एक तरफ़ चकाचौंध भरी दुनिया में उम्मीदें लिए लोग खुद को खपा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ घुप अंधेरा लिए एक ऐसी भी दुनिया है, जहाँ बुनियादी ज़रूरतों को लेकर लंबा संघर्ष चल रहा है। यह संघर्ष पेट की आग बुझाने का है, न्याय पाने का है, अधिकारों के लिए लड़ने का है, हाशिए से आगे बढ़ मुख्यधारा से जुड़ने का है, लेकिन ये चीजें इतनी आसान नहीं हैं। 21वीं सदी का भारत अब भी इन मुद्दों को लेकर संघर्षरत है। न्यू इंडिया का नारा भले ही उत्साहित करने वाला हो, लेकिन असल भारत की तसवीर इससे मेल नहीं खाती, बल्कि एक भयावह सच से सामना कराती है।
हम लगातार सुनते आ रहे हैं कि भारतीय शहरों और गाँवों के बीच दूरी कम हो रही है, लेकिन क्या सच में ऐसा है? क्या सच में गाँवों की सूरत बदल रही है, अगर बदल रही है तो क्या वहाँ मूलभूत चीजों की जद्दोजहद कम हुई है? क्या अभावग्रस्त लोगों की स्थिति बेहतर हो सकी है, महिलाओं की दशा में बदलाव आया है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन्हें दुरुस्त किए जाने की ज़रूरत लंबे अरसे से चली आ रही है। नौकरशाहों से लेकर सरकार तक इन बातों को ज़रूर समझती होंगी, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस प्रयास होता दिख नहीं रहा है।
अभावग्रस्त, पीड़ा, अन्याय से भरी भारत की इन्हीं दुनिया को हमारे सामने लाने का प्रयास लेखक और पत्रकार शिरीष खरे ने अपनी हालिया किताब 'एक देश बारह दुनिया' में किया है। इस किताब में भारत के कई राज्यों की 12 दुनिया के बारे में ज़िक्र किया गया है, जो आज भी मुख्यधारा से दूर हैं और सामाजिक उथल-पुथल और संकटों से जूझ रहे हैं।
शिरीष खरे की किताब 'एक देश बारह दुनिया' आज के भारत और पाठकों के लिए क्यों महत्वपूर्ण है, यह समझने की ज़रूरत है।
यात्रा से निकलीं दर्दनाक कहानियाँ
यात्रा वृतांत साहित्य की एक प्रमुख और ज़रूरी विधाओं में से एक हैं। यात्राओं का जीवन में महत्व कितना होता है, ये शायद ही किसी से छुपा हो। अपने व्यक्तिगत संसार से निकलकर समष्टिगत अनुभवों से जोड़ने का काम यात्राएँ ही करती हैं। यायावर राहुल सांकृत्यायन की यात्राओं से जो रस निकला वो उनकी लेखनी के ज़रिए समझा जा सकता है, जिसकी महत्ता अब तक अनूठी बनी हुई है।
लेखक, पत्रकार शिरीष खरे ने भी भारत की असल तसवीर को समझने और समझाने के लिए यात्राओं का ही सहारा लिया है। उनकी इस किताब में महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे भारत के महत्वपूर्ण राज्यों की यात्राओं का अनुभव शामिल हैं, जिसे उन्होंने पत्रकारिता करते हुए जुटाया।
किताब की प्रस्तावना में शिरीष लिखते हैं, 'हर जगह मेरी कोशिश रही है कि समकालीन भारत की बेचैनी और विकट परिस्थितियों को सामूहिक चेतना का हिस्सा बना सकूँ। हर एक दुनिया के अधिक से अधिक भीतर घुस सकूँ और वहाँ के सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक संकटों की परतों को खोल सकूँ।'
किताब की प्रस्तावना में लिखी इन बातों से पूरी स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि लेखक किस दुनिया की ओर ले जाने की कोशिश में है। ऐसी दुनिया जो शासकीय कारणों से लंबे समय से सताया हुआ है, सामाजिक कारणों के कारण हाशिए पर छूटा हुआ है, लेकिन फिर भी आँखों में एक उम्मीद लिए है कि कभी कुछ तो बदलेगा।
लेखक ने किताब में घटनाओं को ज्यों का त्यों शामिल किया है, जिसे खुद उसका कभी यथार्थ रहा होगा, लेकिन लेखक का व्यक्तिगत यथार्थ ऐसे अनुभवों को समेटा हुआ है कि वह पूरे भारत की तसवीर खींचता है। भले ही कुछ राज्यों तक ही लेखक ने अपने काम को समेटे रखा, लेकिन उसमें इतनी सच्चाई है कि वह पूरे भारत का सच है।
शिरीष की लेखनी में उनकी साहित्यिक रूचि भी साफ़ उभरती है। बातों, घटनाओं को कितनी कलात्मक ढंग से बयां किया जाए, लेखक ने इसका विशेष ध्यान दिया है, ऐसे किताब पढ़ते हुए अनुभव होता है।
आँखों में पथराई उम्मीद
भारत की बड़ी जनसंख्या हाशिए पर है जो दो जून की रोटी की जुगत में अपना जीवन लगाए हुए हैं। सरकार के विकास के दावे उन तक कभी पहुँचे नहीं, अगर पहुँचे भी तो उनके लिए श्राप बन गए। कहीं किसी को विकास के नाम पर उनकी ज़मीनों से ही हटा दिया गया तो कहीं भूख से तड़पते बच्चों ने दम तोड़ दिया। कहीं महिलाओं को अपना जिस्म बेचकर ही अपना पेट पालना पड़ा तो कहीं किसानों ने बेहिसाब कर्ज में होने के कारण आत्महत्या कर ली।
क्या आज भी ऐसी ख़बरें हम नहीं सुनते हैं? जरा इत्मिनान से सोचिए कि इन ख़बरों को लेकर हम इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि अब हमारी प्रतिक्रिया सामान्य हो चुकी है, आख़िर क्यों?
इस आख़िर क्यों का जवाब ही शिरीष खरे की किताब 'एक देश बारह दुनिया' देती है और उन लोगों की कहानियों से रूबरू कराती है, जिनकी दुनिया को हमने सामान्य मान लिया है। ऐसी दुनिया जो सरकारों के लिए भी अब मायने नहीं रखती, लेकिन उस दुनिया के लोग किस कदर छटपटा रहे हैं और बाहर निकलने की कोशिश में लगे हैं, जिसका दस्तावेजीकरण लेखक ने लेखकीय और पत्रकारीय दृष्टि से ईमानदारी के साथ किया है।
किताब में महाराष्ट्र के मेलघाट में भूख से मरते बच्चे हों या कमाठीपुरा में जिस्म बेचती महिलाएँ, गन्ने के खेतों में खपते दंपति हों या घुमंतू जनजाति के अलग-थलग पड़े होना का दर्द, सूखती नर्मदा हो या राजस्थान में न्याय के लिए संघर्ष की लड़ाई, दंडकारण्य का लाल रंग हो या राहत की मांग लिए किसान। यह भारत की दुनिया है, जो दुनिया में तो खूब नाम कमा रहा है, लेकिन अपनी सच्चाइयों से बाबस्ता नहीं होना चाहता। यह पूरे भारत का दर्द है या कहें कि दर्द में ही पूरा भारत है।
किताब को पढ़ते हुए लगा कि लेखक ने कहीं भी झूठी दिलासा और आशा नहीं जगाई है, बल्कि पाठकों को पीड़ा की घूंट पिलाने की ही कोशिश की है। जैसे लेखक भी चाहता हो कि पीड़ा की दुनिया से बाहर के लोग पीड़ाओं के संसार को शब्दों के सहारे ही जिएँ, उनकी पथराई आंखें शब्दों से नम हों। इस प्रयास में शिरीष खरे बिल्कुल ठीक साबित हुए हैं।
जब हिंदुस्तान तेज गति से न्यू इंडिया का नारा लगाते हुए आगे बढ़ रहा है तभी उसके भीतर असमानता से भरी कई दुनिया भी बनी रही है, जो उसे ठीक उसी समय पीछे की ओर धकेल रही है। पीछे जाती इन्हीं दुनिया को हमें असमानता और पीड़ा से बाहर निकालने की ज़रूरत है। तभी हाशिए पर छूटे भारत की तसवीर बदली नज़र आ पाएगी।
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