चुने हुए बांगला गीतों के अनुवाद पर आधारित रचना 'गीतांजलि' को नोबल पुरस्कार मिलने पर जब स्वदेश के लोगों ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मुक्तकंठ से प्रशंसा करना आरम्भ किया तब गुरुदेव ने उदास लहजे में यही कहा कि यह गीत तो मैंने पहले ही आपके लिए आपकी भाषा में लिख दिये थे, तब आपने इन पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा।
अब हिन्दी की रचनाकार गीतांजलि श्री को 'रेत समाधि' के अंग्रेजी अनुवाद पर अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है। भारत में, विशेष कर हिन्दी जगत में खुशी की लहर दौड़ गयी है। निस्संदेह यह एक बड़ी उपलब्धि है। अरुंधति राय और झुम्पा लाहिड़ी को उनकी अंग्रेजी की रचनाओं के लिए इससे पहले ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल हुई थीं। क्या गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार मिलने के बाद हिन्दी भाषी समुदाय की पढ़ने लिखने की रुचि में कुछ विस्तार होगा?
अभी तो अज्ञेय की कविता याद आती है-
'शाम सात बजे मंत्री ने पुस्तक विमोची
सुबह छह बजे अख़बार ने आलोची
प्रकाशक प्रसन्न हुआ
लेखक भी धन्न हुआ
दुख यही
कि पढ़ने की किसी ने नहीं सोची।'
हिन्दी पट्टी के एक से एक सम्पन्न लोगों के घरों को देखिये। आलीशान हैं। लेकिन उनके घरों में अच्छी किताबें तो छोड़िये किताबें रखने की अलमारी तक नहीं हैं। दीवालों पर किसी चित्रकार का चित्र तक नहीं है। कुछ सम्भ्रान्त परिवार अपवाद हैं। अन्यथा हिन्दी पट्टी के लोग इन सम्पन्न घरों के दालान में खड़ी गाड़ियों को देखकर लहालोट हुए जा रहे हैं।
कितनी महंगी गाड़ी में कौन बैठ रहा है, इसी से आदमी का महत्व आंका जा रहा है। अलमारी में कौनसी और कितनी किताबें हैं इसे देखने की फुर्सत किसे है।
उपेन्द्रनाथ अश्क ने एक बार कहा था कि हिन्दी में जितना लिखा है उतना यूरोप की किसी भाषा में लिखा होता तो अब तक नोबल पुरस्कार मिल गया होता।
हम सबको पता है कि अश्क जी को लिखना छोड़कर परचून की दुकान रखनी पड़ी थी और अलग-अलग भाषाओं के पत्रकार समझ नहीं पा रहे थे कि 'परचून' क्या है। कोई उसे चूने की दुकान बता रह था, तो कोई कोई चूने का अनुवाद 'लाइम' पढ़कर लिख रहा था कि अश्क नींबू बेच रहे हैं।
अज्ञेय को अगर अपवाद मानें तो हिन्दी के ज़्यादातर लेखक विपन्न और अभावों में क्यों रहे? पाठक समुदाय और साहित्यिक बिरादरी की उपेक्षा के कारण। चाहे वह निराला रहे हों या मुक्तिबोध। जीते जी मुक्तिबोध की कौन सी रचना छपी।
गीतांजलि श्री का अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से समादृत होना इस बात के लिए तो आश्वस्त करता ही है कि शायद हिन्दी का पाठक समुदाय अब अपने लेखकों की रचनाओं को खरीद कर पढ़ने की आदत डाले। उसे यह सलीका भी आये कि 'रेत समाधि' पढ़ने से पहले गीतांजलि श्री की 'माई' क्यों न पढ़ ली जाये। इसी तरह अपनी भाषा के या भारतीय भाषाओं के अल्पज्ञात, अचर्चित, अनाम लेखकों को भी क्यों न पढ़ा जाये और उनकी मौलिक अभिव्यक्ति और रचना कौशल को क्यों न देखा जाये।
'उत्पत्स्यते मम कोपि समानधर्मा कालोह्यम्कालो निरवधि विपुला च पृथिवि:।'
कितने लोगों को पता है कि रविन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी नोबल पुरस्कार से समादृत कृति 'गीतांजलि' एक चित्रकार को समर्पित की थी। उनका नाम था विलियम रोदेनस्टाइन।
सन् 1912 के आसपास जब रवीन्द्रनाथ लंदन गये तब चित्रकार रोदेनस्टाइन के घर ही ठहरे थे। नोबल पुरस्कार की घोषणा से पहले जिस कवि- गोष्ठी में टैगोर ने गीतांजलि की रचनाओं का पाठ किया वह रोदेनस्टाइन के घर की छत पर ही हुई थी। सी एफ एंड्रू्यूज चुपचाप बैठे सुनते रहे थे। एज़रा पाउंड और विलियम बटलर यीट्स पूरब की मनीषा से परिचित हुए। इसका निमित्त एक चित्रकार बना।
गीतांजलि श्री की रचना 'रेत समाधि' के कवर पेज पर चित्रकार अतुल डोडिया का चित्र सुशोभित है।
(जयंत सिंह तोमर की फ़ेसबुक वाल से साभार)
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