मोदी ने लेफ़्ट पार्टियों पर हमला बोला और कहा कि जो पार्टियाँ किसान आंदोलन का समर्थन कर रही हैं, वे केरल जैसे अपने राज्यों में न तो एपीएमसी लागू करती हैं, न मंडियों और एमएसपी का ही ज़िक्र करती हैं।
हाल ही में किसानों की दान पेटिका में सरकारी 'दान' डालते हुए उन्होंने अपने भाषण में वामपंथी दलों को ललकारते हुए सवाल किया, "वे वहां क्यों नहीं आंदोलन शुरू करतीं? क्यों वे पंजाब के किसानों को ही भड़काने का काम कर रही हैं?"
केरल में भी प्रदर्शन
केरल के कृषिगत समाजों की वस्तुस्थिति जानने से पहले यह जान लेना चाहिए कि कृषि क़ानूनों के विरोध में और कृषि सुविधाओं की दूसरी मांगों को लेकर केरल के प्रत्येक ज़िले में किसानों के धरने और प्रदर्शन चल रहे हैं। बीते 20 दिनों से राजधानी तिरुअनंतपुरम में हज़ारों किसान सुबह 7 बजे से लेकर शाम 7 बजे तक नियमित धरना दे रहे हैं। मीडिया में उनके वीडियो और तसवीरें देखी जा सकती हैं। सिर्फ़ क्रिसमस त्यौहार पर एक दिन के लिए उन्होंने छुट्टी की थी।
पीएम का यह कहना कि केरल में कभी एपीएमसी एक्ट नहीं था, पूर्ण सत्य से परे है। केरल के मुख्य कृषि उत्पाद का संसार चाय, कॉफ़ी, मसालों और रबड़ आदि से परिपूर्ण है।
उपभोक्ता विपणन बोर्ड
साल 1960 में जबकि देश के अन्य राज्यों में एपीएमसी लागू करने की बात चल रही थी, तब केरल में इनकी चर्चा ही नहीं हुई, क्योंकि वहाँ इन प्रमुख कृषि उत्पादों के लिए केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के उपभोक्ता विपणन बोर्ड, जैसे 'टी बोर्ड', 'कॉफ़ी बोर्ड', 'इलायची बोर्ड' और 'रबड़ बोर्ड' आदि बतौर केंद्रीय मार्किट मौजूद थे, जिसका संचालन खुद केन्द्रीय सरकार करती थी।
ये बोर्ड नियमित मंडियों या मार्किट जैसे थे। ये सभी बोर्ड किसानों से इन कृषिगत पैदावारों का 85-90 प्रतिशत कृषि उत्पाद स्वयं नीलामी करके खरीद लेते थे, ज़ाहिर है ऐसा होने से उनके शोषण की सभी संभावनाएं मिट जाती थीं।
धान, सब्ज़ियाँ आदि दूसरे उत्पादों की बात करें, जिनका वहाँ बहुत सीमित उत्पादन था, बीते 50-60 सालों में केरल को अपनी ज़रूरतों का 70-80 प्रतिशत बाकी राज्यों से खरीदना पड़ता था। इसलिए इनके अतिरिक्त उत्पादन न होने के चलते मंडियों की ज़रुरत नहीं होती थी।
केंद्र की वजह से बोर्ड बदहाल
1990 के दशक में, ‘उदारवाद’ की आँधी चलनी शुरू हो जाने के बाद, केंद्रीय सरकार इन सभी विपणन बोर्डों की ख़रीद और दूसरी प्रोत्साहन योजनाओं के लिए की जाने वाली फंडिंग घटाती चली गई, जिसकी वजह से उन बोर्डों की क्रय क्षमता ख़त्म होती गई।
उदाहरण के तौर पर, साल 1996 में 'कॉफ़ी बोर्ड' ने कॉफ़ी की ख़रीद और दूसरी प्रोत्साहन योजनाओं से पूरे हाथ खींच लिए, जिसके चलते कॉफ़ी के दाम भरभरा कर गिर गए और उत्पादक किसान गहरे संकट में आ गया।
वायनाड जैसे सबसे बड़े कॉफ़ी उत्पादक ज़िले में सन 97-98 के बाद से बड़े पैमाने पर शुरू हुईं कॉफी किसानों की आत्महत्याओं की वजहें यही है।
ऐसा ही संकट चाय, मसाले और रबड़ जैसे दूसरे उत्पादों के क्षेत्र में भी खड़ा हो गया। केरल के चाय, कॉफ़ी, मसालों और रबड़ आदि के निर्यात से केंद्र सरकार को प्रति वर्ष लगभग 15 हज़ार करोड़ रुपये की आय 'फ़ॉरेन एक्सचेंज' के बतौर होती है।
क़र्ज राहत
2007 में जीत कर आई वाम मोर्चा सरकार ने ज़रूरतमंद किसानों से बड़े पैमाने पर 'क़र्ज़ राहत' के आवेदन मांगे। इन आवेदनों की जांच करके सरकार द्वारा क़र्ज़ माफ़ी दे दी गई। परिणाम यह हुआ कि वायनाड जैसे ज़िलों में आत्महत्या बिलकुल रुक गईं।
आम क़र्ज़ माफ़ी का राजनीतिक नारा यहीं से चल निकला। बाक़ी राजनीतिक पार्टियों ने इसे सीखा और अपने-अपने राज्यों में आव्हान देना शुरू किया। इन उपभोक्ता विपणन बोर्डों की फंडिंग किसी राजनीतिक पार्टी की केंद्र सरकार ने दुबारा चालू नहीं की है।
सरकारी ख़रीद
जहाँ तक बात धान जैसी कृषि पैदावार की है, बेशक जिनका उत्पादन ज़रूरत से ख़ासा कम होता है, राज्य की वाम मोर्चा सरकार इसका 80-90 प्रतिशत स्वयं खरीदती है। इन पर केंद्र का 'एमएसपी मूल्य' तो लागू करवाती ही है, इसके अतिरिक्त वह एक ‘टॉपअप' मूल्य भी अदा करती है।
बोनस जैसा यह मूल्य प्रति वर्ष बदलता रहता है। इस वर्ष यह प्रति कुंतल 800 रुपया है। यानी केरल के किसान को देश का सर्वाधिक ऊंचा 'एमएसपी' मिलता है। इस वर्ष यह 26 सौ रूपये (1800+800) की दर से है।
ख़रीद के लिये सरकार ने कोऑपरेटिव संगठनों को नियुक्त कर रखा है। सरकार उनसे धान लेकर उनका भुगतान कर देती है। इसी तरह 'राईस मिलों' को निर्देश हैं कि वे ख़रीददारी कर लें, सरकार उन्हें 'कम्पनसेट' कर देती है।
केंद्र से डरा किसान
केंद्र सरकार के अनाजों के दामों की रूपरेखा तैयार करने वाले आयोग-'सीएसीपी' (कमीशन फॉर एग्रीकल्चर एंड क्रॉप प्राइसेज) ने तीन साल पहले यह सिफारिश की थी कि जो राज्य सरकारें किसानों को 'बोनस एमएसपी' देकर केंद्र सरकार की राष्ट्रव्यापी एमएसपी दर को खंडित करती हैं, उन पर केंद्र सरकार की ओर से जुर्माना बतौर एमएसपी भुगतान बंद कर दिया जाए।
यह सिफारिश यद्यपि अभी तक लागू नहीं हुई है लेकिन केरल का किसान डरा हुआ है। यदि यह सिफारिश लागू होती है तो वे 'बोनस' प्राप्त करने से वंचित रह जाएंगे। आयोग की यह सिफारिश उसकी किसान विरोधी नीति को स्पष्टतः दर्शाती है।
सब्जियाँ
केरल अपनी ज़रूरत भर की 20-25% सब्ज़ियों का उत्पादन ही करता आया है। 2016 में चुनकर आई वाम मोर्चा सरकार ने इनके उत्पादन को बढ़ाने की नियत से अपनी 'बेयर हाउसिंग' और 'कोल्ड स्टोरेज' भण्डारण क्षमता का बड़े पैमाने पर विकास किया।
बीते 4 वर्षों में यहाँ सब्ज़ियों का उत्पादन दुगना हुआ है यद्यपि ज़रूरत के हिसाब से यह अभी भी बहुत कम है। राज्य सरकार अभी इसके 4 गुना विस्तार की तैयारी में जुटी है।
इस वर्ष उन्होंने उत्पादन को और भी प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से 15 सब्ज़ियों के 'बेसमेंट प्राइस' बढ़ाते हुए घोषणा की कि यदि खुले बाज़ार में इससे कम दाम मिलेगा तो सरकार स्वयं इसे खरीद लेगी।
देश में सब्ज़ियों के ऊपर 'बेसमेंट प्राइस' की किसी भी राज्य सरकार की यह पहली योजना है जिसका न सिर्फ़ किसानों को लाभ हो रहा है बल्कि नियंत्रित बाजार के चलते आम उपभोक्ता भी राहत की सांस लेता है।
केरल में किसानों को सरकारी मदद
प्रधानमंत्री की 6 हज़ार रुपये की सालाना किसान राहत योजना पर नरेंद्र मोदी से लेकर पूरी बीजेपी को बड़ा रश्क़ है। इतराने वाले इस 'अहसान के बोझ' से इतर यदि केरल की तुलना की जाए तो वहाँ राज्य सरकार धान के किसान को अनुदान स्वरुप प्रति हेक्टेअर एक फ़सल का 55 सौ रुपये देती है।
इसके अलावा ग्राम पंचायतें (केरल में ग्राम पंचायतें बहुत सशक्त हैं) अपनी फंडिंग से 17 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेअर प्रति फ़सल का भुगतान करती है। इस साल से सरकार ने 2 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेअर उन किसानों को देना शुरू किया है जो अपने खेतों को खाली नहीं छोड़ते।
इस प्रकार एक फ़सल पर केरल के किसानों को 24 हज़ार 500 रुपये का अनुदान मिलता है। यदि वे रबी और ख़रीफ़-दोनों फसलें करते हैं तो प्रति वर्ष उन्हें 49 हज़ार रुपये अनुदान स्वरूप मिलते हैं।
2018 में आई भीषण बाढ़ ने केरल के 12 ज़िलों की कृषि की फसलों को बहुत नुक़सान पहुँचाया। अगले साल आई बाढ़ ने भी लगभग 8 ज़िलों में ताबाही मचाई, इसके बावजूद अनुमान किया जा रहा है कि 21-22 तक का केरल का कृषिगत ढाँचा बहुत सुधार कर सकेगा।
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