इस पूरे मसले पर दो संवैधनिक सवाल खड़े होते हैं। पहली बात यह कि क्या राज्यपाल वजूभाई वाला को स्पीकर को सलाह देने का अधिकार है या नहीं और दूसरा यह कि क्या स्पीकर राज्यपाल की बात मानने के लिए बाध्य हैं या नहींं।
संवैधानिक परंपरा और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के संदर्भ में यह बात साफ़ कही जा सकती है कि राज्यपाल वजूभाई वाला ने अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन किया है। उन्हें स्पीकर को विश्वास मत पर वोट कराने का न तो आदेश और न ही सलाह देने का कोई अधिकार है। अरुणाचल प्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में राज्यपाल और स्पीकर, दोनों के अधिकारों का बिल्कुल साफ़-साफ़ जिक्र किया है।
पाँच जजों की बेंच ने फ़ैसले में यह लिखा, ‘राज्यपाल किसी भी हालत में स्पीकर को आदेश नहीं दे सकते कि वह अपना काम कैसे करें। राज्यपाल न तो स्पीकर के गाइड हैं और न ही उनके मार्गदर्शक। राज्यपाल यह क़तई तय नहीं कर सकते कि स्पीकर ने अपने अधिकारों का निर्वहन संविधान के मुताबिक़ किया है या नहीं।’ सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़, स्पीकर और राज्यपाल, दोनों ही स्वतंत्र संवैधानिक संस्थाएँ हैं।
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला बिलकुल स्पष्ट है कि राज्यपाल को विधायकों की ख़रीद-फरोख़्त के मामले से अपने आप को दूर रखना चाहिए। यह ख़रीद-फरोख़्त भले ही नैतिक रूप से कितनी ही वीभत्स क्यों न हो। यानी सुप्रीम कोर्ट यह कहना चाहता है कि विधायकों की ख़रीद-फरोख़्त का बहाना लेकर राज्यपाल राजनीतिक प्रक्रिया में दख़ल नहीं दे सकते।
सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट तौर पर कहना है कि राज्यपाल सिर्फ़ एक काम कर सकते हैं कि वह अपनी रिपोर्ट महामहिम राष्ट्रपति को यह बताते हुए भेज सकते हैं कि संविधान के मुताबिक़, राज्य में सरकार चलना मुश्किल हो गया है। यह रिपोर्ट देने के बाद वह महामहिम राष्ट्रपति के आदेश का इंतजार करना चाहिए।
ऐसे में राज्यपाल वजूभाई वाला की सलाह के बावजूद स्पीकर का विधानसभा को अगले दिन के लिए स्थगित करना संविधान और सुप्रीम कोर्ट के दायरे में बिलकुल सही है।
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