1. यदि अब चुनाव धन-बल, 'मशीन' और मीडिया के बल पर लड़ा जाता है तो मोदी की टीम काफ़ी आगे है : भारत के चुनाव के इतिहास में मीडिया का ऐसा एक तरफ़ा नैरेटिव पहले कभी नहीं रहा है। सत्तारूढ़ बीजेपी के पास चुनावी लड़ाई के लिए स्रोत-सामग्री बहुत ज़्यादा है और विभिन्न स्तरों पर मतदाताओं से जुड़ाव का उसका तरीक़ा काफ़ी उम्दा है।
- जहाँ बीजेपी का रुतबा चमकती फ़रारी कार की तरह है वहीं कांग्रेस पुराने जमाने की अंबेसडर की सेकंड-हैंड गाड़ी जैसी दिखती है (राजनीतिक गलियारे में तो चुटकुला है कि कांग्रेस अमीर लोगों की एक 'ग़रीब' पार्टी है!)। आश्चर्य की बात नहीं कि बीजेपी ने बड़े पैमाने पर अभियान चलाने के लिए स्रोत का जुगाड़ करने में अपने विरोधियों को कई बार पछाड़ा है और आगे भी पछाड़ते रहे।
2. दूसरों से काफ़ी आगे मोदी अभी भी भारत के नंबर वन नेता हैं : लगातार संघर्ष करने वाले मोदी ने अपने चुनावी अभियानों में अथक ऊर्जा, भाषण का जबर्दस्त कौशल और पार्टी के दूसरे बड़े नेताओं से निपटने की क्षमता दिखायी है। 'मोदी है तो मुमकिन है' की टैग लाइन के बाद अब बीजेपी और इस सरकार की पहचान पार्टी के टॉप करिश्माई नेता के रूप में हो गयी है। 'चीयरलीडर्स' की एक बड़ी सेना लगातार वाहवाही की स्टेरियोटाइप आवाज़ से प्रचार अभियान को आगे बढ़ा रही है।
- यह ठीक 1970 के दशक की अमिताभ बच्चन की उन फ़िल्मों जैसा है जिसमें कभी-कभार ख़राब स्क्रिप्ट वाली फिल़्म की भी ज़बर्दस्त शुरुआत हो जाती थी। व्यक्तित्व पर आधारित इस सियासी माहौल में 'मोदी के कद से बड़ी छवि' के कारण बीजेपी को काफ़ी अहम बढ़त मिल रही है। मोदी ने अब तक उससे भी ज़्यादा चुनावी रैलियाँ और सभाएँ कर ली हैं जितने उनके सभी विरोधियों ने कुल मिलाकर भी नहीं की हैं।
यह संभव है कि लुभावने व बढ़ा-चढ़ा कर दिये गये भाषण और इवेंट मार्केटिंग सच्चाई से काफ़ी दूर हों और कई बार लोगों को मायूसी भी होती हो, लेकिन मतदाताओं में इसका ग़ुस्सा कम ही दिखता है। मोदी 'गुब्बारा' अभी भी नहीं फटा है। नोटबंदी जैसा तबाह करने वाला फ़ैसला भी नरेंद्र मोदी को चुनाव में ज़्यादा नुक़सान नहीं पहुँचा सका। जोख़िम उठाने की क्षमता और राजनीतिक इच्छा-शक्ति के साथ 'कर्मयोगी' की होशियारी से तैयार की गयी उनकी इमेज अभी भी बनी हुई है। यही कारण है कि बालाकोट हवाई हमले को उनके निर्णायक नेतृत्व क्षमता की ताज़ा मिसाल के तौर पर देखा जा रहा है।
3. अमित शाह की चुनावी रणनीति : 2014 के चुनाव में अमित शाह बीजेपी के उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे और उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया था। 2019 में वह पार्टी प्रमुख हैं और पार्टी के पूरे देश के प्रभारी हैं। भारत की राजनीति में एक फॉर्मूला सब जगह नहीं चलता है। तभी तो अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी को 2015 के बिहार और दिल्ली विधानसभा चुनावों में बड़ी शिकस्त मिली थी। अमित शाह को 'साम, दाम, दंड, भेद' और ‘साधनों से ज़्यादा महत्वपूर्ण साध्य' जैसे विचार को मानने वाले व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है। देखिए कि वह कैसे उत्तर प्रदेश में शिवपाल यादव के नेतृत्व वाले छोटे दल और ऐसी ही पार्टियों को अपने पाले में कर रहे हैं ताकि विपक्षी दलों के वोटों का बँटवारा हो जाए। या फिर महाराष्ट्र में ही देख लें कि कैसे बीजेपी को सार्वजनिक तौर पर चेतावनी देने वाली शिवसेना को मनाया गया।
इसके अलावा संघ परिवार के कैडर और बूथ कार्यकर्ताओं की जबर्दस्त व्यवस्था के साथ ही बीजेपी संगठन की पहुँच दूर-दराज़ के मतदाताओं तक है।
- हो सकता है कि विधानसभा चुनावों में जीत से कांग्रेस आत्ममुग्ध हो गयी हो या फिर इसे मोदी-विरोधी मैनडेट के रूप में इसका ग़लत अर्थ समझा गया हो। मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कांग्रेस की स्थिति को लें। महाराष्ट्र में कांग्रेस के पुनरुत्थान की चर्चा की जा रही है जहाँ कांग्रेस ने सारी चीजें दुरुस्त कर ली हैं।
सच्चाई यह है कि कांग्रेस नाम का मरीज आईसीयू से बाहर आया है लेकिन इसको अभी भी अविलंब स्वास्थ्य-लाभ की ज़रूरत है। राज्य में बीजेपी और कांग्रेस की सीधी लड़ाई है, जहाँ हो सकता है कि सत्तारुढ़ पार्टी बाज़ी मार जाये।
5. राहुल गाँधी का नेतृत्व : राहुल गाँधी अभी भी रहस्य में लिपटी हुयी पहेली की तरह हैं। 2017 में गुजरात और दिसंबर 2018 में विधानसभा चुनावों में राहुल गाँधी को एक जुझारू अभियान चलाने वाले नेता के रूप में ख्याति मिली थी। लेकिन उन्होंने अभी भी उस तरह का संगठनात्मक या लोगों के प्रबंधन का कौशल या फिर सियासी सूझ-बूझ नहीं दिखायी है जिससे उन्हें सत्ता के स्वाभाविक दावेदार के तौर पर देखा जाये।
6. महागठबंधन एक पहेली : विपक्ष अभी भी न तो कॉमन मिनिमम एजेंडा तैयार कर पाया है और न ही पार्टियों को जोड़ने वाला कोई प्लेटफ़ॉर्म, जो मोदी-विरोध के अलावा भी बात करता हो। विपक्ष यह भी तय नहीं कर पाया है कि उनका सामूहिक रूप से नेतृत्व कौन करेगा जो 'मोदी बनाम कौन' नैरेटिव का जवाब दे सके। 'स्थानीयता' के साथ 543 सीटों पर सामूहिक रूप से चुनाव लड़ने की अपनी मौलिक योजना पर अमल नहीं करके विपक्ष ने यूपी जैसे महत्वूर्ण राज्यों में वोट के बिखरने का जोख़िम उठा लिया है।
- कुछ ऐसा ही दिल्ली की सात सीटों के साथ हुआ है जहाँ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक साथ नहीं आ पायीं। इससे यह संकेत मिलता है कि विपक्षी दलों में आंतरिक मतभेद हैं और पुराने दिनों के आपसी विरोध लड़ाई में बदल जा रहे हैं। विशेषकर, कांग्रेस को अब फ़ैसले लेने की ज़रूरत है कि क्या यह चुनाव कांग्रेस के पुनरुत्थान के लिए है या बीजेपी की संख्या को कम से कम करने के लिये है? मायावती जैसे क्षेत्रीय नेताओं को भी चाहिए कि वे फ़ैसला ले लें कि वे किस तरफ़ हैं बजाय इसके कि चुनाव बाद गठबंधन का विकल्प चुनें।
7. बीजेपी को चुनावी लाभ : 2014 में बीजेपी ने उत्तर और पश्चिमी भारत की क़रीब 90 फ़ीसदी सीटों पर जीत दर्ज की। इस तरह का प्रदर्शन दोबारा होना मुश्किल है, लेकिन बीजेपी अपने सबसे नज़दीकी विरोधी से 75-100 सीटें आगे रह सकती है। यह नहीं भूलें कि 2014 में 42 लोकसभा सीटों पर बीजेपी ने 3 लाख से ज़्यादा वोटों, 75 सीटों पर 2 लाख से ज़्यादा वोटों और 38 सीटों पर डेढ़ लाख से ज़्यादा वोटों से जीत दर्ज की थी। ऐसे में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी होने से तभी वंचित हो पाएगी जब बहुत बड़ी तादाद में बीजेपी से वोट फिसलेंगे। एक बार जब बीजेपी 200 का आँकड़ा पार कर लेगी तो वह एनडीए-3 सरकार बनाने की स्थिति में हो सकती है।
8. महत्वपूर्ण राज्य यूपी में बीजेपी को नुक़सान : विपक्षी दलों ने बीएसपी-एसपी गठबंधन की घोषणा और प्रियंका गाँधी के राजनीति में औपचारिक प्रवेश का स्वागत उत्साह के साथ किया था। लेकिन बुआ-भतीजा का गठबंधन अभी भी ज़मीनी स्तर पर वोटों के उस गणित को साधने की स्थिति में नहीं दिख रहा है। (मिसाल के लिए, क्या यादव मतदाता बीएसपी प्रत्याशी को ख़ुशी से स्वीकार करेंगे?) और यह भी कि प्रियंका की एंट्री राजनीति के बॉक्स ऑफ़िस पर धमाल मचाने में विफल रही है।
इसके उलट बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में काफ़ी ज़्यादा राजनीतिक पूँजी का निवेश किया है। पार्टी को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री की अपील और उनका यह दावा कि लाभार्थियों के खाते में सीधे पैसे डालने वाली डाइरेक्ट बेनिफिट योजना और जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर हर ग़रीबों के लिए लायी गयी 'कल्याणकारी' योजनाएँ पार्टी को चुनाव में फ़ायदा दिलाएँगी। यदि बीजेपी 2014 में जीती गयी 73 सीटों की आधी सीटें भी जीत जाती है तो मोदी सरकार के अलावा किसी दूसरी पार्टी की सरकार का आना मुश्किल है। (फ़िलहाल, यूपी और राजस्थान ही ऐसे दो राज्य हैं जहाँ बीजेपी को लगता है कि पार्टी को दो अंकों में नुक़सान क़रीब-क़रीब तय है।)
2019 में दिल्ली का रास्ता क़रीब-क़रीब निश्चित तौर पर लखनऊ से होकर निकलता है। यह चुनाव ‘करो या मरो’ की लड़ाई है जिसमें लगता है कि फ़िलहाल एक ही पक्ष पूरी तरह से तैयार है।
9. पुलवामा, पाकिस्तान, बालाकोट हवाई हमला : जय श्री राम से लेकर भारत माता की जय तक, बाबर की औलाद से लेकर पाकिस्तानी जिहाद तक, गेरुवा वस्त्र में साधु-संतों से लेकर मिलिट्री पोशाक वाले लोगों तक की बात करती रही मोदी सरकार अब पुलवामा और बालाकोट के बाद एजेंडे में बदलाव ला रही है। यह पुलवामा और बालाकोट के बाद बनी राष्ट्रीय सुरक्षा की स्थिति को पॉलिटिकल नैरेटिव के केंद्र में ला रही है। इस तरह की आक्रामक राजनीति दूर-दराज के गाँवों और बीजेपी से आशंकित ग़ैर-हिंदुत्व वाले दक्षिण के राज्यों में शायद सीमित प्रभाव डाले, लेकिन शहरी क्षेत्रों और हिंदी भाषी क्षेत्रों में इसका व्यापक असर हो सकता है।
यह वह युवा मतदाता हैं जो मोदी के 'न्यू' इंडिया, 'मज़बूत सरकार' की 'हाउ इज़ द जोश' के नारे से आकर्षित है। आतंकवाद पर सख़्ती और 'कश्मीर समस्या को एक बार में और हमेशा के लिए निपटा दें' की बातें इन युवाओं को लुभाती हैं। याद रहे कि बीजेपी की पैठ हिंदू दक्षिणपंथी मध्यम वर्ग में है जो इसलामिक 'दुष्ट राष्ट्र' पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ने या लड़ाई होने पर भावनात्मक रूप से ख़ुद को कट्टर हिंदुत्व पुनरुत्थान के साथ जुड़ा पाता है। विपक्ष 'किसान-नौजवान' अर्थव्यवस्था पर केंद्रित बहस को लाने में सफल नहीं हो सकता है, लेकिन बीजेपी ने 'मज़बूत राष्ट्रवाद' के स्टेरॉइड से साफ़ तौर पर 2019 का एजेंडा तय कर दिया है।
पोस्ट स्क्रिप्ट : चेतावनी के तौर पर मुझे 2004 के लोकसभा चुनाव का ज़िक्र करना चाहिए। इस बार की तरह ही तब भी अटल जी के अलावा कोई भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नज़र नहीं आ रहा था। तब उनका दोबारा चुना जाना आज मोदी के चुने जाने की संभावना से कहीं ज़्यादा पक्का बताया जा रहा था। लेकिन अटल जी चुनाव हार गये क्योंकि तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में सहयोगी दल बीजेपी के गठबंधन से अलग हो गये थे और यूपी में 'शाइनिंग इंडिया' विफल रहा था।
चुनावी लहर राजधानी के इको चैम्बरों में या इसके इर्द-गिर्द तय नहीं होती है और स्टूडियो के त्वरित विश्लेषण को अक्सर ख़ारिज़ कर दिया जाता है। इसीलिए, इंतज़ार कीजिए- आख़िरकार, भारत में मतदाताओं का व्यवहार लंदन के मौसम की तरह है जो हमेशा बदलते रहता है!
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