प्रेमचंद के कैनवस के फटे जूते पर निगाह मुक्तिबोध की गई और उनके मित्र हरिशंकर परसाई की भी। जो फ़ोटो मुक्तिबोध ने देखी थी, वह प्रसाद के साथ थी। परसाईजी दूसरा फ़ोटो देख रहे हैं,
प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फ़ोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुर्ता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं। पाँवों में कैनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं। दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ - फ़ोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी – इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फ़ोटो में खिंच जाता है। लंबा उद्धरण देना बुरा माना जाता है लेकिन इस गद्य को धीरे धीरे पढ़िए। यह भी देखिए कि अपने ज़माने का एक माहिर लेखक अपने पूर्वज के बारे में कैसी बातें करता है,
मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढ़क सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फ़ोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफ़र ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुस्कान। यह मुस्कान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहने फ़ोटो खिंचा रहा है, पर किसी पर हँस भी रहा है! परसाईजी को यह हँसी व्यंग्य की, उपहास की हँसी जान पड़ती है।
वे उसका मतलब जानना चाहते हैं,
... तुम्हारी यह व्यंग्य-मुस्कान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुस्कान है यह? क्या होरी का गोदान हो गया? क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई? क्या सुजान भगत का लड़का मर गया, क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते? नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया। वही मुस्कान मालूम होती है। जीवन को हँसते हुए देखने वाली दृष्टि
अगर आप ध्यान दें तो जान पड़ेगा परसाईजी प्रेमचंद साहित्य से किसी भी तथाकथित हास्यपूर्ण प्रसंग का हवाला नहीं दे रहे। किसी हास्य-चरित्र का भी नहीं। हास्यपूर्ण प्रसंग गंभीर कथा-प्रवाह के भीतर भी डाले जाते हैं। पाठक को राहत देने के लिए। सच्चाई की यातना से उसका दम न घुट जाए, इसलिए। लेकिन एक दूसरी दृष्टि ही है जो जीवन को हँसते हुए देखती है। जीवन की अनिवार्य विडंबना, असंगति, तर्कहीनता, मूर्खता और मनुष्य की अहमन्यता, सब पर हँसी आती है।
मैं हँस सकता हूँ, यानी मैं ज़िंदा हूँ। न तो ईश्वरीय अन्याय मुझे तोड़ पाया है और न ही इंसानी नाइंसाफ़ी का निज़ाम। हँसना रणनीति है, लेकिन सिर्फ़ वही नहीं है। वह आत्मरक्षा का उपाय भर नहीं है। वह उससे कुछ अधिक है।
वह इस बात की घोषणा है कि मेरे जीवन पर मेरा नियंत्रण है। वह अगर बाहरी कारणों से अभिशाप भी है तो भी मैं उसपर अपना दावा नहीं छोड़ सकता। वह ज़िंदगी का ऐलान है।
ज़िंदगी का ऐलान करती हँसी
‘पूस की रात’ के किसान के दुःख से आज का किसान भी अच्छी तरह परिचित है। पूस की कड़ाके की ठंडवाली रात हल्कू अपने खेत की रखवाली करने आया है। कहानी के पहले ही दृश्य में हम देख चुके हैं कि ‘कम्मल’ के लिए बचाए गए रुपए लगान के तौर पर सहना को दिए जा चुके हैं:
हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपये कम्मल के लिए जमा किये थे। वह आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था।
अंतिम वाक्य पर ध्यान दीजिए। परिस्थिति की क्रूरता को व्यक्त करने के लिए इससे अधिक मारक या मर्मांतक कुछ कहा नहीं जा सकता था। दीनता के इस भार के तले प्रेमचंद के जाने कितने ही पात्र कुचले गए हैं!
फिर दृश्य बदलता है। हल्कू अब अपने खेत में है। फसल की हिफ़ाज़त करने। उसके साथ है उसका कुत्ता जबरा। ठंड दोनों को लग रही है। जो हल्कू अभी जैसे हारकर आया है, उसकी जबरे से गपशप चल रही है:
हल्कू ने घुटनियों को गरदन में चिपकाते हुए कहा- क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहाँ क्या लेने आये थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूँ? जानते थे, मैं यहाँ हलुवा-पूड़ी खाने आ रहा हूँ, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये। अब रोओ नानी के नाम को। ठंड भगाने के लिए हल्कू पत्ते बटोरता है कि उनका अलाव जला सके। फिर दोनों आग तापते हैं। लेकिन क्या दीनता हल्कू को ख़त्म नहीं कर पाई है? प्रेमचंद अपने इस प्रिय पात्र को मानो मुस्कराते हुए देखा रहे हैं :
हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पाँव फैला दिए, मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आये सो कर। ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था।
उसने जबरा से कहा- क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है?
जब्बर ने कूँ-कूँ करके मानो कहा- अब क्या ठंड लगती ही रहेगी?
‘पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते।’
जब्बर ने पूँछ हिलायी।
'अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें। देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बच्चा, तो मैं दवा न करूँगा।'
जब्बर ने उस अग्निराशि की ओर कातर नेत्रों से देखा!
'मुन्नी से कल न कह देना, नहीं तो लड़ाई करेगी।'
यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया। पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी। जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ।
हल्कू ने कहा- 'चलो-चलो इसकी सही नहीं! ऊपर से कूदकर आओ। वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया।'
कल्पना के पसीने से गढ़ी भाषा
प्रेमचंद की भाषा अक्सर दीखती नहीं है। लेकिन इस भुलावे में न रहिए कि वह उन्हें सड़क पर पड़ी मिल गई थी। यह भाषा है जिसे उन्होंने गढ़ा है कल्पना के पसीने से। आप उसे देखिए ज़रूर: ‘एक क्षण में उसने दोहर उतारकर बगल में दबा ली, दोनों पाँव फैला दिए, मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आये सो कर। ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था।’ जबरा अलाव को फलाँगने की हल्कू की चुनौती क़बूल करे, ऐसा बुद्धू नहीं। वह अलाव की परिक्रमा करके खड़ा हो जाता है। हल्कू जबरा की इस चतुराई पर उसकी ताड़ना करता है। यह खेल, यह चुहल सिर्फ़ ठंड से ध्यान भटकाने की हिकमत नहीं है।
प्रेमचंद के पाठक जानते हैं कि आख़िर जानवर खेत चर ही जाते हैं। सुबह उसकी पत्नी मुन्नी आती है :
दोनों फिर खेत के डाँड़ पर आये। देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों।
दोनों खेत की दशा देख रहे थे। मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था ।
मुन्नी ने चिंतित होकर कहा- अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।
हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा - रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।
यह जो प्रसन्न मुख है हल्कू का, क्या यह नियति को चिढ़ाने के लिए? मैं हारा नहीं, मैं जीवित हूँ। लेकिन इसमें एक मूक चीत्कार भी है। वे बेरहम ही होंगे जो हल्कू की इस प्रसन्न मुद्रा को एक आलसी मूर्खता का सबूत मानें जिसने ज़रा आराम में खेत गँवा दिया। इस कहानी में ज़ुबान पर लेखक की पकड़ देखते ही बनती है। लेकिन उसकी सहनुभूतिपूर्ण मुस्कान ने जैसे एक छाँव सी कर रखी है हल्कू और मुन्नी के निर्दय भाग्य पर। और वह जबरा को अंत तक नहीं भूला है।
सूक्ष्म हास्य
एक सूक्ष्म हास्य है इस कहानी में। इसे ही मैं वह हँसी कहता हूँ जो निगाह को रंग देती है। हास्य पैदा करने के गुर प्रेमचंद को मालूम हैं और वैसी चीजें भी आपको उनके यहाँ मिल जाएँगी। ऐसी जो सिर्फ़ ज़ुबान की चुहलबाज़ी है। जैसे, ‘आख़िरी हीला’ कहानी को ही ले लीजिए। एकदम शुरुआत:
यद्यपि मेरी स्मरण-शक्ति पृथ्वी के इतिहास की सारी स्मरणीय तारीखें भूल गयीं, वह तारीखें जिन्हें रातों को जागकर और मस्तिष्क को खपाकर याद किया था; मगर विवाह की तिथि समतल भूमि में एक स्तंभ की भाँति अटल है। न भूलता हूँ, न भूल सकता हूँ। शादीशुदा ज़िंदगी का यह पहलू :
शाम हुई और आप बदनसीब बच्चे को गोद में लिये तेल या ईंधन की दुकान पर खड़े हैं। अँधेरा हुआ और आप आटे की पोटली बगल में दबाये गलियों में यों क़दम बढ़ाये हुए निकल जाते हैं, मानो चोरी की है। सूर्य निकला और बालकों को गोद में लिये होमियोपैथ डाक्टर की दुकान में टूटी कुर्सी पर आरूढ़ हैं। किसी खोंचेवाले की रसीली आवाज़ सुनकर बालक ने गगनभेदी विलाप आरंभ किया और आपके प्राण सूखे। ऐसे बापों को भी देखा है, जो दफ़्तर से लौटते हुए पैसे-दो पैसे की मूँगफली या रेवड़ियाँ लेकर लज्जास्पद शीघ्रता के साथ मुँह में रखते चले जाते हैं कि घर पहुँचते-पहुँचते बालकों के आक्रमण से पहले ही यह पदार्थ समाप्त हो जाय। कितना निराशाजनक होता है यह दृश्य, जब देखता हूँ कि मेले में बच्चा किसी खिलौने की दुकान के सामने मचल रहा है और पिता महोदय ऋषियों की-सी विद्वता के साथ उनकी क्षणभंगुरता का राग अलाप रहे हैं।
ज़ाहिर है, सबका जीवन विवाहोपरांत ऐसा नहीं होता। लेकिन बहुलांश का होता है। इसलिए इस हँसी में इस जीवन की आलोचना भी है। बच्चे से बचाते हुए लज्जास्पद शीघ्रता के साथ मूँगफली या रेवड़ी खाते बाप या खिलौने की ‘क्षणभंगुरता का राग अलापते पिता’ का यह ज़िक्र ख़ासा मजाहिया है, लेकिन पढ़ते हुए एक हूक सी उठती है आपके मन में।
पत्नी को पास आने से रोकने के लिए काफ़ी हीला हवाला किया जाता है। हरेक के साथ पत्नी का आने का आग्रह बढ़ता ही जाता है। आख़िरी हीला लेकिन पति महोदय के लिए जानलेवा साबित होता है :
ना तमाचा अपने मुँह और पत्नी का असाध्य रोग की भाँति आ डटना! इस कहानी की जेंडर आग्रह की दृष्टि से आलोचना की जा सकती है और कौन जाने प्रेमचंद पुरुष की चतुराई की मूर्खता का ही आनंद ले रहे हों। पति और पत्नी के रिश्ते की बराबरी को लेकर उनके यहाँ कोई दुविधा नहीं है।
इस कहानी का युग्म ‘गिला’ नामक कहानी के साथ बन सकता है। ‘हीला’ एक पत्नी के साथ से सशंकित पति का एकालाप है तो’‘गिला’ एक आदर्शवादी पति की गृहस्थी संभालकर आजिज़ आई एक पत्नी का स्वागत कथन है। सिर्फ़ एक टुकड़ा देखिए :
ईश्वर की दया से आपके दो बच्चे हैं, दो बच्चियाँ भी हैं। ईश्वर की दया कहूँ; या कोप कहूँ। सब-के-सब उधमी हो गये हैं कि खुदा की पनाह! मगर क्या मजाल है कि यह भोंदू किसी को कड़ी आँखो से देखें! रात के आठ बजे गये हैं, युवराज अभी घूमकर नहीं आये। मैं घबरा रही हूँ, आप निश्चिंत बैठे अख़बार पढ़ रहे हैं। झल्लाई हुई जाती हूँ और अख़बार छीनकर कहती हूँ, जाकर जरा देखते क्यों नहीं, लौंडा कहाँ रह गया? न जाने तुम्हारा हृदय कितना कठोर है। ईश्वर ने तुम्हें संतान ही न जाने क्यों दे दी। पिता का पुत्र के साथ कुछ तो धर्म है। तब आप भी गर्म हो जाते हैं। अभी तक नहीं आया? बड़ा शैतान है। आज बचा आते हैं, तो कान उखाड़ लेता हूँ। मारे हंटरों के खाल उधेड़कर रख दूँगा। यों बिगड़कर तैश के साथ आप उसे खोजने निकलते हैं। संयोग की बात, आप उधर जाते हैं, इधर लड़का आ जाता है। मैं पूछती हूँ, तू किधर से आ गया? तुझे वह ढूँढ़ने गये हुए हैं। देखना, आज कैसी मरम्मत होती है। यह आदत ही छूट जायगी। दाँत पीस रहे थे। आते ही होंगे! छड़ी भी उनके हाथ में है। तुम इतने मन के हो गये हो कि बात नहीं सुनते! आज आटे-दाल का भाव मालूम होगा। लड़का सहम जाता है और लैंप जलाकर पढ़ने बैठ जाता है।
महाशयजी दो-ढाई घंटे के बाद लौटते हैं; हैरान, परेशान और बदहवास। घर में पाँव रखते ही पूछते हैं, आया कि नहीं?
मैं उनका क्रोध उत्तेजित करने के विचार से कहती हूँ- आकर बैठा तो है, जाकर पूछते क्यों नहीं? पूछकर हार गयी, कहाँ गया था, कुछ बोलता ही नहीं।
आप गरजकर कहते हैं- मन्नू, यहाँ आओ।
लड़का थरथर काँपता हुआ आकर आँगन में खड़ा हो जाता है। दोनों बच्चियाँ घर में छिप जाती हैं कि कोई बड़ा भयंकर कांड होनेवाला है। छोटा बच्चा खिड़की से चूहे की तरह झाँक रहा है। आप क्रोध से बौखलाये हुए हैं। हाथ में छड़ी है ही, मैं भी वह क्रोधोन्मत्त आकृति देखकर पछताने लगती हूँ, कि कहाँ से इनसे शिकायत की? आप लड़के के पास जाते हैं, मगर छड़ी जमाने के बदले आहिस्ते से उसके कंधों पर हाथ रखकर बनावटी क्रोध से कहते हैं- तुम कहाँ गये थे जी? मना किया जाता है, मानते नहीं हो। ख़बरदार, जो अब कभी इतनी देर होगी। आदमी शाम को घर चला आता है, या मटरगश्ती करता है?
मैं समझ रही हूँ कि यह भूमिका है। विषय अब आयेगा। भूमिका तो बुरी नहीं; लेकिन यहाँ तो भूमिका पर इति हो जाती है। बस, आपका क्रोध शांत हो गया। बिलकुल जैसे क्वार की घटा घेर-घार हुआ, काले बादल आये, गड़गड़ाहट हुई और गिरी क्या चार बूँदें ! लड़का अपने कमरे में चला जाता है और शायद खुशी से नाचने लगता है।
मैं पराभूत होकर कहती हूँ- तुम तो जैसे डर गये। भला दो-चार तमाचे तो लगाये होते! इसी तरह तो लड़के शेर हो जाते हैं।
आप फरमाते हैं- तुमने सुना नहीं, मैंने कितने ज़ोर से डाँटा! बचा की जान ही निकल गयी होगी। देख लेना, जो फिर कभी देर में आए।
'तुमने डाँटा तो नहीं, हाँ, आँसू पोंछ दिये।'
'तुमने मेरी डाँट सुनी नहीं?'
'क्या कहना है, आपकी डाँट का ! लोगों के कान बहरे हो गये। लाओ, तुम्हारा गला सहला दूँ।'
प्रसन्न भाषा
आप मानेंगे कि यह वह प्रसन्न भाषा है जो सिर्फ़ उसी की हो सकती है जो जीवन को एक प्रसाद की तरह ग्रहण कर सकता हो, जो उसे मजबूरी की तरह न जीये। वह लिख रहा है तो किसी राष्ट्रीय कर्तव्य की भाँति नहीं। वह सिर्फ़ आपको अपनी निगाह के जद में शामिल करना चाहता है! आपसे कुछ गप लड़ाना चाहता है। आपको क़िस्सा सुनाना चाहता है। वह यह भी नहीं भुलाना चाहता है वह कि भाषा की अपनी एक सत्ता है, उसका अपना जीवन है, उसे गढ़ने में, रूप देने में पीढ़ियाँ लगी हैं। क्या इस नेमत को यों ही जाने दें! ‘बड़े घर की बेटी’ में एक गिरते रईस के घर के वर्णन का यह अंदाज़ :
गाँव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्ति-स्तंभ थे। कहते हैं इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ शेष न रहा था; पर दूध शायद बहुत देती थी; क्योंकि एक न एक आदमी हॉँड़ी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था।
प्रेमचंद को ग्रामीण यथार्थ का रचनाकार कहा गया है। यों ही नहीं! वे गाँव की रग-रग पहचानते हैं। इसी कहानी में जब इस घर में कलह पैदा होता है तो गाँव भर की बाँछें खिल जाती हैं,
इस बीच गाँव के और कई सज्जन हुक्के-चिलम के बहाने वहाँ आ बैठे। कई स्त्रियों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने को तैयार हैं, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणियाँ सुनने के लिए उनकी आत्माएँ तिलमिलाने लगीं।
लिखना ही आनंद का ज़रिया
यह भाषा वह नहीं लिख सकता जिसके लिए लिखना ही आनंद का ज़रिया न हो। वह समाज को दिशा दिखलाने के लिए, उपदेश देने के लिए, उसके लिए नीति निर्धारित करने के लिए नहीं लिखता। वह लिखता है क्योंकि लिखने में उसे मज़ा आता है।
यह ज़रूर है कि साहित्य वही उत्तम है जो मनुष्य को ऊँचा उठाता हो। अगर वह उसे उसकी अभी की सतह से ऊपर उठने में, औरों को समझने में, उनसे बराबरी और समझदारी का रिश्ता बना पाने में मदद नहीं करता तो प्रेमचंद की निगाह में उसकी कोई वक़त नहीं।
हास्यपूर्ण चरित्र
जैसा हमने कहा, प्रकटतः हास्यपूर्ण चरित्र भी प्रेमचंद ने गढ़े हैं। इस प्रसंग में किसी को मोटेराम शास्त्री याद न आएँ, यह नामुमकिन है। मोटेराम शास्त्री ही ऐसा एक चरित्र है जिसे लेकर एक से अधिक कहानियाँ प्रेमचंद ने लिखीं। इसका मज़ा उन्हें दूसरे तरीक़े से मिला। 1928 की जनवरी में माधुरी में ‘मोटेराम शास्त्री’ नाम से एक कहानी प्रेमचंद ने छपाई।
इसमें एक वैद्य का ख़ाका खींचा गया है और उनका ख़ासा मज़ाक़ बनाया गया है। एक वैद्य महोदय, शालिग्राम शास्त्री को या तो यक़ीन हुआ या जैसा अमृत राय लिखते हैं, ‘करा दिया गया कि हो न हो मोटेराम शास्त्री आप ही हैं और आप ही को जलील करने के लिए यह कहानी लिखी गई है।’ फिर क्या था! मुंशीजी के ख़िलाफ़ शास्त्रीजी ने मानहानि का मुक़दमा ठोंक दिया। लेकिन फिर मुंशीजी ने वही किया जो उनकी तरह का शरारती दिमाग़ ही कर सकता था। उन्होंने एक सफ़ाई पेश की। सफ़ाई पढ़िए,
… मज़मून इस इरादे से लिखा गया था कि किसी नीम हकीम का ख़ाका खींचा जाए।
…मुलज़िम...पंडित शालिग्राम शास्त्री को एक शरीफ़ आदमी समझते हैं जो इल्मे वैदिक व संस्कृत व हिंदी के आलिम हैं। मुलज़िमान क़तई यह नहीं समझते हैं और न उनकी यह ख्वाहिश है कि वह जैसे कुछ हैं उसके अलावा और किसी सूरत में उनका ख़ाका खींचा जाए।
अमृत राय बादवाले नुक़्ते में जो दो मानी छिपे हैं,उनकी तरफ़ इशारा करते हैं। मुंशीजी ने ऊपर से किया यह कि कहानी दुबारा छाप दी और यह स्पष्टीकरण साथ और लगा दिया,
इस निर्दोष कहानी के संबंध में पंडित शालिग्राम शास्त्री को यह भ्रम हुआ था कि यह उनपर लिखी गई है। ….पर जब संपादकों ने अदालत को विश्वास दिलाया कि यह एक कुत्सित वैद्य पर व्यंग्य प्रहसन मात्र है —शास्त्रीजी से इसका कोई संबंध नहीं है तो ये संतुष्ट हो गये और अब उनका यह विश्वास है कि यह कहानी उनको लक्ष्य करके नहीं लिखी गयी है।इस तरह प्रेमचंद ने निश्चित किया कि जिसने कहानी पहले नहीं भी पढ़ी होगी, वह अब पढ़ ले। खोल में लिपटी सादगी
पुत्र अमृत अपने पिता की इस शरारत को जो ‘सादगी के खोल’ में लिपटी है, खूब पहचानता है। बाद में प्रेमचंद ने खूब रस लेकर मोटेराम शास्त्री के जन्म और उनकी यात्रा का वर्णन ‘माधुरी’ में किया। 1921 में लिखे उपन्यास ‘जलवए ईसार’(वरदान) में इनकी पहली आमद हुई। फिर ‘मनुष्य का परम धर्म’ में इनके दर्शन हुए, सत्याग्रह’ में साक्षात् पधारे, निमंत्रण’ में अपने दिव्य दर्शन दिए और फिर गुरुमंत्र में इनकी बाँकी झाँकी देखने को मिली। ‘निर्मला’ में इनकी व्यवहारकुशलता दिखलाई पड़ी और बाद में ‘साहित्यिक समालोचक’ में इनके जीवन चरित्र का एक और पटल दीख पड़ा।
प्रेमचंद अपने इस प्रिय चरित्र के गुण गिनाते हैं: आदर्श दम्भी, पेटू, धूर्त, आतंक और यशोविस्तार के इच्छुक। व्याख्याता, लीडर भी बनना चाहते हैं और धर्माचार्य और साहित्यवेत्ता भी।
लेकिन उनकी एक विशेषता है उनकी विफलता। इस लेख में एक बार फिर प्रेमचंद उस मुक़दमे का ज़िक्र कर डालते हैं, जो उनपर अपनी हतक का इल्ज़ाम लगाकर पंडित शालिग्राम शास्त्री ने किया था। ज़ाहिर है, प्रेमचंद ठिठोली कर रहे हैं, लेकिन वह उन्हें पसंद है। उनके पसंदीदा लेखक रतननाथ सरशार की एक खूबी वे यह गिनाते हैं कि बेधड़क मखौल का कोड़ा लगाते हैं। आम तौर पर नरम तबीयत के प्रेमचंद को कभी-कभी मखौल की चाबुक उठाने से कोई परहेज़ नहीं!
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