जम्मू-कश्मीर में बकरीद के ठीक पहले क़त्लखानों के बाहर जानवरों की क़ुर्बानी नहीं करने से जुड़े एक सरकारी आदेश पर विवाद के बाद सरकार ने यू-टर्न ले लिया है। क़त्लखानों के बाहर जानवरों की क़ुर्बानी पर रोक लगाने के फ़ैसले पर सरकार का कहना है कि क़ुर्बानी पर रोक नहीं लगाई गई है।
इस विवाद की शुरुआत जम्मू-कश्मीर पशुपालन विभाग के योजना निदेशक जी. एल. शर्मा की उस चिट्ठी से हुई जिसमें उन्होंने वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से कहा कि क़त्लख़ाने के बाहर किसी जानवर को ग़ैरक़ानूनी ढंग से नहीं मारा जाना चाहिए।
क़ुर्बानी पर रोक?
इस चिट्ठी में कहा गया कि 21 से 23 जुलाई के बीच बकरीद के मौके पर बड़े पैमाने पर जानवरों की क़ुर्बानी दी जाने की संभावना है। पशु कल्याण और पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकने से जुड़े नियमों का सख़्ती से पालन किया जाना चाहिए और उनका उल्लंघन करने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
इसका विरोध इस आधार पर हुआ कि श्रीनगर के बाहर क़त्लखाने नहीं है, और राज्य की राजधानी में भी ऐसे क़त्लख़ाने गिने चुने ही हैं, गाँवों में तो क़त्लखाने होते ही नहीं हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि लोग जानवरों की क़ुर्बानी कैसे देंगे।
मुसलिम धर्मगुरुओं के संगठन मुत्तहिदा मजलिस उलेमा (एमएमयू) ने इस आदेश पर हैरत जताते हुए कहा कि 'बकरीद के मौके पर जानवरों की क़ुर्बानी को पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने के नाम पर ग़ैरक़ानूनी बताया जा रहा है।'
एमएमयू ने इसके आगे कहा कि 'प्रशासन को मनमर्जी से इस तरह के आदेश नहीं जारी करने चाहिए जिससे मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन होता हो।'
यू-टर्न
इससे विवाद उठ खड़ा हुआ तो प्रशासन ने इस पर यू-टर्न ले लिया। शर्मा ने कहा है कि उनकी बात को ठीक समझा नहीं गया। उन्होंने कहा है कि क़ुर्बानी पर रोक नहीं लगाई गई है।
इसके बाद पशु व भेड़ पालन विभाग ने भी कहा कि पशु कल्याण बोर्ड हर साल इस तरह की सलाह जारी करता है, इस बार भी किया, जिसे आगे बढ़ा दिया गया। इसमें नया कुछ नहीं है।
प्रशासन ने सफाई देते हुए कहा कि यह आदेश सिर्फ म्युनिसपल इलाक़ों के लिए है, ग्रामीण इलाकों के लिए नहीं। गाँवों में लोग जिस तरह अब तक क़ुर्बानी करते आए हैं, इस बार भी कर सकते हैं।
सरकार ने ज़ोर देकर कहा है कि क़ुर्बानी पर रोक नहीं लगाई गई है।
2019 में कैसे मनी थी बकरीद?
जम्मू-कश्मीर में बकरीद को लेकर विवाद 2019 में हुआ जब इसके कुछ दिन पहले ही संविधान में संशोधन कर राज्य का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया गया और लॉकडाउन लगा दिया गया था।
राज्य में नमाज़ के दौरान पाबंदियों में ढील भी दी गई थी। प्रशासन ने किसी भी अनहोनी से बचने के लिए अलग-अलग इलाक़ों की स्थानीय मसजिदों में ईद की नमाज़ के लिए इजाज़त तो दी थी, लेकिन घाटी की बड़ी मसजिदों में ज़्यादा संख्या में लोगों के इकट्ठे होने की इजाज़त नहीं दी थी। प्रशासन को शक था कि असामाजिक तत्व बड़ी भीड़ का फ़ायदा उठाने की कोशिश कर सकते थे।
सरकार ने दावा किया था कि त्योहार मनाने के लिये सुविधाएँ उपलब्ध करायी गयीं और इस काम में ख़ुद जवान भी जुटे। प्रशासन ने बयान जारी किया कि जम्मू के पाँच ज़िले में प्रतिबंध को हटा लिया गया था। बड़ी संख्या में लोग ख़रीदारी करने बाहर निकले। श्रीनगर में 2.5 लाख बकरे और मेमने की ख़रीद-फ़रोख्त हुई।
प्रशासन की निगरानी में ईद!
साफ़ तौर पर कहें तो प्रशासन और सुरक्षा बलों की निगरानी में कश्मीरी लोगों ने ईद मनाई थी। उनको प्रशासन और सुरक्षा बलों की हिदायत को मानते हुए ही ईद मनाने की छूट थी। अनुच्छेद 370 में फेरबदल के बाद के माहौल में इससे ज़्यादा की उम्मीद भी भी नहीं की जा सकती थी।
ऐसी स्थिति रहने के संकेत राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के सड़क पर कश्मीरियों के साथ बातचीत और उनके साथ खाना खाने वाले वीडियो जारी करने से भी मिले थे जिसमें वह यह संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि घाटी में सबकुछ ठीक है।
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