के दूरी बनाने का एक कारण राज्य में 15 साल से चल रही कांग्रेस-एनसीपी की सरकार और केंद्र की यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ शुरू हुआ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी रहा।
इस बार ना तो मोदी लहर है और ना ही सरकार के पास विकास को लेकर गिनाने को कुछ ख़ास है। किसान सरकार के ख़िलाफ़ हैं और बेरोजगारी चरम पर है। ऐसे में बीजेपी-शिवसेना के लिए 48 में से 42 सीटों का जादुई आँकड़ा छू पाना बहुत टेढ़ी खीर साबित होगा।
इस बार ‘आप’ भी मैदान में नहीं
जन आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी भी इस बार मैदान में नहीं रहने वाली है। ‘आप’ के कई प्रत्याशियों ने पिछली बार के लोकसभा चुनावों में अच्छे वोट हासिल किए थे। इससे बड़ा काम ‘आप’ ने जो किया था, वह था कांग्रेस गठबंधन के ख़िलाफ़ माहौल बनाने का, जिसका फ़ायदा बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को मिला था।
अठावले की पकड़ हुई कमज़ोर
तब रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया (आरपीआई) का रामदास अठावले धड़ा भी नरेंद्र मोदी के साथ चुनाव में खड़ा हो गया था। जबकि यह हमेशा से प्रदेश में बीजेपी-शिवसेना को ब्राह्मणवादी ताक़तें कहकर इसका विरोध करता था। अठावले अभी भी एनडीए में ही हैं लेकिन भीमा कोरेगाँव, एससी-एसटी एक्ट में बदलाव और अब सवर्ण आरक्षण ने दलितों के बीच उनकी पकड़ को ढीला कर दिया है।
मनसे से गठबंधन चाहती है एनसीपी
एनसीपी एक बड़े चुनावी काम में जुटी है और यह काम है राज ठाकरे की महाराष्ट्र नव निर्माण सेना (मनसे) को क़रीब लाने का। मनसे के साथ किस प्रकार का गठबंधन होगा, इसकी तस्वीर तो फिलहाल स्पष्ट नहीं है लेकिन वह शिवसेना के गढ़ में सेंध लगा सकती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
बीजेपी-शिवसेना गठबंधन तय तो माना जा रहा है लेकिन विगत 4 सालों में शिवसेना के समर्थकों में केंद्र व राज्य सरकार के ख़िलाफ़ जो कड़वाहट आई है, उसका फ़ायदा मनसे को मिल सकता है।
राजू शेट्टी ने छोड़ा साथ
एक बड़ा नाम जो एनडीए के साथ 2014 के चुनाव में जुड़ा था, वह सांसद राजू शेट्टी का था। शरद जोशी के शेतकरी (किसान) संगठन के जुझारू किसान नेता राजू शेट्टी ने स्वाभिमानी शेतकरी संगठन नाम से अपनी पार्टी का गठन किया है। उनकी पार्टी का प्रभाव कोल्हापुर व आसपास के कई जिलों में है।
बीजेपी को हो सकता है नुक़सान
मोदी व फडणवीस सरकार पर किसान विरोधी होने का आरोप लगाते हुए शेट्टी इस गठबंधन को छोड़कर यूपीए के साथ हो गए हैं। शेट्टी प्रदेश में किसान आंदोलनों का प्रखर नेतृत्व करते हैं जिसकी वजह से किसानों पर उनकी पकड़ अच्छी है और आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उनका साथ ना मिलने का ख़ामियाजा दिखाई भी दे रहा है।
मज़बूती से लड़ रहे कांग्रेस-एनसीपी
इस सबके अलावा एक महत्वपूर्ण बात जो कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के पक्ष में जाती है वह यह कि इस चुनाव में इनके गठबंधन को लेकर कोई रार नहीं है। 15 साल तक प्रदेश में जब इस गठबंधन की सरकार थी तो कांग्रेस-एनसीपी में इस बात की होड़ लगी रहती थी कि बड़ा भाई कौन। हालाँकि हर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ज़्यादा सीटें जीतकर बड़े दल के रूप में सामने आई लेकिन स्थानीय निकाय चुनावों में एनसीपी से हमेशा उसे अलग रहकर लड़ाई लड़नी पडी है।
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