आतंकवादियों और सुरक्षा बलों के बीच की लड़ाई में पल रहा कश्मीर का बचपन तेज़ी से बदल रहा है। बम विस्फोट, मुठभेड़, अपहरण, पेलेट गन और गोलीबारी के बीच बढ़ रहे बच्चों का रुझान उस तरह के खेलों की ओर हो रहा है, जो शेष भारत में नहीं खेले जाते या कश्मीर में भी पहले नहीं खेले जाते थे। इन खेलों में आतंकवाद की छाप दिखती है, बच्चों में मन पर हिंसा का बढ़ता प्रभाव दिखता है।
शेष भारत के बच्चे जिस तरह चोर-पुलिस खेलते थे, कश्मीर के बच्चे मुजाहिद-मिलिट्री यानी आतंकवादियों और सुरक्षा बलों का खेल खेलते हैं। इसमें कुछ बच्चे मुजाहिदीन यानी आतंकवादी बनते हैं, नारे लगाते हैं, और उनमें से एक सेना का अफ़सर बनता है जो सबकी सुरक्षा जाँच करता है, उनकी तलाशी लेता है।
मुजाहिद-मिलिट्री!
एक खेल मुठभेड़ का होता है, जिसमें आतंकवादी और सुरक्षा बलों के जवान के बीच ‘मुठभेड़’ होती है, और उसमें कुछ आतंकवादी ‘मारे जाते हैं। इसी तरह बच्चे लकड़ी की बनी बंदूक़ों और एके-47, एके 56 जैसे असॉल्ट राइफलों का भी इस्तेाल करते हैं और आपस में एक दूसरे पर गोलीबारी करते हैं। शेष भारत में जिस तरह दीवाली के पटाखे चलाने वाले पिस्टल या रिवाल्वर लोकप्रिय होते हैं, जम्मू-कश्मीर में अब वैसा नहीं है। वहाँ के बच्चों के बीच एके-47, एके 56 जैसे असॉल्ट राइफलों और बमों का चलन बढ़ रहा है।
बच्चों की मनोचिकित्सा क्यों?
इंस्टीच्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइन्सेज़ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अप्रैल 2018 और मई 2019 के बीच सिर्फ़ श्रीनगर में 3,66,906 लोगों को मनोचिकित्सकों के पास जाना पड़ा। इसमें बड़ी तादाद बच्चों की थी। इंस्टीच्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइन्सेज़ का कहना है कि राज्य में मनोचिकित्सकों के पास जाने वाले बच्चों की तादाद बढ़ती ही जा रही है। साल 2016 में जहाँ 17,000 बच्चों को मनोचिकित्सकों के पास ले जाना पड़ा था, साल 2019 में अब तक 30 हज़ार बच्चे ऐसे डॉक्टरों के पास गए हैं।
जम्मू-कश्मीर कोएलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटीज़ ने अपने रिपोर्ट में कहा है कि साल 2018 में राज्य में हिंसा में 586 लोग मारे गए, जिनमें 160 नागरिक हैं। यह तादाद पूरे दशक में राज्य में इस तरह की हिंसा में मारे जाने वालों में सबसे ज़्यादा है।
अनिश्चित वातावरण में पल रहे बच्चे!
इसे जम्मू-कश्मीर पीपल्स मूवमेंट के शाह फ़ैसल के बयान से समझा जा सकता है। ब्यूरोक्रेट से राजनेता बने फ़ैसल ने कुछ दिन पहले पत्रकारों से कहा था, ‘हमारे बच्चे अनिश्चित वातावरण में पल रहे हैं।’इसी तरह डॉक्टरों के स्वयंसेवी संगठन मेडीसिन्स सान्स फ्रांतियर्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जम्मू-कश्मीर के लगभग तीन चौथाई लोगों को मानसिक या मनोवैज्ञानिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
दरअसल ऐसा सिर्फ कश्मीर में नहीं हो रहा है। दुनिया के तमाम सशस्त्र संघर्ष वाले इलाकों के बच्चे ज़बरदस्त मानसिक और मनौवज्ञानिक संकट से जूझ रहे हैं।
कॉनफ़्लिक्ट ज़ोन के बच्चे!
अंतरराष्ट्रीय ग़ैर-सरकारी संगठन सेव द चिल्ड्रेन ने एक अध्ययन में पाया है कि दुनिया के अलग-अलग संघर्ष क्षेत्रों यानी कॉनफ्लिक्ट ज़ोन में लगभग 42 करोड़ बच्चे रहते हैं। इनमें से 14.2 करोड़ बच्चे उन इलाक़ों में रहते हैं, जिन्हें हाई इन्टेंसिटी कॉनफ्लिक्ट ज़ोन माना जाता है। हाई इन्टेंसिटी कॉनफ्लिक्ट ज़ोन उन जगहों को कहा जाता है जहाँ हर साल संघर्षों में कम से कम एक हज़ार लोग मारे जाते हैं। फ़िलहाल यमन, दक्षिण सूडान, कैमरून और म्यांमार के रोहिंग्या-बहुल इलाक़ों को हाई इन्टेंसिटी कॉनफ्लिक्ट ज़ोन माना जाता है। फ़लस्तीन को अब ऐसा नहीं माना जाता है क्योंकि वहाँ अब हिंसा की छिटपुट वारदात ही होती है। अमेरिकन एसोशिएसन ऑफ़ पेडिएकट्रिक्स अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जिन जगहों पर सशस्त्र संघर्ष चलता है, वहाँ की स्वास्थ्य सेवाएँ बुरी तरह प्रभावित होती हैं, बच्चों को स्वास्थ्य से जुड़ी बुनियादी देखभाल भी नहीं मिल पाती है।
स्वास्थ्य से जुड़ी ढाँचागत सुविधाएँ मसलन अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र या एम्बुलेन्स नहीं मिलती हैं। स्वास्थ्य कर्मी मसलन डॉक्टर, नर्स, पैरामेडिकल स्टाफ़ नहीं मिलते हैं। कई जगहों पर वे विद्रोहियों की हिंसा का शिकार होते हैं तो कई जगहों पर सरकारी सेनाएँ उन्हें परेशान करती हैं। सप्लाई चेन छिन्न भिन्न हो जाती हैं, यानी दवाएँ और दूसरी ज़रूरी चीजों की सप्लाई रुक जाती है।
कॉनफ़्लिक्ट ज़ोन में बच्चों को विद्रोहियों के विस्फोटों, हमलोें का शिकार होना होता है तो सुरक्षा बलों की गोलियों, पेलेट गन, आँसू गैस, लाठीचार्ज वगैरह का शिकार भी इन बच्चों को होना होता है।
सशस्त्र संघर्ष वाले इलाक़ों में बच्चों को सांस के रोग, डायरिया, चेचक, मलेरिया और कुपोषण का शिकार होना होता है।
अमेरिकन एसोशिएसन ऑफ़ पेडिएकट्रिक्स ने अपनी रपट में कहा है कि कॉनफ़्लिक्ट ज़ोन के बच्चों को शारीरिक घावों के अलावा मानसिक कठिनाइयों का भी सामना करना होता है। पीटीएसटी यानी पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर, डिप्रेसन, एनजाइटी होता है। इन बच्चों में बिहेवेरियल एंड साइकोमेटक शिकायतें भी पाई जाती हैं।
इस संस्था ने अलग-अलग कॉनफ़्लिक्ट ज़ोन के जिन 8 हज़ार बच्चों का अध्ययन किया, उनमें से 47 प्रतिशत में पीटीएसडी, 43 प्रतिशत में डिप्रेशन और 27 प्रतिशत में में एनजाइटी की शिकायतें पाई गईं। इन बच्चों में डर, चुप रहने की स्थिति, दूसरों का ध्यान खींचने की कोशिश करने की प्रवृत्ति, बात बात पर गुस्सा करना, बेवजह रोने और हमेशा उदास रहने की शिकायतें पाई गईं।
कश्मीर के ज़्यादातर बच्चे बम विस्फोट, गोलीबारी, मुठभेड़, अपहरण, गिरफ्तारी, पेलेट गन, कर्फ़्यू, हड़ताल और बंदी में बड़े हो रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि उनमें कई बच्चों में एनोरेज़िया नर्वोसा (बेवजह डरने), डिप्रेशन, एन्यूरेसिस (सोए में बिस्तर गीला करना) की शिकायतें पाई जाती हैं। कई बहुत कम उम्र में सिगरेट पीना सीख लेते हैं।
सवाल यह है कि आख़िर ऐसा कब तक होता रहेगा? इससे बाहर निकलने का क्या उपाय है? विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार कम से कम इतना तो कर ही सकती है कि कश्मीर और दूसरे कॉनफ़्लिक्ट ज़ोन में मनोचिकित्सा का बेहतर इंतजाम करे। संघर्ष नहीं रुका तो कम से कम उससे प्रभावित लोगों, ख़ास कर बच्चों का इलाज तो किया जा सके। मौजूदा कश्मीर में यह भी मुश्किल है।
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