ऐसा लगता है कि अनामिका सभी स्त्रियों को क़रीब से जानती हैं, सबके साथ रहती हैं और कभी वे उन्हें अजनबियों की तरह भी देखती हैं, उनसे पहचान करने की कोशिश करती हैं।
अलग दृष्टि
उनकी पहले की कविताओं से इस तरह से भिन्न नहीं है ये कि उसे आप किसी नई श्रेणी में रख दें, रखने के बारे में सोचना भी ठीक नहीं होगा। लेकिन उनकी अंतर्दृष्टि उनका पुनराविष्कार करती देखी जा सकती है।तुम्हारी गढ़ी मूर्तियाँ भी कभी
माटी-माटी जो हुईं-
तो भी कुछ है जो ठहर जाएगा-
जैसे आकाश ठहर जाता है,
दो शब्दों की फाँक में जैसे
अर्थ का अनंत पसर जाता है।
सबसे बड़ी बात है स्त्रियों से उनका भावनात्मक लगाव। उसी के बल पर वे एक नया भावलोक रचती हैं। चूँकि उनकी चिंता, उनका सरोकार किताबी या दिखावटी नहीं है इसलिए स्त्रियाँ उनकी कविताओं में जीवंत होती हैं।
एक रोज़ विजयलक्ष्मी बोली-
औरतों की इज़्ज़त
तिनकों का टोप नहीं, दादी,
जो एक फुफकार से उड़ ही जाएगी!
वह पीपल का पेड़ है बुढ़वा, उसकी जड़ें
धरती में रहती हैं गहरी गड़ी
आँधियाँ आती हैं, जाती हैं
लेकिन कथाएं रह जाती हैं नेकी-बदी की!
स्त्री मन
दरअसल, अनामिका स्त्री-मन के उन कोनों में प्रवेश करने में सफल रहती हैं, जहाँ नारेबाज़ी वाला नारीवाद नहीं जा पाता। वे स्त्रियों के मन को पढ़ने की कला में माहिर हैं, वे जानती हैं कि इस समाज में निर्मित स्त्री के दर्द और सपने कहाँ छिपे हुए हैं और उन्हें कैसे बाहर निकाला जा सकता है। यह आसान बात नहीं है।शूर्पणखा,
तुमसे कहूँ तो क्या
तुम तो बच्ची ही थी
मेरी बच्ची की मर की
दुनिया बेटी, देखो,
अब तक नहीं बदली
अब भी विकट ही है
हर यात्रा की कामना की
नन्हा-सा डैना उठा,
एक नन्हा रोआँ काँपा
कि छूटने लगते हैं तीर
चारों दिशाओं से
विशिष्ट भाषा
वे अपने चिर-परिचित छंद और शिल्प के साथ शब्दों को पिरोती हैं, उन्हें नए मायने देती हैं। इस क्रम में वे अपने विशाल शब्द-भंडार की तरफ भी बरबस हमारा ध्यान खींचती हैं।अनामिका के पास अपनी विशिष्ट भाषा है, जिसमें गाँव-गँवई के शब्द वैसे ही चले आते हैं जैसे शहरों में आकर बसे लाखों मज़दूर। वे घुले-मिले हैं, एक दूसरे से बतियाते हुए से लगते हैं। वे गर्व से तने हुए भी हैं और विनम्रता से झुके हुए भी। वे अपनी पीड़ा भी व्यक्त करते हैं और साहस भी।
बूढ़ी कहावतें
याद करें बूढ़ी कहावतें-इतना भी धीरे क्या बोलना,आप बोलें और कमरबंद सुनेबोलें, मुँह खोलें ज़रा डटकर,इतनी बड़ी तो नहीं है न दुनिया की कोई भी जेलकि आदमी की आबादी समा जाएऔर जो समा भी गई तो वहीं जेल के भीतर झन-झन-झनबोलेंगी हथकड़ियाँ ऐसे जैसे बोलती हैं कमरधनियाँ मिल-जुलकर मूसल चलाते हुए।इसीलिए उनकी कविताओं में उनके ज़रिए उनके मुहावरे, लोकोक्तियाँ और परिवेश भी चला आता है। ये स्त्री-परंपरा को पुनर्स्थापित ही नहीं करता, बल्कि उसे समृद्ध भी करता है।
पीड़ा
इस संग्रह में दो और चीज़ें ध्यान खींचती हैं। एक तो विस्थापन बस्तियों में रहने वाली स्त्रियों पर कई उपखंडों में लिखी उनकी कविताएं और दूसरी, निर्भया को लिखी कविताओं की श्रृंखला।प्रौढ़ाओं के प्रफुल्ल, श्वेत-श्याम केशों के
ठीक बीचोंबीच जहाँ पड़ता है सेनुर
ऐसा ही तो बीच का रास्ता,
होता है अतिथों के बीच कहीं
जहाँ न दिन होता है, न ही रात!
न घरमुहाँ राग, न कट्टर वैराग!
एक-दूसरे के जुएँ चुनतीं,
बीनती जीवन के सारे खटराग-
जानती हैं औरतें बीच का रास्ता
साम-दाम दंड-भेद से गुज़रता!
निर्भया
निर्भया पर लिखी कविताएं तो बहुत मार्मिक हैं। वे निर्भया को अपने आसपास के पंचतत्वों में हर जगह देखती हैं। वे उसे खुद में, अपनी बेटी में और हर औरत में देखती हैं। खेतों में, माटी में, पौधों में हवाओं में, हर जगह निर्भया के होने को महसूस कराती हुईं, उसके स्त्रीत्व को, उसके प्रेम और उसकी जीवटता को एक नए अंदाज़ में बयान करती हैं।जब भी चलती थी कातिक में हवा
कनकनाती हुई
पूछती थी निर्भया
संग-संग मेरी लगी
एक ढेर कपड़े पछीटती
ऐ अम्मा, क्यों है नदी इतनी ठंडी-
क्या बर्फ़ से इसने प्यार किया था कभी?
कल मिलीं थीं उन हत्यारों की शर्मिंदा माँएं-
‘भूल हुई, पर उनको सज़ा दिला देने से
निर्भया कहाँ आएगी वापस!
पछताते हैं, उनको मौक़ा दो,
सेवा करेंगे तुम्हारी!”
मैंने धीरे से कहा-“न्याय से बड़ी है करुणा लेकिन
ऐसे जघन्य कृत्य में एक सनद है सज़ा,
सनद रहे, निर्भया नहीं है अकेली,
निर्भया के पीछे सारा संसार खड़ा है।
न्याय से बड़ी है करुणा लेकिन
क्रूर कर्म के सार्वजनिक फ़ैसले में
निश्चित ही न्याय बड़ा है
ताकि सनद रहे!”
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