कड़ी सुरक्षा के बीच 31 अगस्त को हुबली के ईदगाह मैदान में गणेश चतुर्थी मनाई गई। लेकिन इस बीच यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुँच गया। अब यह गणेश उत्सव इस मैदान में आगे भी मनेगा या नहीं, यह सुप्रीम कोर्ट तय करेगा। लेकिन इसके तय करने से पहले कर्नाटक उच्च न्यायालय ने मंगलवार देर रात को इसकी हरी झंडी तो दे ही दी।
इसी के ख़िलाफ़ अंजुमन-ए-इस्लाम ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है। धारवाड़ के नगर आयुक्त द्वारा हिंदू संगठनों को हुबली-धारवाड़ ईदगाह मैदान में गणेश चतुर्थी मनाने की दी गई अनुमति पर रोक लगाने से इनकार करने वाले कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी गई है। तो सवाल है कि इस पर फ़ैसला किसके पक्ष में आएगा? आख़िर इसका विवाद क्या है?
वैसे, इस ईदगाह मैदान पर साफ़ तौर पर विवाद 1970 के बाद पैदा हुआ। एक समय इस पर काफ़ी तनाव भी बढ़ा। पुलिस फायरिंग में कई लोगों की जानें तक गई थीं। लेकिन उस घटना के बाद से कई दशक तक इस पर वैसी घटना या वैसा तनाव नहीं हुआ है। पहले भी ऐसा तनाव नहीं था।
हुबली के जिस ईदगाह मैदान को लेकर यह विवाद है उसका स्थानीय मुसलमानों द्वारा रमज़ान और बकरीद की नमाज़ अदा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार, कहा जाता है कि आज़ादी से पहले के दशकों में जमीन पर विभिन्न राजनीतिक दल बैठकें करते थे और वहाँ मेले भी लगते थे।
रिपोर्ट के अनुसार, हुबली नगर पालिका द्वारा 20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में भूमि का अधिग्रहण किया गया था। 1921 में अंजुमन-ए-इस्लाम ने नगर पालिका के सामने मुसलमानों को मैदान में नमाज़ अदा करने की अनुमति देने के लिए याचिका दायर की। नगर पालिका ने उसको स्वीकार कर लिया, और भूमि अंजुमन को 999 वर्षों के लिए पट्टे पर दी गई थी। बाद में बॉम्बे प्रेसीडेंसी की सरकार द्वारा पट्टे के समझौते की पुष्टि की गई।
1972 में अंजुमन ने एक वाणिज्यिक परिसर का निर्माण करने की कोशिश की और बाद में एक संरचना खड़ी की गई। अंजुमन के इस कदम को कानूनी चुनौती दी गई। उसमें कहा गया कि 1921 के लीज समझौते में इसकी अनुमति नहीं थी।
कर्नाटक उच्च न्यायालय और निचली अदालतों के आदेश के बाद 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने भी यह फैसला सुनाया कि ईदगाह मैदान हुबली-धारवाड़ नगर निगम की संपत्ति थी और अंजुमन के पास केवल जमीन पर साल में दो बार प्रार्थना करने का लाइसेंस था और उस पर कोई स्थायी संरचना नहीं बनाया जाना चाहिए।
1990 के दशक में रामजन्मभूमि आंदोलन के संदर्भ में भूमि विवाद ने एक राजनीतिक-सांप्रदायिक मोड़ ले लिया। 1992 में राष्ट्रीय ध्वज को उस जगह पर फहराने का प्रयास किया गया था, जिसे तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने यह कहते हुए रोक दिया था कि इससे शहर में सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा। यह तर्क दिया गया था कि ध्वज को विवादित संपत्ति में नहीं फहराया जा सकता है।
लेकिन 1994 में बीजेपी नेता उमा भारती ने घोषणा की थी कि वह स्वतंत्रता दिवस पर मैदान में तिरंगा फहराएँगी। राज्य सरकार ने कर्फ्यू लगा दिया, लेकिन उमा भारती और उनके समर्थकों का एक समूह किसी तरह शहर में प्रवेश कर गया। हालाँकि उन्हें मैदान से क़रीब एक किलोमीटर दूर गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन तब पुलिस फायरिंग में छह लोगों की मौत हो गई थी और कस्बे में तनाव की स्थिति थी।
हालाँकि इस घटना के बाद सांप्रदायिक हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं हुई।
इसी ईदगाह मैदान मामले में मंगलवार देर रात को कर्नाटक हाई कोर्ट ने सुनवाई की। उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता अंजुमन-ए-इस्लाम की दलील पर कहा कि बेंगलुरु के चामराजपेट में ईदगाह मैदान में यथास्थिति बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश हुबली-धारवाड़ मामले में लागू नहीं होता है। उच्च न्यायालय ने कहा कि हुबली-धारवाड़ में कोई मालिकाना विवाद नहीं था, यह स्पष्ट है कि संपत्ति धारवाड़ नगर पालिका की है और याचिकाकर्ता एक लाइसेंसधारी था जिसे वर्ष के कुछ तय दिनों में ही नमाज की अनुमति थी।
बता दें कि 30 अगस्त की शाम को सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की बेंच ने बेंगलुरु के ईदगाह मैदान में गणेश चतुर्थी समारोह करने देने से मना कर दिया था और यथास्थिति बनाए रखने को कहा गया।
अपनी राय बतायें