सवाल यह भी है कि क्या अमित शाह ने ख़ुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में देखना शुरू कर दिया है? यह सवाल काफ़ी दिनों से राजनीतिक गलियारों में पूछा जा रहा था लेकिन गाँधीनगर से शाह के चुनाव लड़ने की ख़बर ने इन चर्चाओं को तेज़ कर दिया है।
गुजरात में अमित शाह मोदी के मंत्रिमंडल में गृह राज्य मंत्री थे। और उनकी वैसे ही तूती बोलती थी जैसे कि इस समय दिल्ली में बोलती है। वह मोदी के आँख, कान, नाक थे। इस दौरान शाह पर सोहराबुद्दीन शेख़, उसकी पत्नी और साथी तुलसी प्रजापति का फ़र्जी एनकाउंटर करवाने का आरोप लगा। सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बाद उन्हें जेल भी जाना पड़ा और गुजरात से तड़ीपार भी हुए।
मोदी सरकार बनने के बाद शाह को सोहराबुद्दीन मामले में सीबीआई कोर्ट से क्लीन चिट मिल चुकी है। इस मामले की सुनवाई कर रहे जज लोया की संदिग्ध मौत में फिर शाह का नाम उछला लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने लोया की मौत की स्वतंत्र जाँच की माँग को ठुकरा दिया।
2004 में एक फ़र्ज़ी मुठभेड़ में गुजरात पुलिस ने कॉलेज की छात्रा इशरत जहाँ और तीन अन्य लोगों की हत्या कर दी थी। अमित शाह पर इस मामले में भी कई आरोप लगे थे। शाह पर साल 2009 में गुजरात पुलिस से एक महिला आर्किटेक्ट की कथित रूप से अवैध जासूसी करवाने के भी आरोप शाह पर हैं।
पिछले पाँच सालों में विपक्ष और बीजेपी के भी नाराज़ नेता यह आरोप लगाते रहे कि अमित शाह और मोदी की जोड़ी ही सरकार और देश चला रही है।
कहा जाता है कि जहाँ-जहाँ अमित शाह की नज़र पड़ती है, वहाँ-वहाँ बीजेपी का झंडा बुलंद हो जाता है। अमित शाह के अध्यक्ष रहते हुए बीजेपी न केवल देश की सबसे बड़ी पार्टी बनी बल्कि एक समय तो यह माना जाने लगा कि बीजेपी को चुनाव हराना असंभव है। अब शाह की सबसे बड़ी परीक्षा 2019 का लोकसभा चुनाव है।
राजनीतिक जानकारों के अनुसार, अमित शाह के चुनाव लड़ने के फ़ैसले को क़तई हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि शाह वर्तमान में राज्यसभा सांसद हैं, ऐसे में वह केंद्र में सरकार बनने पर भी आसानी से मंत्री बन सकते थे।
अमित शाह यह संदेश नहीं देना चाहते कि वह राज्यसभा के पिछले दरवाज़े से संसद या कैबिनेट में नहीं आए हैं। चुनाव लड़कर, जनता के बीच से चुनकर आए हैं।
अपने नामांकन में दिग्गजों की भीड़ जुटाकर शाह ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि गाँधीनगर से उनके चुनाव लड़ने का फ़ैसला पार्टी और एनडीए में सर्वसम्मति से लिया गया है। क्योंकि उनके नामांकन में लगभग सभी सहयोगी दलों के प्रमुख जुटे हैं।
लाल कृष्ण आडवाणी बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में हैं, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहने के साथ ही वह देश के उप प्रधानमंत्री भी रहे हैं। उनकी सीट से चुनाव लड़कर शाह यह संदेश देना चाहते हैं कि पार्टी में उनका क़द कितना बड़ा है। सवाल यह भी उठ रहा है कि अमित शाह की ख़ुद की इस पोजिशनिंग करने में क्या प्रधानमंत्री मोदी की भी सहमति है या नहीं?
अपनी राय बतायें