सुविख्यात असमिया कवि नीलमणि फूकन को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई है। पिछले लगभग सात दशकों से कविता कर्म में सक्रिय फूकन इस सम्मान के सच्चे हक़दार हैं, क्योंकि उन्होंने असमिया कविता को नया अंदाज़ और मुहावरा दिया है। आम तौर पर यह कहा जाता है कि वे फ्रांसीसी प्रतीकवाद से प्रभावित हैं और उनकी कविता में ये भरपूर नज़र भी आता है। मगर सचाई यह है कि उनकी अपनी शैली है और उस पर उनका ज़बर्दस्त अधिकार भी है। वह प्रगतिशील सोच वाले आधुनिक कवि हैं और उनकी कविता का असर बाद की पीढ़ियों में भी साफ़ तौर पर देखा जा सकता है।
पद्मश्री से सम्मानित फूकन को 1981 में उनके कविता संग्रह कविता पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है। सन् 2002 में साहित्य अकादमी ने उन्हें अपना फेलो बनाकर सम्मानित किया था। उन्हें प्रतिष्ठित ब्रम्हपुत्र वैली पुरस्कार के अलावा बहुत सारे सम्मान मिल चुके हैं। फूकन के 13 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा आलोचना पर भी उनकी कई पुस्तकें हैं। उनकी आत्मकथा भी प्रकाशित हो चुकी है।
सत्य हिंदी के पाठकों के लिए उनकी पाँच असमिया कविताओं का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है। पिछले तीन दशकों से असमिया, बांग्ला और हिंदी में परस्पर अनुवाद एवं लेखन कर रहीं सुपरिचित लेखिका पापोरी गोस्वामी ने इन कविताओं का असमिया से हिंदी में अनुवाद किया है।
एक नील उपलब्धि
उस विस्तृत शिलामय प्रान्त में दबा हुआ है
सबसे कोमल स्वर में गीत गाने वाला वो आदमी
हरे-भरे खेतों के बीच से अपने हाथों को लहराता हुआ वो
अब हमारे सर के ऊपर छाया बनने नहीं आएगा,
राजहंस बनकर पानी में खेलती हुई परियों से छीनकर
अब वो प्रकाश जैसी परम आयु हमारे लिए नहीं लाएगा।
गले में फंदे डालकर झूलती हुई औरत की तरह
अब उसकी आवाज़ की स्तब्धता में टुकड़े-टुकड़े होकर
टूट जाता है एक विशाल अन्धकार दर्पण
हम सभी की भावनाओं के प्राणों पर,
लोगों से भरपूर कस्बों और शहरों तक बहती हवा के हर झोंके पर।
सबसे कोमल स्वर में गीत गाने वाला वो आदमी
अलस्सुबह के सपनों की तरह उसकी आवाज़,
उसके गीतों के हर चाँद और सूरज
लाल फलों वाली झाड़ियों का हर पौधा
अब हमारे अस्तित्व के अँधेरे गर्भ में
एक नील उपलब्धि है।
पत्थर और झरनों से भरे इस पठार में
पत्थर और झरनों से भरे पठार में जब बारिश होती है
वो लोग मुझे अकेला छोड़ जाते हैं।
आड़ी तिरछी बरसती बूंदें मुझे भीतर से ढहाने लगती
आधी रात की हवाएं उन लोगों की आँखों में खोल देते हैं
बाँध टूटकर बह जाने वाले नावों के पाल।
रात की मूसलाधार बारिश के बीच किसी की यंत्रणा भरी चीख सुनता हूँ।
पत्थरों के दबाव से निकलना मुश्किल है,
कोई चीख रहा है।
पत्थर और झरनों से भरे इस पठार में जब बारिश होती है
खेतों को हरा-भरा करने वाले जलातंक अँधेरे में दिखने लगता है
गले तक डूबी हुई कमला कुंवरी का चेहरा।
नोट- कमला कुंवरी एक किंवदंती की स्त्री है जिसने जनकल्याण के लिए आत्म-बलिदान किया था।
वो शुक्रवार या रविवार था
वो शुक्रवार था या रविवार
हवाओं ने छीन लिया था
मुँह के सामने से संतरा
सीने के अन्दर महसूस कर रहा था मैं
जैसे कलेजे पर धक्का देती हुई,
एक लाल रंग में रंगी हुई नदी रुक गई थी।
दरख्तों के सामने कांपता हुआ
लटक रहा था
उस शाम जलकर राख होती हुई आत्मग्लानि।
वो शुक्रवार था या रविवार
दर्पणों में प्रतिध्वनित हो रही थी
टूटे हुए तारों की चीखें
रजस्वला मैदान पार करके तुम
रजस्वला मैदान पार करके शायद अब तुमबहुत दूर पहुँच गई हो।पिंजरे में बंद है तुम्हारी वो चीखकिसानों के बीच किसी बात को लेकरकोहराम है।और अभी-अभी जैसे कुछ घट गयाखिले हुए गुलाब के फूलों मेंचकित करने वाली निस्तब्धता है।
क्या कोई जबाव मिला तुम्हें
क्या कोई जबाव मिला
अपने ही खून में खुद को तैरता हुआ क्या देख पाए
ये भी है एक तरह के चरम अनुभवों का क्रूर उद्दीपन।
जीवन के साथ जीवन का अप्रत्याशित,
भयानक रक्तरंजित साक्षात्कार।
क्या वापस पाया खुद को
तुम्हारी प्यास
तुम्हारा शोक।
डरे हुए भूखे अनाथ बच्चे की
आंसू भरी आँखों को
क्या कोई जवाब दे पाए तुम।
क्या अपने खून में खुद को तैरता हुआ देखा तुमने।
बहुत समय बीता,
बहुत समय।
हे परितृप्त मानव।
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