वैसे तो टीवी पत्रकारिता को लेकर कई किताबें आ चुकी हैं, लेकिन वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश राजपूत की नयी किताब में उन घटनाओं का ज़िक्र है जो टेलीविजन पर नहीं आ सका है। पढ़िए, समीक्षा में इस किताब में क्या है ख़ास।
लेखिका गीतांजलि श्री का उपन्यास टूम ऑफ सैंड अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट की गई हिंदी भाषा की पहली कृति थी और पुरस्कार जीतने वाली भी यह पहली कृति बन गई।
रोहिण कुमार की किताब लाल चौक में कश्मीर के समकालीन इतिहास के साथ ही मौजूदा परिदृश्य की जटिलताओं और उलझावों को दर्शाया गया है। कैसी है यह किताब, जानिए पुस्तक समीक्षा में।
इतिहास लेखन में दलितों को क्या उचित स्थान मिला? क्या दलितों की भूमिका का उस तरह बखान हुआ है जिस तरह से किया जाना चाहिए था? जानिए, मोहनदास नैमिशराय ने अपनी पुस्तिकाओं में इसका कैसे विस्तार दिया है।
‘महाभोज’ लिखने की प्रेरणा के मूल में आपातकाल के बाद सत्ता परिवर्तन के दौर में 1977 में बिहार के बेलछी गाँव का वह सामूहिक दलित हत्याकांड था, जिसने इंदिरा गांधी की वापसी और राजनीतिक पुनर्जीवन का द्वार खोला था।
मुक्तिबोध की जाति पर विवाद क्यों है? पूछने वाले को खलनायक साबित करने में कुछ लोग क्यों जुटे हैं? क्या ऐसा कभी होगा कि मुक्तिबोध की जाति का सवाल बिल्कुल अप्रासंगिक हो जाए?
निर्मल वर्मा के कालजयी उपन्यास 'एक चिथड़ा सुख' पर वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन ने एक बेहद सारगर्भित टिप्पणी 'कथादेश' के लिए लिखी थी। रेणु की 'परती परिकथा' को साथ में याद करते हुए। अर्थ और व्यर्थ के बीच जीवन का मर्म तलाशने की कोशिश।
जानी-मानी लेखिका अरुंधति रॉय की नयी क़िताब 'आज़ादी' आई है। यह 2018 से लेकर 2020 तक लिखे गए उनके लेखों या दिए गए व्याख्यानों का संकलन है। पढ़िए इसकी समीक्षा कि इसमें आख़िर क्या ख़ास है।