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नामवर जी अपने आप में जीवन की एक प्रयोगशाला थे

कवि केदारनाथ सिंह जी कहते थे- ‘यह कोई साधारण बात नहीं है कि पिछले तीन दशक के इतने बडे़ कालखंड में समकालीन हिंदी साहित्य के केंद्र में एक आलोचक हैं। कोई रचना नहीं।’ इस गुत्थी को सुलझाना होगा, तभी हमें नामवर सिंह होने के सही मायने पता चल सकेंगे। नामवर जी आलोचना के कालजयी हस्ताक्षर थे। एक पूरी की पूरी पीढ़ी है जिसके लिए वह एक संस्था की तरह थे।
हेमंत शर्मा

नामवर सिंह परलोक लीन हो गए। ऐसा लग रहा है कि मानो मेरे भीतर कुछ टूट गया हो। कुछ अपूरणीय-सा। असहनीय-सा। यह हिन्दी आलोचना की तीसरी परम्परा का चले जाना है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद अब नामवर जी। मुझे आज हिंदी साहित्य की चिर-मशाल आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी याद आ रहे हैं। उनसे एक बार किसी ने पूछा कि आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति क्या है? आचार्य हजारी प्रसाद के मुँह से बस एक नाम निकला- ‘नामवर सिंह।’ यह वही नामवर थे जिन्होंने हिंदी साहित्य का एक युग गढ़ा, उसे ध्वनि दी। भाषा के अद्भुत अलंकारों से सुशोभित किया। समय की दीवार पर उसकी अविस्मरणीय शिनाख्त मुक़म्मल की। जिस बनारसी मिट्टी ने नामवर को बनाया, वह सृजन के अक्षुण्ण प्राणतत्व से भरी पूरी थी। उसमें कबीर का साहस, तुलसी का लोकतत्व, प्रेमचंद का समाजशास्त्र और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का पांडित्य था। जब ये सारे तत्व एक साथ मिलते हैं तब एक नामवर सिंह बनते हैं। उनकी यही पहचान उनके जीवन भर साथ रही।

  • नामवर सिंह के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी ख़ूबी उसकी समग्रता और उसी समग्रता की जड़ों में घुली हुई अनोखी विशिष्टता रही। इसी ख़ूबी ने उन्हें बड़ी-से-बड़ी परंपरा को ख़ारिज़ करने, अपना झंडा गाड़ने और हिंदी आलोचना में सबसे ऊँचा, आला और अलहदा स्थान बनाने में मदद की। हर ख़ूबी के कुछ फ़ायदे होते हैं तो कुछ नुक़सान भी। नामवरजी ने अपनी इसी ख़ूबी के लिए नुक़सान भी उठाया। 
नामवरजी को बनारस में काफ़ी विरोध झेलना पड़ा, हालाँकि यह विरोध तुलसी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी झेला था। नामवर जी बनारस के जिस मोहल्ले लोलार्क कुंड में रहते थे, वह भदैनी इलाक़े में पड़ता है। यहाँ काशी के पुराण पंडितों ने तुलसीदास को भगा दिया था। उनकी ‘रामचरित मानस’ को गंगा में फेंक दिया था क्योंकि तुलसी लोकभाषा में रघुनाथगाथा लिख रहे थे। पुराण पंडितों के केंद्र ‘भदैनी’ से भागकर ही तुलसी ने अस्सी के उस हिस्से का नाम ‘भयदायिनी’ रखा था। जो बाद में बिगड़कर ‘भदैनी’ बना। कवि केदारनाथ सिंह तो यहाँ तक कहते थे कि ‘भदैनी में ‘सरवाइव’ करना आसान नहीं है। नामवर सिंह सरवाइव कर गए, शायद इसलिए भी वह नामवर सिंह बन गए।’

नामवर हिन्दी आलोचना का अकेला ऐसा नाम था जो हिन्दी साहित्य के आदिकाल से लेकर उत्तर आधुनिक युग तक किसी भी कालखण्ड पर अधिकार से अपनी बात रखते थे। उनका न रहना हिन्दी आलोचना की सबसे सजग, सतर्क, बहुपठित और संवादी परम्परा का अवसान है।

नामवर होने के मायने ढूँढने बैठा हूँ...

पूरे तीस बरस से मैं नामवर के होने का मतलब ढूँढ रहा था और अब उनके न होने के मायने ढूँढने बैठा हूँ। एक बड़ा शून्य है। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश से लेकर अब तक के भाषायी साहित्य में। उद्भट और मुँहफट प्रतिभा के धनी नामवर सिंह की 'नामवरियत’ बनारस में ही जन्म ले सकती थी। इसकी भी एक वजह है। बनारसीपन एक अति आधुनिक सांस्कृतिक दृष्टि है। उसमें जन्मे, पले-बढ़े नामवर जी पांडित्य से भरे विविध रंगों वाले बिंदास बनारसी थे। जमाने को ठेंगे पर रखकर अपनी बात को पूरी ताक़त के साथ रखने का अंदाज़ इसी दृष्टि की उपज थी क्योंकि जाति, वर्ग, संप्रदाय और धर्म से आगे की चीज है बनारसीपन। समूची पांडित्य परंपरा से लैस नामवर जी अति आधुनिक औजारों से ‘दूसरी परंपरा’ यहीं ढूँढ सकते थे। नामवर सिंह का कर्मक्षेत्र भले ही दिल्ली रहा हो, पर उनका भाव क्षेत्र हमेशा बनारस रहा।

दिल्ली में हमेशा बनारस ढूँढते रहे नामवर

सही है कि बनारस में नामवरजी का अनुभव अच्छा नहीं रहा, मगर यह भी उतना ही सच है कि वह दिल्ली में बनारस को ‘मिस’ करते रहे। वह दिल्ली में हमेशा बनारस ढूँढते रहे। अपने आस-पास, मित्रों में, खान-पान में, पहनावे में और अपनी भाषा में। उन्होंने ग़ुस्से में बनारस छोड़ा। लोकसभा का चुनाव लड़ा। नौकरी गई। बेरोज़गारी देखी। समकालीन साहित्यकारों ने काम भी लगाया। मगर जब बनारस छोड़ा तो पलटकर नहीं देखा। उनके भीतर का जो बनारसी था, उसी ने उनके भीतर यह दृढ़ता और ज़िद पैदा की। 

  • आख़िरी के दिनों में वह मुझसे कहा करते थे कि उन्होंने क्षेत्र संन्यास ले लिया है। अब वह इस क्षेत्र के बाहर नहीं जाना चाहते हैं पर एक बार बनारस जाने का मन है। ‘देखल जाय कईसन हौअ बनारस, कईसन हऊअन बाबा विश्वनाथ’ पर जहाज़ से यात्रा की उन्हें इजाज़त नहीं थी। सो अपने मूल पर लौटने की उनकी इच्छा धरी रह गयी।
नामवर सिंह पिछले तीन दशकों से हिंदी साहित्य के केंद्र में थे। उन्होंने आलोचना की वाचिक परंपरा को जीवित किया। आलोचना को बंद गली से आगे ले गए। उसको गंभीरता से मुक्त कर आसान, सरस और ऐसा पठनीय बनाया कि वह रचना का आनंद देने लगी।

लिखने से ज़्यादा महत्व बोले जाने को दिया जाने लगा। किताबों की तुलना में संगोष्ठियों का महत्व बढ़ा और इस पूरी परंपरा के अलमबरदार बने नामवरजी। क्योंकि नामवर सिंह कलम के सिपाही ही नहीं, बल्कि बातों के जादूगर भी थे। बातूनी नामवर सिंह को दिल्ली में सब जानते हैं। लेकिन इस बातूनीपन के पीछे वह एक गंभीर अध्येता थे। इस लिहाज़ से नामवर सिंह शायद हिंदी में समकालीन विश्व साहित्य के सबसे बडे़ बौद्धिक पुरुष थे। नामवरजी बेहद अध्ययनशील थे। वह मिर्ज़ा ग़ालिब से लेकर मनोज मुन्तज़िर तक, कहीं से भी शुरू कर, कहीं भी ख़त्म कर सकते थे। जितना अधिकार उनका कालिदास और भवभूति पर था, उतनी ही सहजता से वे ब्रेख्त और लुशुन को भी समझाते थे।

  • नामवर जी अपनी आवाज़, असाधारण स्मरण-शक्ति, ‘सहज प्रत्युत्पन्न मति’ आदि की बदौलत पिछले 30 वर्ष से न सिर्फ़ साहित्यिक संगोष्ठियों को लूटते आए थे, बल्कि अपने साहित्यिक रण कौशल से अपनी विचारधारा के विरोध में खडे़ विद्वानों को भी गिराते, पछाड़ते और उखाड़ते आए थे। वह भाषा के बेजोड़ खिलाड़ी थे। 
नामवर जी की भाषा मुहावरे गढ़ती है और यही मुहावरे साहित्य की चौहद्दी बनाते हैं। नामवरजी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। आलोचना ही नहीं कविता की परंपरा से भी उनका उतना ही गहरा संबंध था।

नामवर सिंह ‘पुनीत’ को बहुत कम लोग जानते हैं। वह इस नाम से अपने लेखक जीवन की शुरुआत में कविताएँ लिखते थे। अध्यापक नामवर। चंदौली से चुनाव लड़नेवाले राजनेता नामवर। आलोचक नामवर और अब किंवदंती बन चुके नामवर।

जिन्हें ख़ारिज़ करते थे, उन्हें ज़्यादा पढ़ते थे

रिश्ते-नाते उन्हें ज़्यादा प्रभावित नहीं करते थे। घटना, मनुष्य और विचार इन तीनों में वह विचार को अधिक महत्व देते रहे। वह विद्यार्थियों को आलोचना पढ़ाते ही नहीं, आलोचना सिखाते भी रहे। वह सामने वाले की बात को सिरे से ख़ारिज़ करने का दम रखते थे पर साथ ही सामने वाले की बहस और असहमति के अधिकार की हिफ़ाज़त करने के लिए भी उतने ही दमखम से खडे़ होते थे। शायद यही वजह है कि नामवर सिंह जिन्हें ख़ारिज़ करते थे, उन्हें ज़्यादा पढ़ते थे। 

बिना पढे़ विरोध, केवल लोकतंत्र में विपक्ष की औपचारिक भूमिका भर है, मगर नामवर सिंह खाँटी विपक्ष की नहीं, बल्कि विद्वत और संवेदनशील प्रतिपक्ष की भूमिका अदा करते थे।

‘आप तो बडे़ विद्वान् आदमी हैं…’

नामवर जी का एक ख़ास स्वभाव था कि अगर वह आपकी बात से असहमत हैं तो वह आपकी बाक़ी बातों को उड़ाते हुए कहेंगे, ‘आप तो बडे़ विद्वान् आदमी हैं।’ एक संस्मरण याद आया। साल 1982 की बात है। मैं पहली बार उनसे विधिवत् मिला। बीएचयू से जेएनयू में पढ़ने आया था। दाख़िला कराने जब बनारस से दिल्ली आ रहा था तब मेरे पिता मनु शर्मा ने कहा था कि नामवरजी से ज़रूर मिलना। मेरे भीतर भी बड़ी उत्सुकता थी नामवर सिंह से मिलने की। उनके घर पहुँचा, दस्तक दी। उन्होंने ख़ुद ही दरवाज़ा खोला। बोले, ‘आइए। कैसे दिल्ली आए हैं।’ मैंने जवाब दिया, ‘पढ़ने आया हूँ।’ चश्मे के भीतर से झाँकती उनकी गंभीर आँखों ने पूछा, ‘रहते तो कबीरचौरा में ही हो।’ मैंने कहा, ‘जी।’ 

  • उनका अगला सवाल था, ‘कबीर को पढ़ा है?’ ‘जी पढ़ा है।’ ‘कबीर को समझने के लिए किसे पढ़ा है?’ नामवरजी ने अगला सवाल दागा। उन्होंने सोचा होगा कि मैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम लूँगा, क्योंकि हिंदी में कबीर पर उनकी सबसे प्रामाणिक किताब थी। लेकिन मैंने कहा, ‘जी मैंने कबीर पर आचार्य रजनीश को पढ़ा है।’ रजनीश उस वक्त तक ओशो नहीं थे। मेरे इस जवाब पर वे भेद-भरी मुसकान के साथ अपने चिर-परिचित अंदाज़ में बोले, ‘आप तो बडे़ विद्वान् आदमी मालूम पड़ते हैं।’ 

मैं इसे समझा नहीं। बाद में पता चला कि वह अपना यह जुमला तब ही उछालते हैं जब आप निरर्थक बोल रहे हों या उनके सामने अपनी ‘ज्ञान-संपदा’ को बड़ी आतुरता के साथ प्रदर्शित कर रहे हों तब भी वह यही कहेंगे, ‘आप तो बडे़ विद्वान् आदमी हैं।’

नामवरजी की हँसी-ठिठोली 

नामवरजी की हँसी-ठिठोली का भी एक विशिष्ट अंदाज़ था। एक बार बनारस में आलोचक डॉ. बच्चन सिंह के यहाँ नामवर सिंह, विजयशंकर मल्ल, केदारनाथ सिंह आदि ‘संध्या वंदन’ के  लिए बैठे थे। नामवरजी शाम के बैठने-बिठाने के कार्यक्रम को ‘संध्या वंदन’ कहते थे। बच्चन सिंह जी के यहाँ संपन्न उस ‘संध्या वंदन’ में विजयशंकर मल्ल कुछ इधर-उधर की बात ले आए। मल्लजी विद्वान् अध्यापक थे। उनकी विद्वता का हम पर आतंक था। वह संवेदनशील इतने कि कोई बड़ी ट्रेन दुर्घटना और सड़क पर साइकिल से किसी का गिरना उन्हें समान कष्ट पहुँचाते थे। बात हिंदी अख़बार और उसकी बदलती भाषा की हो रही थी। 

  • मल्लजी कहने लगे, भाई पटना से एक अख़बार निकलता था। नाम था- ‘प्रदीप’। यह कहते हुए वह नामवरजी की ओर मुख़ातिब हुए और थोड़ा टेढ़े होकर वायु मुक्त की। नामवरजी ने तुरंत कहा- हाँ, हाँ निकलता था, अभी-अभी निकला है, और फिर निकलेगा। बाक़ी लोग आनंद की मुद्रा में थे। नामवरजी गंभीर। आशय कि वह गंभीर रहकर आनंद लेते थे।

कवि केदारनाथ सिंह और नामवर जी की ख़ूब छनती थी। केदार जी कहते थे- ‘यह कोई साधारण बात नहीं है कि पिछले तीन दशक के इतने बडे़ कालखंड में समकालीन हिंदी साहित्य के केंद्र में एक आलोचक हैं। कोई रचना नहीं।’ इस गुत्थी को सुलझाना होगा, तभी हमें नामवर सिंह होने के सही मायने पता चल सकेंगे। नामवर जी आलोचना के कालजयी हस्ताक्षर थे। एक पूरी की पूरी पीढ़ी है जिसके लिए वह एक संस्था की तरह थे। यह संस्था सिर्फ़ साहित्य तक सीमित नहीं थी। नामवर जी अपने आप में जीवन की प्रयोगशाला थे। उन्हें प्रणाम।

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हेमंत शर्मा
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