केरल में वामपंथी पार्टियाँ अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। फिलहाल देशभर में सिर्फ़ केरल में ही वामपंथी सत्ता में हैं और अगर लोकसभा चुनाव में यहाँ उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा तो यहाँ से भी उनके सफाये की भूमिका तैयार हो जाएगी।
केंद्र में अलग-अलग मुद्दों पर कांग्रेस का समर्थन करने वाली वामपंथी पार्टियों को राहुल गाँधी के केरल से चुनाव लड़ने पर ज़ोर का झटका लगा है।
केरल में तिरुवनंतपुरम, कासरगोड और पल्लाकाड सीटों पर ही बीजेपी मुक़ाबले में है यानी इन सीटों पर मुक़ाबला त्रिकोणीय है और बाक़ी 17 सीटों पर एलडीएफ़ और यूडीएफ़ के बीच सीधी टक्कर है।
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक़, बीजेपी अगर केरल में कहीं से अपना खाता खोल सकती है तो वह तिरुवनंतपुरम की सीट ही हो सकती है। बीजेपी ने सबरीमला मंदिर आंदोलन के जरिये हिन्दू मतदाताओं के ध्रुवीकरण की पूरी कोशिश की लेकिन कांग्रेस ने भी इस आंदोलन में जनभावना का ही साथ दिया जिससे बीजेपी की रणनीति कामयाब नहीं हो पायी।
राहुल गाँधी की चुनावी दंगल में मौजूदगी से वामपंथियों की नींद उड़ गई है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ़ ने 20 में से 12 सीटें जीती थीं, जबकि एलडीएफ़ को 8 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। जबकि 2016 में हुए विधानसभा चुनाव में एलडीएफ़ ने कांग्रेस की सरकार को हटाने में कामयाबी हासिल की थी। 140 विधानसभा सीटों में एलडीएफ़ को 91 सीटें मिली थीं जबकि यूडीएफ़ को सिर्फ़ 47 सीटें।
विधानसभा चुनाव में एक बड़ी बात यह भी हुई कि पहली बार बीजेपी का कोई उम्मीदवार केरल में विधायक बन पाया। वरिष्ठ नेता राजगोपाल केरल विधानसभा में पहुँचने वाले बीजेपी के पहले नेता बने। इस कामयाबी के बाद बीजेपी ने केरल में पूरी ताक़त से काम करना शुरू किया।
वामपंथियों को यह चिंता भी सता रही है कि सबरीमला मंदिर आंदोलन में उसके कड़े रुख की वजह से हिंदुओं का एक बड़ा धड़ा उससे दूर हो गया है।
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि वामपंथियों के प्रति मुसलमानों की बढ़ती नज़दीकी को ख़त्म करने के मक़सद से ही राहुल गाँधी ने ख़ुद केरल से चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया है।
वामपंथियों को राहुल गाँधी की वजह से ही ईसाई मतदाताओं के भी खिसकने का डर सता रहा है। यानी बात साफ़ है। सबरीमला मंदिर आंदोलन की वजह से वामपंथियों का हिन्दू वोट बैंक बीजेपी और कांग्रेस की ओर चला गया। वामपंथियों के ख़िलाफ़ एक और बात जा रही है। जब भी वामपंथी सत्ता में होते हैं तब विरोधियों पर हमले की घटनाएँ ज़्यादा होती हैं। राजनीतिक हिंसा की वजह से भी कई लोग वामपंथियों से ख़फ़ा हैं।
युवाओं को खींच पाने में विफल
वामपंथियों के लिए एक और बड़ी समस्या यह है कि वे युवाओं को अपनी ओर खींचने में कामयाब नहीं हो रहे हैं। युवा या तो कांग्रेस के साथ जा रहे हैं या बीजेपी के साथ। वामपंथी पार्टियों में युवा नेताओं की कमी है और पुराने नेताओं की पारंपरिक और रूढ़िवादी शैली से कई लोग नाख़ुश हैं। मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की उम्र 75 साल है और वे भी पहली बार मतदान करने जा रहे युवाओं को वामपंथी पार्टियों की ओर आकर्षित करने में कामयाब नहीं हो पाये हैं।
सत्ता में होने के बावजूद केरल में वामपंथी पार्टियाँ बैकफ़ुट पर दिखती हैं और डिफ़ेंसिव खेल खेलती नज़र आ रही हैं। वहीं, कांग्रेस और बीजेपी अटैकिंग मोड में हैं। केरल की सभी 20 लोकसभा सीटों पर 23 अप्रैल को मतदान होगा।
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