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क्या पाकिस्तान कश्मीर में एथनिक क्लींजिंग चाहता है?

क्या पाकिस्तान की खुफ़िया एजेन्सी आईएसआई ने अफ़ग़ानिस्तान में मिली कामयाबी के बाद जम्मू-कश्मीर पर एक बार फिर ज़ोर दिया है?

क्या उसकी रणनीति घाटी के अल्पसंख्यक हिन्दुओं को निशाने पर लेकर उन्हें अपने घर-बार से बाहर शेष भारत के अलग-अलग हिस्सों में भेज देना है ताकि इसलामी गणराज्य की उनकी स्थापना की कोशिश को एक तरह से वैधता मिल सके?

क्या जम्मू-कश्मीर में एक तरह की 'एथनिक क्लीनजिंग' की पाकिस्तानी रणनीति के पीछे उसकी मंशा यह साबित करना है कि उस इलाक़े में एक ही समुदाय के लोग रहते हैं? या आईएसआई भारत सरकार और उसके सत्तारूढ़ दल बीजेपी को एक तरह से चुनौती दे रहा है?

आईएसआई की सुनियोजित रणनीति जम्मू-कश्मीर में 1990 के दशक जैसी स्थिति पैदा कर अल्पसंख्यक हिन्दुओं के मन में ऐसा खौफ़ पैदा कर देने की है कि वे इसलामी आतंकवाद का विरोध करने के बजाय अपना घर-बार छोड़ कर ही भाग जाएं।

क्या हुआ था 1990 के दशक में?

  • राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि 1990 के दशक का कुछ समय भारतीय धर्मनिरपेक्षता ही नहीं, इसके संविधान पर और धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक शासन प्रणाली पर एक बदनुमा धब्बे की तरह है।
  • इस दौर के आतंक की शुरुआत सितंबर 1989 में हुई जब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट ने श्रीनगर में वकील टीका लाल टपलू को उनके घर के बाहर गोली मार दी थी। 
  • इसका मक़सद घाटी के हिन्दुओं के मन में डर फैलाना था ताकि वे आतंकित होकर राज्य छोड़ कर चले जाएं।
  • लेकिन यह तो शुरुआत भर थी। इसके बाद नवंबर 1989 में हाई कोर्ट के जज नीलकंठ गंजू को अदालत के पास गोली मार दी गई। गंजू वही जज थे, जिन्होंने आतंकवादी मक़बूल बट्ट को मौत की सज़ा सुनाई थी।
  • इसके एक महीने बाद दिसंबर 1989 में जेकेएलएफ़ के आतंकवादियों ने केंद्रीय गृह मंत्री मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी डॉक्टर रुबिया सईद का अपहरण कर लिया।
  • उन्हें बाद में छोड़ दिया गया। यह कहा गया था कि उनकी रिहाई के बदले केंद्र सरकार ने पाँच आतंकवादियों को गुपचुप रिहा कर दिया था, हालांकि इसकी पुष्टि कभी नहीं हो सकी।

खुले आम धमकी

लेकिन इसके बाद आतंकवादियों का मनोबल बढ़ गया और कश्मीरी पंडितों को खुलेआम धमकियाँ दी जाने लगीं।

श्रीनगर से छपने वाले अख़बार 'आफ़ताब' ने 4 जनवरी 1990 को आतंकवादी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन के हवाले से एक मैसेज छापा था, जिसमें हिन्दुओं को धमकी दी गई थी और उनसे राज्य छोड़ कर चले जाने को कहा गया था।

इसके बाद श्रीनगर से ही छपने वाले अख़बार 'अल सफ़ा' ने 14 अप्रैल 1990 को ऐसी ही सामग्री छापी थी।

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इसलामी क़ानून

इसके बाद राजधानी में दीवालों पर पोस्टर चिपकाए गए, जिसमें जम्मू-कश्मीर के सभी लोगों से इसलामी नियम क़ानून मानने को कहा गया था और ऐसा न करने पर धमकी दी गई थी।

इसके तहत शराब, वीडियो, सिनेमा हॉल, ब्यूटी पार्लर बंद करने को कहा गया था। इसके साथ ही इसलामी ड्रेस कोड लागू कर दिया गया।

अज्ञात नकाबपोश बंदूकधारियों ने लोगों से ज़बरन पाकिस्तानी स्टैंडर्ड टाइम मानने को कहा।

हर तरह के मकान, दुकान, घर वगैरह को हरे रंग में रंगने का आदेश जारी कर दिया गया। बता दें कि हरे रंग को इसलामी रंग माना जाता है।

jammu-kashmir terrorist attack targets kashmiri pundits - Satya Hindi

19 जनवरी, 1990

इसके बाद 18 और 19 जनवरी की दरम्यानी रात को पूरे श्रीनगर में बिजली काट दी गई, सिर्फ मसजिदों को छोड़ा गया। इन मसजिदों से हिन्दुओं के ख़िलाफ़ प्रचार किया गया, उन्हें अपमानित करने वाली बातें कही गईं और उन्हें धमकाया गया।

  • इसके बाद 21 जनवरी को गावकदल नरसंहार हुआ, जिससे स्थितियाँ बदतर हो गईं। इस दिन प्रदर्शनकारियों की भीड़ पर सेना ने गोलियाँ चला दीं, जिसमें 50 लोग मारे गए।
  • रावलपुरा में बस स्टैंड पर बस का इंतजार कर रहे भारतीय वायु सेना के कई अफसरों पर अज्ञात बंदूकधारियों ने गोलियाँ चला दीं, जिसमें कई अफ़सर घायल हो गए।
  • लोकप्रिय कश्मीरी कवि सर्वानंद कौल को 29 जनवरी 1990 को गोली मार दी गई।
  • श्रीनगर के हब्बाकदल में 2 फरवरी 1990 को सतीश टिक्कू को उनके घर के सामने गोली मार दी गई।
  • श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र के निदेशक लस्सा कौल को 13 फरवरी 1990 को गोली मार दी गई।
  • दिसंबर 1992 को मानवाधिकार कार्यकर्ता हृदय नाथ वांचू को गोली मार दी गई।

हिन्दुओं का पलायन

इन हत्याकांडों का नतीजा यह हुआ कि हज़ारों की तादाद में कश्मीरी हिन्दुओं का पलायन हुआ, वे घाटी छोड़ कर देश के अलग-अलग हिस्सों में चले गए। शुरू में यह समझा गया कि वे स्थिति सामान्य होने पर अपने घर लौट जाएंगे, पर ऐसा न हो सका।

समझा जाता है कि जम्मू-कश्मीर में 1,40,000 कश्मीरी हिन्दू थे, जिनमें से लगभग एक लाख ने अपना घर-बार छोड़ दिया।

हज़ारों की तादाद में विस्थापित कश्मीरी हिन्दू दिल्ली समेत कई जगहों पर रहने को मजबूर हैं।

सवाल यह है कि ये लोग अपने ही देश में, अपनी चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार की मौजूदगी में अपना घर-बार छोड़ने को मजबूर क्यों हुए। उस समय की सरकार उनके विस्थापन को रोकने में नाकाम क्यों हुई?

सवाल यह है भी है कि क्या वैसा ही एक बार फिर हो सकता है? इसका जवाब केंद्र सरकार के पास होना चाहिए। इसका जवाब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति करने वालों के पास होना चाहिए और उनके पास होना चाहिए जिनका मानना था कि अनुच्छेद 370 ख़त्म कर देने से जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद ख़त्म हो जाएगा। 

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क़मर वहीद नक़वी
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