भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) लोकसभा चुनाव जीतने के हर हथकंडे आजमा रही है, जिसमें से एक पिछड़े वर्ग को विभाजित कर उसके एक तबक़े का वोट खींचना भी शामिल है। सरकार के निशाने पर कुर्मी, यादव और एझवा जैसी 10 जातियाँ हैं, जिनका राजनीतिक दबदबा है और मुख्य रूप से ये जातियाँ ओबीसी हितों के लिए लड़ती रहती हैं।
ऐसा लगता है कि बीजेपी ने 2019 का दूसरे चरण का चुनाव ख़त्म होते-होते मान लिया कि वह इस चुनाव में कुर्मी, यादव, कोइरी, निषाद जैसी प्रमुख जातियों का वोट नहीं पाने जा रही है। ओबीसी में थोड़ी अच्छी स्थिति होने के कारण इन जातियों के विद्यार्थी व अध्यापक मोदी सरकार के 5 साल के कार्यकाल में बहुत मुखर रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से स्कॉलरशिप मिलने, विश्वविद्यालयों में रोस्टर, विभिन्न सरकारी संस्थानों में ओबीसी के प्रतिनिधित्व को लेकर यह तबक़ा मुखर रहा है। ऐसे में चुनाव के पहले से ही सरकार ने तैयारी कर ली थी कि ओबीसी की इन प्रमुख मुखर जातियों को अलग-थलग कर दिया जाए।
ओबीसी आरक्षण को विभाजित करना उसमें से अहम है। सरकार ने 2 अक्टूबर 2017 को जस्टिस (सेवानिवृत्त) जी रोहिणी की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया, जिससे ओबीसी की विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व जाँचा जा सके। लोकसभा चुनाव के पहले जब इस आयोग का कार्यकाल बढ़ाया गया तो यह साफ़ हो गया कि सरकार चुनाव के पहले ओबीसी में राजनीतिक रूप से सक्रिय जातियों को छेड़ने के मूड में नहीं है। अनुमानतः इसकी एक वजह मानी गई थी कि उत्तर प्रदेश और बिहार में नीतीश कुमार और अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व में कुर्मी जाति के लोग बीजेपी के साथ हैं और अगर इन्हें छेड़ा गया तो दो बड़े राज्यों में बीजेपी को भारी नुक़सान उठाना पड़ सकता है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की हार और 2 चरण के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी को यह साफ़ हो गया कि कुर्मी मतदाता पार्टी के ख़िलाफ़ हैं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाकर और मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया को ताक़तवर बनाकर कुर्मी मतदाताओं को अपनी ओर खींच लिया। ऐसे में छत्तीसगढ़ की एक जनसभा में पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह बताने की कवायद की कि वह साहू-तेली से मिलती-जुलती जाति के हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा छत्तीसगढ़ में ख़ुद को साहू-तेली जाति का बताना, महाराष्ट्र में ख़ुद को पिछड़ी जाति का बताना और उत्तर प्रदेश में ख़ुद को मोस्ट बैकवर्ड घोषित करना इसी कवायद का हिस्सा है।
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने भी दो चरण के चुनाव ख़त्म होने के बाद गोरखपुर में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक में कहा कि मोस्ट बैकवर्ड क्लास के मतदाता उसे सत्ता में लाएँगे। अब बीजेपी की कोशिश है कि वह ओबीसी में अपने ख़िलाफ़ जा रही जातियों को अलग-थलग कर दे।
पिछड़ी जातियों में बीजेपी से नाराज़गी?
यूपी-बिहार में यादव पहले से ही बीजेपी के ख़िलाफ़ हैं। कोइरी भी निराश हैं। बिहार में उपेंद्र कुशवाहा सरकार से अलग हो चुके हैं, जबकि केशव प्रसाद मौर्य की उपेक्षा से यूपी में यह बिरादरी नाराज़ है। निषादों ने बिहार में अलग दल बना रखा है, जबकि गोरखपुर से निषाद पार्टी को टिकट न मिलने से नाराज़गी बढ़ी है। राजभरों की पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने भी बीजेपी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल रखा है। साफ़ है कि यूपी-बिहार की राजनीतिक रूप से ताक़तवर कही जाने वाली ओबीसी जातियाँ बीजेपी के ख़िलाफ़ जा रही हैं।
इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक़ ओबीसी के श्रेणीकरण की जाँच के लिए बना रोहिणी आयोग 2,633 जातियों में से क़रीब 1,900 जातियों के लिए अलग से कोटा तय करने की सिफ़ारिश करने जा रहा है। ख़बर के मुताबिक़ आयोग ने इन जातियों को कम लाभ मिलने को अलग श्रेणी में रखे जाने को आधार बनाया है और कम लाभ मिलने का निर्धारण पिछले 5 साल के दौरान केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के एडमिशन और केंद्रीय सेवाओं की नौकरियों में भर्ती के आधार पर किया गया है।
सरकार इस मसले पर बिल्कुल बात करने को तैयार नहीं है कि केंद्रीय संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी नहीं हैं और उनका हिस्सा कौन खा रहा है?
इंडियन एक्सप्रेस के श्यामलाल यादव ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के माध्यम से डीओपीटी, यूजीसी और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से आँकड़े निकाले हैं। 16 जनवरी, 2019 को प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़, 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों, जहाँ ओबीसी आरक्षण लागू है, ओबीसी असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की संख्या उनके 27 प्रतिशत कोटे की क़रीब आधी 14.28 प्रतिशत है। वहीं, ओबीसी प्रोफ़ेसरों और एसोसिएट प्रोफ़ेसरों की संख्या शून्य है। आँकड़ों के मुताबिक़, 95.2 प्रतिशत प्रोफ़ेसर, 92.9 प्रतिशत एसोसिएट प्रोफ़ेसर और 66.27 प्रतिशत असिस्टेंट प्रोफ़ेसर सामान्य श्रेणी के हैं। नौकरियों में प्रतिनिधित्व के मामले में ऐसी ही स्थिति अन्य केंद्रीय विभागों में भी हैं।
अब आ रही ख़बर के मुताबिक़ रोहिणी आयोग ने कहा है कि 2,633 ओबीसी जातियों में कुर्मी, यादव और एझवा सहित महज 10 जातियों ने नौकरियों व शिक्षा में 27 प्रतिशत आरक्षण में से 25 प्रतिशत हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है। संभवतः सरकार इन्हीं 10 जातियों को ओबीसी की अन्य जातियों से अलग-थलग करने के लिए श्रेणीकरण करना चाहती है।
जातीय जनगणना क्यों नहीं हुई जारी?
पिछड़े वर्ग की लंबे समय से माँग रही है कि जनगणना के दौरान जातीय जनगणना कराई जाए, जिससे यह पता चल सके कि किन जातियों का प्रतिनिधित्व ज़्यादा है और किन जातियों का बुरा हाल है। साथ ही अगर यह साफ़ हो जाए कि किस तबक़े की स्थिति ज़्यादा ख़राब है तो सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों का लाभ लक्षित रूप से उस वर्ग तक पहुँचाकर उनकी स्थिति भी ठीक की जा सकेगी। इस मक़सद से मंडल कमीशन ने भी जातीय जनगणना की सिफ़ारिश की थी। कांग्रेस सरकार द्वारा 2011 में सामाजिक, आर्थिक जातीय जनगणना कराई भी गई, लेकिन उसे जारी नहीं किया गया। शायद उससे यह बेहतर तरीक़े से साफ़ हो जाता कि ओबीसी का हिस्सा किन लोगों ने हड़प रखा है, जिसकी वजह से पिछड़ों में भी अत्यंत पिछड़ों को जगह नहीं मिल पा रही है।
मंडल कमीशन ने अपनी सिफ़ारिश में ओबीसी की कई जातियों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में डाले जाने की सिफ़ारिश की थी। आयोग ने अपने सर्वे में पाया था कि अनुसूचित जाति व जनजाति की सूची बनाए जाते समय तमाम जातियाँ उस सूची से छूट गई थीं, जिसकी वजह से उन्हें लाभ नहीं मिल रहा है और अब उन्हें ओबीसी में शामिल कर लिया गया है।
ओबीसी की कई ऐसी जातियाँ हैं, जिनके साथ अछूतों या घुमंतू जातियों की तरह व्यवहार किया जाता है और ये जातियाँ ख़ुद को एससी-एसटी में शामिल किए जाने की माँग कर रही हैं। सरकार इस मसले पर भी विचार करने को बिल्कुल तैयार नहीं है।
इसके अलावा मंडल कमीशन ने कहा था कि ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत है। आयोग का कहना था कि इस तबक़े के लिए 52 प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए, लेकिन न्यायालय के एक फ़ैसले के मुताबिक़ 27 प्रतिशत से ज़्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता, इसलिए आयोग ने 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफ़ारिश की। सामाजिक न्याय के पुरोधाओं और कई राजनीतिक दलों की यह माँग रही है कि जातीय जनगणना कराकर आबादी के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया जाए, लेकिन सरकार इस मसले पर भी कुछ सुनने को तैयार नहीं है। मंडल कमीशन की तमाम सिफ़ारिशें ऐसी हैं, जिन पर सरकार विचार करने को तैयार नहीं है।
नौकरियों के सृजन में फिसड्डी साबित हुई सरकार ओबीसी में ही ज़्यादा ओबीसी खोजने में लगी है। हालाँकि रोहिणी आयोग ने अभी सरकार को अपनी रिपोर्ट नहीं सौंपी है, लेकिन सरकार ने यह संकेत ज़रूर दिया है कि वह ज़्यादा पिछड़े वर्ग को अलग से आरक्षण देकर उनके हित में काम करने जा रही है।
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