औपनिवेशिक भारत का बीसवीं सदी का दूसरा दशक सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और अस्मितावादी सरगर्मी से भरा रहा है। साल 1920-21 में जहाँ असहयोग आन्दोलन ने अंग्रेजों में खलबली मचा रखी थी, वहीं बाबा रामचन्द्र और मदारी पासी के किसान आंदोलन ने जमींदारों के होश उड़ा रखे थे। इसी दशक में साहित्यिक क्षेत्र में 'चाँद', 'माधुरी', 'सुधा', 'विशाल भारत', 'मनोरमा', 'त्यागभूमि' आदि स्वाधीनतावादी चेतना से लैस पत्रिकाओं का उदय हुआ था।
साल 1920 में ही उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द के अस्मितावादी दलित आंदोलन का उदय हुआ जिसने बहुजनों को गोलबंद करके सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए चेतना पैदा कर दी थी।1920 में स्वराज की मांग ने ब्रिटिश शासकों के भीतर खलबली मचा दी थी, वहीं 1921 की जनगणना के आकड़ों ने हिन्दू सुधारकों और लेखकों को चिंता में डाल दिया था।
साल 1911 से लेकर 1921 तक की जनगणना में साढ़े आठ लाख हिंदू घट गये थे। हिन्दुओं की घटती संख्या पर हिंदी नवजागरणकाल के संपादक और लेखक चिंतित हो गए थे। हिंदुओं के सामाजिक बंधनों और भेदभाव से तंग आकार अछूत अपनी मुक्ति धर्मांतरण में तलाशने लगे थे। 1927 में साइमन कमीशन के आगमन की आहट ने जहां हिन्दू सुधारकों की चिंताएँ बढ़ा दी थी, वहीं दलित समाज के सुधारकों ने अछूतों को हिन्दू धर्म के दायरे से बाहर निकालने की क़वायद शुरू कर दी थी।
हिन्दी लेखकों के लिए 'मदर इंडिया'
बीसवीं सदी के दूसरे दशक की इन्हीं सामाजिक, राजनैतिक और साहित्यिक गतिविधियों के बीच मिस मेयो कैथरीन की किताब 'मदर इंडिया' (मई, 1927) प्रकाशित हुई।यह किताब प्रकाशित होते ही हिन्दू सुधारकों और लेखकों के बीच भयंकर कोलाहल मच गया था। हिन्दू सुधारक और लेखक जिन बातों पर पर्दा डालते आ रहे थे और अपनी धर्म संस्कृति का पवित्र हिस्सा मानते थे मेयो कैथरीन ने उस हिन्दू पवित्रता को उघाड़ कर रख दिया।
मेयो कैथरीन ने 'मदर इंडिया' में स्त्रियों और अछूतों की दयनीय अवस्था की जो तसवीर पेश की थी, उससे हिन्दी के लेखक और संपादक बेहद खफ़ा दिखे।
हिन्दी लेखकों को कहना था कि मिस मेयो ने भारत की स्त्रियों और अछूतों की जो दयनीय तसवीर 'मदर इंडिया' में प्रस्तुत की है, उससे भारत की छवि को बड़ा धक्का पहुंचा है।
आलोचना
बड़ी दिलचस्प बात यह है कि जो हिन्दू सुधारक और लेखक स्त्री समर्थक होने का दावा करते थे, वही मिस मेयो की 'मदर इंडिया' के ख़िलाफ़ अपनी पत्र-पत्रिकाओं में मोर्चा खोलते नज़र आये।
साल 1928 में इस किताब का पहला हिन्दी अनुवाद 'मदर इंडिया' शीर्षक से इलाहाबाद, हिंदुस्तानी प्रेस, प्रयाग से प्रकाशित हुआ था।
इस अनुदूत किताब की एक लंबी भूमिका नवजागरणकाल की जानी मानी लेखिका श्रीमती उमा नेहरू ने लिखी थी। करीब सौ साल बाद 'मदर इंडिया' (2018) का दलित चिंतक कंवल भारती द्वारा अनुदित दूसरा हिन्दी अनुवाद 'फॉरवर्ड प्रेस' ने प्रकाशित किया है।
उमा नेहरू का मानना था कि मिस कैथरीन की 'मदर इंडिया' किताब का प्रकाशित होना हमारे राजनैतिक जीवन की महत्वपूर्ण घटना है।इस किताब के हवाले से अंग्रेज़ों ने मिस कैथरीन जैसी चित्रकार से भारत का चित्र उतरवाकर संसार के सामने भारत बंधुओं और सुधारकों को बदनाम किया है।
गिद्ध से तुलना
उमा नेहरू ने मिस कैथरीन को अंग्रेज़ो से अदावत निभाने वाली और उनका प्रवक्ता बताया। इसके बाद उन्होंने कैथरीन की तुलना गिद्ध से करते हुए कहा कि जो चित्र हमारे देश का संसार के सामने रखा गया है, उसे देखकर पश्चिमीय जातियाँ तो क्या स्वयं हमारे ही रोंगटे खड़े हो जाते है।
जिस प्रकार एक गिद्ध, आकाश से नीचे की ओर देखता है परन्तु पृथ्वी पर फैले हुये सहस्रों विशाल वृक्ष, लाखों सुगन्धमय अलौकिक रंगों में रंगे हुये फूल, और अनेकानेक रोचक, स्वादिष्ट तथा स्वास्थ्यमय मेवे और फल, कोई भी इसे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते किन्तु इसकी नज़र जहाँ किसी मुर्दा जानवर या इन्सान की लाश पर पड़ी, तुरन्त अपने परों को समेट गिरते- हुये लोहे के गोले के समान धरती की ओर टूट पड़ता है और अपनी मनोकामना पूरी जिस रस, जिस स्वाद, जिस रोचकता के साथ उसके दुर्गन्धपूर्ण गोश्त और सडे़ हुये रग पुट्टो को नोच-नोच कर खाता है, इसी प्रकार 'मदर इण्डिया' की जननी ने अपनी बिरादरी वालों से प्रोत्साहन लेकर भारत की कल्पित तथा वास्तविक घृणित समस्याओं को ढूंढ-ढूंढ कर भयानक, और विचित्र रसिकता के साथ वर्णित किया है।1
'राजनीतिक मक़सद'
उमा नेहरू ने हिन्दू सुधारकों की तरह ही मिस कैथरीन पर यह आरोप लगाया कि यह किताब राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लिखी गई है। लेखिका उमा नेहरू को यह भय था कि इस किताब के आने के बाद पश्चिमी देशों की भारत के प्रति जो सहानुभूति बनी है, वह अब पहले जैसी नहीं रहेगी।
उमा नेहरू का दावा था कि यह किताब आने वाले अँग्रेजी चुनाव में लेबर पार्टी को मिटाने की ज़बरदस्त चाल है। लेबर पार्टी के नेता भारत के प्रति सहानुभूति रखते थे। इस किताब को पढ़ने के बाद शायद लेबर पार्टी के नेता पहले जैसी भारतीय सुधारकों के प्रति सहानुभूति न रखे।
उमा नेहरू 'मदर इंडिया' के हवाले से हिन्दू सुधारकों के ढोंग को समझने के बजाए, वे इस किताब को अंग्रेजों की साज़िश क़रार देती हैं। उनका कहना था कि 'जो स्त्री प्रांतीय गवर्नर और सूबे के बड़े अफसरों की मेहमान रही हो, जो सीआईडी द्वारा हिंदुस्तानी खास-खास लोगों ले मिली हो ऐसी स्त्री को इस पुस्तक की वास्तविक जन्मदाता समझना ग़लती है। अंग्रेजों ने उस स्त्री की ओट लेकर हिंदुस्तान को जान बूझकर बदनाम करवाया है।'
उमा नेहरू यह जानती थी कि भारत में अछूतों और स्त्रियों की दशा अत्यंत सोचनीय है और इसकी जिम्मेदार हिन्दू-व्यवस्था है लेकिन उनका हिन्दू-मन मिस कैथरीन की बातों को स्वीकार नहीं पा रहा था।
वे पूरी तरह से मिस कैथरीन की तीखी आलोचना करती नज़र आई। बड़ी दिलचस्प बात यह है कि उमा नेहरू की कोशिश और कयास मिस कैथरीन के तर्कों की कोई सटीक काट प्रस्तुत नहीं कर सके थे।
साहित्यकारों का तीखा विरोध
रामरख सिंह सहगल 'हिन्दी नवजागरण' के स्त्री पक्षधर संपादक थे। वे 'चाँद' पत्रिका के उद्भावक और संपादक भी थे। चाँद पत्रिका सामाजिक कुरीतियों पर बड़ा तीखा प्रहार करने के लिए मशहूर थी। बड़ी मज़े की बात यह कि रामरख सिंह सहगल ने चाँद नवंबर 1927 के अंक में 'भारत-माता'शीर्षक से संपादकीय लिखा था।
इस संपादकीय में उन्होंने 'मदर इंडिया' का बड़ा तीखा विरोध किया था। इनकी दृष्टि में कैथरीन की किताब पर चर्चा करने से कुमारी कैथरीन जैसी अल्हड़ महिलाओं का महत्व ही बढ़ रहा है।
चूंकि, 'चाँद' स्त्रियों की पत्रिका समझी जाती थी, इसलिए रामरख सहगल अपने संपादकीय में मिस मेयो कैथरीन की किताब को सिरे से ख़ारिज कर डालने की कवायद करते नज़र आयें। उनका कहना था, "उनके लिये न तो कुमारी कैथरीन का, और न ही ‘मदर इंडिया’ पुस्तक का कोई महत्व है । हाँ, ‘मदर इंडिया’ में हमें कुमारी जी के व्यक्तिगत आचरण और व्यक्तिगत भावनाओं का दूषित परिचय जरूर मिलता है ..।"
इस वक्तव्य के पीछे इस संपादक की मंशा थी कि हिन्दू स्त्रियों के भीतर मिस कैथरीन और इनकी किताब 'मदर इंडिया' के प्रति रोष और घृणा पैदा कर दी जाए।
यदि उच्च श्रेणी हिन्दू स्त्रियों ने कैथरीन से प्रेरणा लेकर कहीं अपनी दशा और व्यथा के बारे में लिख दिया तो मिस कैथरीन की बातों को बल मिलेगा।
रामरख सिंह सहगल अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखते हैं, "कुमारी जी ने अपनी पुस्तक में भारतवासियों की जिस भयानक और दयनीय स्थिति का चित्र खींचा है, वह बहुत हद तक निराधार और अनुभव-हीनता से पूर्ण है। कुमारी जी केवल इस अभागे देश में चार महीने रह सकी थी, और इसी छोटी अवधि में उन्होंने भारतीय चरित्र, भारतीय प्रकृति, भारतीय आदर्श एवं भारतीय नैतिकता का पूर्ण अध्ययन कर लिया। इस अध्ययन के बल पर ही उन्होंने 'भारत-माता’ नामक दूषित पुस्तक लिखी है।"
हिन्दू सुधारक मंचों पर भले ही स्त्रियों को लेकर सुनहरे भाषण देते हों, लेकिन स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को सुधारने का कोई ठोस समाधान उनके पास नहीं था। हिन्दुओं ने अपनी छवि दयावान, मुंसिफ़ और स्त्री हितैषी की गढ़ रखी थी।
लेखकों का चरित्र
मिस मेयो कैथरीन अपनी किताब में हिन्दू-सुधारकों और लेखकों का चरित्र एकदम उघाड़ कर रख देती है। इसलिए अधिकांश लेखकों ने एक स्वर में कहा कि कैथरीन ने पूरी दुनिया में हिन्दू समाज को कलंकित करने का काम किया है।
इस संपादक ने लिखा था -"सारांश यह कि हमारी दृष्टि में 'मारत-माता ' एक दूषित रक्त, दूषित मस्तिष्क, दूषित हृदय एवं दूषित नैतिकता की ही उपज है; और हमारा विश्वास है कि अपनी व्यक्तिगत नैतिकता के घृणित पतन में ही कुमारी मेयो ने भारतीयतीत्व पर आक्रमण किया है।'भारत माता' की वृहद् समालोचना करनी इस छोटे स्थान पर असम्भव है। उसकी समालोचना के लिए तो उससे दस गुनी बड़ी पुस्तक भी पर्याप्त नहीं होगी।"
माधुरी पत्रिका
माधुरी पत्रिका के द्वय संपादक पंडित कृष्णविहारी मिश्र और प्रेमचंद ने अपनी संपादकीय टिप्पणी लिखी थी। माधुरी के संपादकों ने संपादकीय टिप्पणी में इस बात पर ज़ोर दिया कि मिस कैथरीन ने किताब लिखकर उपकार कम अन्याय ज्यादा किया है।मिस कैथरीन का अन्याय यह कि भारत की वर्तमान कुदशा का सारा दोष हिंदुओं के सिर मढ़ दिया है। लेकिन माधुरी के संपादकीय में इस बात को स्वीकार किया गया कि मिस कैथरीन की आलोचना कठोर और एकांगी भले हो लेकिन वह सत्य के काफी करीब है।
माधुरी के संपादकों का दावा था कि मिस कैथरीन ने यह किताब राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिखी है। माधुरी के संपादकों ने मिस कैथरीन से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए लिखा था-"यदि मिस मेयो ने भारतीय समाज के उद्धार के उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी होती, तो हम उनका यश मानते; पर उनका राजनैतिक उद्देश्य यह मालूम होता है कि भारत की बुराइयों को दिखाकर उसे स्वराज्य के अयोग्य सिद्ध करें। यही कारण है कि जिन बुराइयों का दायित्व भारतीय बहुमत पर है, उनकी तो बड़ी निर्दयता से आलोचना की गई है। और जिन बातों की ज़िम्मेदारी अंग्रेजी सरकार पर है, उनकी चर्चा ही नहीं की गई।"
लेखकों का चरित्र
मिस मेयो कैथरीन अपनी किताब में हिन्दू-सुधारकों और लेखकों का चरित्र एकदम उघाड़ कर रख देती है। इसलिए अधिकांश लेखकों ने एक स्वर में कहा कि कैथरीन ने पूरी दुनिया में हिन्दू समाज को कलंकित करने का काम किया है।
इस संपादक ने लिखा था -"सारांश यह कि हमारी दृष्टि में 'मारत-माता ' एक दूषित रक्त, दूषित मस्तिष्क, दूषित हृदय एवं दूषित नैतिकता की ही उपज है ; और हमारा विश्वास है कि अपनी व्यक्तिगत नैतिकता के घृणित पतन में ही कुमारी मेयो ने भारतीयतीत्व पर आक्रमण किया है। 'भारत माता' की वृहद् समालोचना करनी इस छोटे स्थान पर असम्भव है। उसकी समालोचना के लिए तो उससे दस गुनी बड़ी पुस्तक भी पर्याप्त नहीं होगी।"
माधुरी पत्रिका
माधुरी पत्रिका के द्वय संपादक पंडित कृष्णविहारी मिश्र और प्रेमचंद ने अपनी संपादकीय टिप्पणी लिखी थी। माधुरी के संपादकों ने संपादकीय टिप्पणी में इस बात पर ज़ोर दिया कि मिस कैथरीन ने किताब लिखकर उपकार कम अन्याय ज्यादा किया है। मिस कैथरीन का अन्याय यह कि भारत की वर्तमान कुदशा का सारा दोष हिंदुओं के सिर मढ़ दिया है। लेकिन माधुरी के संपादकीय में इस बात को स्वीकार किया गया कि मिस कैथरीन की आलोचना कठोर और एकांगी भले हो लेकिन वह सत्य के काफी करीब है।
माधुरी के संपादकों का दावा था कि मिस कैथरीन ने यह किताब राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिखी है। माधुरी के संपादकों ने मिस कैथरीन से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए लिखा था-"यदि मिस मेयो ने भारतीय समाज के उद्धार के उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी होती, तो हम उनका यश मानते; पर उनका राजनैतिक उद्देश्य यह मालूम होता है कि भारत की बुराइयों को दिखाकर उसे स्वराज्य के अयोग्य सिद्ध करें। यही कारण है कि जिन बुराइयों का दायित्व भारतीय बहुमत पर है, उनकी तो बड़ी निर्दयता से आलोचना की गई है। और जिन बातों की ज़िम्मेदारी अंग्रेजी सरकार पर है, उनकी चर्चा ही नहीं की गई।"
कैथरीन की किताब प्रकाशित होने के बाद लेखकों को इस बात का भय सता रहा था कि दूसरे देश के सामने उनकी सुधारक और दयावान वाली छवि को काफी नुकसान होगा।
रघुवरप्रसाद द्विवेदी ने अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहा कि इस पुस्तक के प्रकाशित होने से हमको बड़ी हानि हुई है।
यूरोप और अमेरिका तथा अन्य सभी देश, इस पुस्तक को पढ़कर हमें अत्यंत नीच समझेंगे, और इन देशों में हमारा मान और भी अधिक घटेगा। वैसे ही हमारे रहन- सहन का ढंग देख, दक्षिण अफ्रीका आदि के उपनिवेशों में हम अछूतों के समान समझे जाते थे। अब इस पुस्तक में जो विष उगला गया है, उसका असर बहुत बुरा पड़ेगा । हम अपने को बहुत ही अच्छा क्यों न समझे; पर दूसरे लोग यदि हमको महा भ्रष्ट और बर्बर जातियों से भी बुरा समझेंगे, तो हमारी उन्नति में बाधा पड़े बिना न रहेगी। इसलिये हमें निष्पक्ष हो कर देखना चाहिए कि क्या हम मे सचमुच त्रुटियाँ हैं, जिनके कारण हमारा यह अनादर है ? क्या मिस के. मेयो की बताई हुई त्रुटियाँ हममे हैं या नहीं, और यदि हैं, तो उनको शीघ्र ही दूर कर लेना हमारा कर्तव्य है, अथवा नहीं।
'मदर इंडिया' का प्रभाव
मिस कैथरीन की मदर इंडिया प्रकाशित होने के बाद हिन्दी लेखकों और संपादकों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं में अछूत और स्त्री समस्या को उठाने लगे थे। हिन्दी लेखक अछूतों के लिए देवदर्शन और कुआँ से पानी भरने का मुद्दा अपने लेखन में उठाते नज़र आए। खुद रामरख सिंह सहगल चाँद पत्रिका में बाल विवाह और अस्पृस्यता पर कुठराघात करते नज़र आए। बाल विवाह और जातिप्रथा को लेकर कई संपादकीय चाँद पत्रिका में लिखे गए थे।
1928 में आनंदीप्रसाद श्रीवास्तव का 'अछूत' नाटक प्रकाशित हुआ था। इस नाटक में मंदिर से लेकर कुआं में पानी भरने के अधिकार का मुद्दा उठाया गया था। कांग्रेस ने भी अपने एजेंडा में अस्पृस्यता निवारण का मुद्दा जोड़ लिया था।
1929 में कांग्रेस ने अछूत समस्या के समाधान के लिए एक अछूतोद्धार सभा बनायी थी। इस अस्पृस्यता निवारण के सर्वेसर्वा पंडित मदनमोहन मालवीय और सेठ जमनालाल बजाज को बनाया गया था। इस अस्पृस्यता निवारण समिति ने ब्रिटिश शासकों को यह दिखाने का भरपूर प्रयास किया कि हिन्दू सुधारक अछूत समस्या को हल करने का प्रयास कर रहे हैं।
भारतीय परिपेक्ष्य में देखा जाए तो 'मदर इंडिया' का प्रकाशित होना किसी घटना से कम नहीं था। मिस कैथरीन ने बाल विवाह से लेकर प्रसूति गृह तक हिन्दू स्त्रियों को जिन भयंकर कठिनाइयों में जीवन व्यतीत करना पड़ता था उसका विषद और दिल दहलाने वाला वर्णन किया है।
मिस कैथरीन का दावा था कि हिन्दू स्त्रियों को भले ही देवी का दर्जा प्राप्त है लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति काफी दयनीय और दुश्वारियों से भरी थी। मिस कैथरीन ने स्त्रियों की वास्तविक दशा की ओर सुधारकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इस किताब का नाम मदर इंडिया रखा था।
इस किताब का दावा था कि भारत में अछूत सभी तरह के अधिकारों से वंचित है। यहाँ तक उच्च श्रेणी के हिन्दू उन्हें मनुष्य ही नहीं समझते हैं। उनके ऊपर असीम अत्याचार और जुल्म करते हैं। औपनिवेशिक भारत की यह किताब हिंदुओं की बड़ी कटु आलोचना प्रस्तुत करती है जिसकी हिन्दू सुधारकों ने कल्पना शायद ही की थी।
यह किताब दावा करती थी कि उच्च श्रेणी के हिन्दू स्वराज लायक नहीं है क्योंकि वे अछूतों और स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहर करते हैं। मिस कैथरीन की इस तीखी आलोचना से लाला लजपत राय, महात्मा गांधी और रवीद्रनाथ टेगौर जैसे बड़े सुधारक और लेखक तिलमिला गए थे।
लाला लाजपत राय ने तो मदर इंडिया के जवाब में ‘दुखी भारत’ जैसी किताब भी लिखी थी। महात्मा गांधी ने भी यंग इंडिया में कैथरीन की बड़ी तीखी आलोचना कर मदर इंडिया को सिरे से ख़ारिज़ कर दिया था। बड़ी दिलचस्प बात यह है कि हिन्दी लेखक भले ही इस किताब को कोरी कल्पना बता रहे थे लेकिन मदर इंडिया में स्त्री और अछूतों की दयनीय स्थिति के परिपेक्ष्य में कैथरीन ने जो तर्क और प्रमाण दिए थे, उन्हें हिन्दी लेखक झुठला नहीं सके थे।
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