इंडिया टुडे-एक्सिस माइ इंडिया के एग्ज़िट पोल यह पाया गया था कि हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री पद के लिए पहली पसंद के रूप में उभरे हैं। सर्वे में भाग लेने वाले 29 प्रतिशत लोगों ने मुख्यमंत्री के रूप में जेएमएम के नेता हेमंत सोरेन को चुना।
कांग्रेस नेता और पूर्व गृह राज्य मंत्री आर.पी.एन. सिंह ने इसका कारण बताते हुए कहा कि उनकी पार्टी ने सभी स्थानीय मुद्दे उठाए, जबकि बीजेपी का पूरा प्रचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के इर्द-गिर्द ही रहा।
सोरेन की रणनीति
इसके साथ यह बात भी अहम है कि चुनाव प्रचार की कमान भी हेमंत सोरेन के ही हाथ में थी। यह सोरेन की रणनीति थी कि चुनाव में स्थानीय मुद्दों को उठाया जाए, बीजेपी से उसके 5 साल के कामकाज का हिसाब माँगा जाए और उसे उसके मैदान पर ही पटकनी दी जाए।दूसरी ओर, बीजेपी इस चुनाव में भी भावनात्मक और राष्ट्रीय मुद्दे उठा रही थी, जो यहाँ की जनता के लिए बहुत अहम नहीं हैं। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यह मान लिया था कि ग़ैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बना कर वे उनके वोट बटोर लेंगे। मुख्यमंत्री बनने के बाद रघुवर दास ने सबको लेकर चलने की नीति नहीं अपनाई, उन्होंने विरोधियों को कुचलने का रास्ता चुना। वह बेहद अलोकप्रिय मुख्यमंत्री साबित हुए। इस बार वह अपनी ही सीट पर जूझ रहे हैं। पर्यवेक्षकों का कहना है कि उनकी हार की आशंका ज़्यादा है, जीत की संभावना कम।
नहीं चला 370, एनआरसी
यह भी साफ़ है कि लोगों ने जन भावनाओं को उभार कर वोट हथियाने की बीजेपी की रणनीति को खारिज कर दिया है। झारखंड के चुनाव में भी नरेंद्र मोदी ने कश्मीर और नैशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) के मुद्दों को भुनाने की कोशिश की। उन्हे लगा था कि महाराष्ट्र की तरह जनता इन बातों को सुनेगी।चुनाव के मुद्दे उठाने के मामले में भी हेमंत सोरेन बाज मार गए। उन्होंने किसी सभा में किसी तरह की भावनात्मक मुद्दे को उठाया ही नहीं। वे बीजेपी के मुद्दों पर किनारा करते रहे और चुप्पी साधे रहे। लेकिन सरकार के कामकाज पर बीजेपी को घेरते रहे।
2016 का आन्दोलन
हेमंत सोरेन झारखंड के बहुत बड़े नेताओं में एक शिबू सोरेन के बेटे हैं। बीजेपी अगुआई वाली झारखंड सरकार ने 2016 में छोटा नागपुर टीनेंसी एक्ट और संथाल परगना टीनेंसी एक्ट में संशोधन की कोशिश की थी। इसके तहत यह प्रावधान किया जा रहा था कि आदिवासी अपनी ज़मीन ग़ैर-आदिवासियों को ग़ैर-कृषि मक़सद से पट्टे पर दे सकते थे। इसके अलावा सड़क, नहर, अस्पताल जैसे ‘सरकारी मक़सदों’ के लिए भी आदिवासियों की ज़मीन का इस्तेमाल किया जा सकता था।इससे हेमंत सोरेन राज्य के बड़े नेता बन कर उभरे और उनका कद पहले से बड़ा हो गया। इसके अलावा आदिवासियों के बीच उनकी छवि जल-ज़मीन-जंगल बचाने वाले जुझारु नेता के रूप में बनी। इसका फ़ायदा उन्हें इस चुनाव में मिला।
आदिवासी संस्कृति का मुद्दा
इसी तरह सोरेन ने एक सोची समझी रणनीति के तहत ही शराब बिक्री करने के लिए लाइसेंस जारी करने के राज्य सरकार के फ़ैसले का ज़ोरदार विरोध किया था। हेमंत सोरेन ने बेहद होशियारी से इसे झारखंड की संस्कृति से जोड़ा। झारखंड की आदिवासी संस्कृति में स्थानीय और चावल से बनाई गई हड़िया और महुआ की शराब का चलन है। लेकिन यह शराब उस शराब से बिल्कुल अलग होती है, जिसे हम इंडिया मेड फॉरन लिकर कहते हैं।सोरेन ने महिलाओं से आग्रह किया कि वे इसके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरें और मोर्चाबंदी करें। सरकार को अपने फ़ैसले से पीछे हटना पड़ा। यह भी हेमंत सोरेन की जीत थी। इसे भी आदिवासी संस्कृति से जोड़ने की वजह से उनकी छवि चमकी। इस चुनाव में उन्हें इसका भी फ़ायदा मिला।
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