केरल में गुरुवार को 30 हज़ार से ज़्यादा कोरोना संक्रमण के मामले आए। एक दिन पहले 31 हज़ार केस आए थे। यही नहीं, पूरे देश में जहाँ संक्रमण के मामले घटे हैं तो केरल में लगातार संक्रमण के मामले ज़्यादा आ रहे हैं। जून के बाद से लगातार मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। तो क्या एक समय कोरोना नियंत्रण के लिए जिस केरल मॉडल की तारीफ़ देश ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में हो रही थी वह 'टांय-टांय फिस्स' साबित हुआ है?
आख़िर क्या वजह है कि देश के बाक़ी हिस्सों से अलग केरल में संक्रमण के मामले इतने ज़्यादा आ रहे हैं? क्या इसके पीछे की वजह ओणम पर्व है? केंद्र सरकार ने जिस तरह से चिंता जताई है उससे तो यही संकेत मिलते हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने गुरुवार को 'ओणम से आई केसों में बढ़ोतरी' की समीक्षा की। इसमें राज्य में अपनाई जा रही रोकथाम रणनीति पर ध्यान केंद्रित किया गया। कांग्रेस पार्टी ने भी मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की सरकार द्वारा स्थिति के कथित कुप्रबंधन की आलोचना की। कांग्रेस नेता शशि थरूर ने भी कोरोना रोकने के लिए प्रशासन की विफलता को ज़िम्मेदार ठहराया।
संक्रमण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं और इसको रोकने में केरल सरकार फ़िलहाल सफल होती नहीं दिख रही है। केरल में कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए आख़िर क्या किया जा रहा है। वामपंथी पार्टियों द्वारा शासित केरल में कोरोना संक्रमण के जितने मामले आ रहे हैं और इसको लेकर बीजेपी शासित केंद्र की ओर से जिस तरह रिपोर्टें जारी की जा रही हैं उससे इस सवाल का जवाब देना ज़्यादा मुश्किल नहीं होगा।
लेकिन केरल में ऐसे हालात क्यों हैं? क्या वहाँ दूसरे राज्यों की अपेक्षा ख़राब ढंग से निपटा जा रहा है? केंद्र सरकार के ही आँकड़े केरल की जो वास्तविक तसवीर पेश करते हैं वह बेहद अलग है।
केरल में व्यवस्था क्या है और संक्रमण बढ़ने के बावजूद विशेषज्ञ केरल के प्रयासों की क्यों तारीफ़ें कर रहे हैं, यह जानने से पहले यह यह जान लें कि मौजूदा स्थिति क्या है। राज्य में गुरुवार को 30 हज़ार से भी ज़्यादा संक्रमण के मामले आए और 162 लोगों की मौत हुई। राज्य में अब सक्रिए मामलों की संख्या भी क़रीब 1.7 लाख है। पॉजिटिविटी रेट 17 फ़ीसदी से ज़्यादा है। 5 फ़ीसदी से ज़्यादा यह रेट होने पर ख़तरनाक स्थिति होती है। अब जाहिर है, केरल की यह स्थिति ख़तरनाक तो है ही।
तो दूसरे सभी राज्यों में कोरोना के हालात केरल से काफ़ी बेहतर कैसे हैं?
संक्रमण के आँकड़े चेताने वाले ज़रूर हैं, लेकिन अक़्सर सुर्खियाँ बन रही हैं कि केंद्रीय टीमें भेजी जा रही हैं। यह बताया जा रहा है कि किन हालातों की वजह से संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं।
केरल में कभी सोशल डिस्टेंसिंग जैसे कोरोना प्रोटोकॉल के उल्लंघन तो कभी कोरोना मरीजों की निगरानी में लापरवाही और टीकाकरण की कमी को इस विस्फोट का सबसे बड़ा कारण बताया जा रहा है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है कि केरल में सबसे ख़राब व्यवस्था है या कुछ और वजह है? क्या हो यदि केरल में संक्रमण के मामलों की जितनी सटीक रिपोर्टिंग हो रही है उतनी किसी और राज्य में नहीं हो रही हो?
हाल ही में सीरो सर्वे में यही बात सामने आई थी। सीरो सर्वे में उन लोगों की जाँच की जाती है जिन्हें कोरोना की जाँच नहीं की गई है कि उनको कभी कोरोना हुआ था या नहीं। इस सर्वे में पता चला कि केरल में यह पॉजिटिविटी दर 44 फ़ीसदी थी जबकि पूरे देश में क़रीब 68% थी। यूपी, बिहार और एमपी जैसे राज्यों में तो यह क़रीब 75 फ़ीसदी थी। इससे पता चलता है कि केरल कोरोना संक्रमण को रोकने में किसी भी दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक सफल रहा है। यह एक उपलब्धि है। खासकर तब जब केरल में जनसंख्या घनत्व काफ़ी ज़्यादा है और यह इस मामले में दूसरे स्थान पर है और लगभग 50% शहरी आबादी है।
अन्य राज्यों के साथ केरल में भी संक्रमण के मामले ज़्यादा रहे हैं। केरल में अनुपातिक रूप से ज़्यादा बुजुर्ग आबादी और 20 में से एक व्यक्ति मधुमेह के रोगी होने के बावजूद इसकी मज़बूत स्वास्थ्य प्रणाली बहुत कम मृत्यु दर सुनिश्चित करने में सक्षम थी। क़रीब एक पखवाड़े पहले तक का आँकड़ा है कि राष्ट्रीय स्तर पर 1.3 से अधिक की तुलना में केरल में मृत्यु दर सिर्फ़ 0.5 है।
राज्य में संक्रमण के मामले की रिपोर्ट ज़्यादा होने, 30 हज़ार से ज़्यादा केस आने और सक्रिय मामले क़रीब 1.7 लाख होने के बावजूद कोविड के लिए आईसीयू बेड व वेंटिलेटर और कुल कोविड बेड अभी भी क़रीब 50 फ़ीसदी खाली हैं।
केरल में पिछले साल अक्टूबर में और फिर इस साल मई में दो बार संक्रमण के मामले चरम पर थे, लेकिन स्वास्थ्य प्रणाली की इस हद तक हालत नहीं थी कि लोगों को बिस्तर या ऑक्सीजन नहीं मिल सके और नदियों में लाशें तैरती मिलें।
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